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तमिल समाज में चार दिन का उत्सव है पोंगल

Varanasi News - उत्तर भारत में मकर संक्रांति और दक्षिण भारत में पोंगल का पर्व मनाया जाता है। पोंगल चार दिनों तक चलता है, जिसमें भोगी, सूर्यन, कनु और माट्टू पोंगल शामिल हैं। माट्टू पोंगल पर बैलों की पूजा की जाती है और...

Newswrap हिन्दुस्तान, वाराणसीMon, 13 Jan 2025 12:38 AM
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वाराणसी, मुख्य संवाददाता। उत्तर भारत में मकर संक्रांति के नाम से एक दिन पर्व मनाया जाता है। यही पर्व दक्षिण भारत में पोंगल नाम से चार दिनों तक मनाया जाता है। चारों दिन के पोंगल के चार नाम हैं। 13 से शुरू होकर यह पर्व 16 जनवरी तक मनाया जाएगा। पहले दिन भोगी पोंगल, दूसरे दिन सूर्यन पोंगल, तीसरे दिन कनु पोंगल तथा चौथे दिन माट्टू पोंगल का उत्सव तमिल समाज मनाता है।

तमिल में पोंगल का मतलब ऊफान या उबलना होता है। माट्टू पोंगल के दिन तमिलनाडु के ग्रामीण इलाकों में अब भी बहुत ही खास आयोजन होता है। इस दिन बैलों से भिड़ंत का रोमांचकारी खेल जल्लीकट्टू होता है। तमिल मान्यताओं के अनुसार ‘माट्टु भगवान शंकर का बैल है जिसे एक भूल के कारण भगवान शंकर ने पृथ्वी पर मानव के लिए अन्न पैदा करने को कहा। तब से वह पृथ्वी पर रहकर कृषि कार्य में लगा है। इस दिन किसान अपने बैलों को स्नान कराते हैं। उनके सींगों में तेल लगाते हैं। अन्य प्रकार से बैलों को सजाते हैं। फिर उनकी पूजा की जाती है। इस दिन गाय और बछड़ों की भी पूजा होती है। उन्हें कम गुड़ डालकर उसी दिन पकाया गया पोंगल खिलाया जाता है। कलाविद डॉ. आर. गणेशन बताते हैं कि करीब 2500 सालों से बैल तमिलनाडु के लोगों के लिए आस्था और परंपरा का हिस्सा हैं। पोंगल के तीसरे दिन बैलों की पूजा के बाद सायंकाल गांव में सभी किसान अपने गाय-बैलों का जुलूस निकालते हैं। जुलूस के अगले दिन गांव के बाहर बैलों की लड़ाई होती है जो ‘जल्लीकट्टू के नाम से प्रसिद्ध है। जल्ली शब्द वास्तव में सल्ली से लिया गया है जिसका अर्थ है सिक्का और कट्टू का अर्थ है बंधा हुआ। आशय यह है की, बैल के सींग में बंधी हुई सिक्के का थैली। जल्लीकट्‌टू को एरु थझुवुथल और मनकुविरत्तु के नाम से भी जाना जाता है। इसमें भीड़ के बीच एक सांड को छोड़ दिया जाता है और खिलाड़ी उसे नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। बैलों को मैदान के एक ओर एकत्र किया जाता है। यहां उनका पगहा, नथ वगैरह निकाल कर उन्हें मुक्त कर दिया जाता है। फिर उन्हें उकसा कर एक-एक करके बाहर छोड़ा जाता है। पूरा समय ढोलों का तुमुल निनाद और एकत्र जनसमूह का कोलाहल होता है। इससे बिदक कर बैल पहले तो गाड़ियों को एक-दूसरे से सटा कर बीच में छोड़े हुए संकीर्ण मार्ग से आगे बढ़ते है। फिर मानो चुनौती स्वीकार कर रहे हों। इस तरह बिफर कर और कान, पूंछ फटकार कर चारों दिशाओं में भागते हैं। अब लोगों में बैलों के सीगों से बंधे हुए कपड़े को झपट कर उन्हें काबू में लाने की स्पर्धा शुरू होती है। जो अधिक-से-अधिक बैलों को वश में कर सकते हैं वे लोगों की नजर में सूरमा हो उठते हैं।

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