बोले काशी : रंगकर्म में रोड़ा- रंगकर्मी पूछें, रंगकर्म को धर्म समझें भी किसके बलबूते
Varanasi News - वाराणसी के रंगकर्मियों का कहना है कि उन्हें नाटक करने के लिए सस्ते प्रेक्षागृह नहीं मिल रहे हैं। महंगी दरों के कारण वे नाटक का मंचन नहीं कर पा रहे हैं। तकनीकी ज्ञान की कमी और एकजुटता की कमी भी...
वाराणसी। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने तीन मई, 1868 को ‘जानकी मंगल नाटक में अभिनय किया था। तब छावनी क्षेत्र में बने बनारस थिएटर में इस नाटक के मंचन में कोई दिक्कत नहीं हुई थी क्योंकि तत्कालीन काशी नरेश ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह ने पूरा खर्च वहन किया। आज काशी के रंगकर्मी, रंगकर्म को धर्म समझकर अपना शतप्रतिशत देने के लिए तैयार हैं लेकिन दें तो किसके बलबूते...। न तो पूर्वाभ्यास का कोई स्थान है, न मंचन की सहूलियत और न ही कहीं से मदद। रंगकर्मी पूछ रहे हैं कि आखिर हम जाएं तो कहां जाएं। काशी के रंगकर्मी अपने और सरकारी पहल के हालात पर मुगल बादशाह औरंगजेब से जुड़ा एक किस्सा सुनाते हैं। एक बुढ़िया का बच्चा गड्ढे में गिर गया था। उसने उसे बचाने के लिए गुहार लगाई तो औरंगजेब ने अपनी पीठ से बर्छी निकाली और बच्चे के पेट में घोंपकर उसे बाहर निकाल दिया। बच्चा तो गड्ढे से बाहर आ गया लेकिन बर्छी लगने से उसकी क्या दशा हुई, यह बताने की जरूरत नहीं है। मतलब यह कि कृपा भी हो गई और कुछ हुआ भी नहीं। ‘हिन्दुस्तान से चर्चा में वरिष्ठ रंगकर्मियों ने कहा कि प्रशासन ने रंगकर्म के लिए काम तो किया लेकिन उसे अपने हिस्से में एलाट कर लिया। उदाहरण के तौर पर सांस्कृतिक संकुल है। उसके बाद रुद्राक्ष कन्वेंशन सेंटर बना। उसके बनते समय रंगकर्मियों को बहुत हर्ष हुआ लेकिन नतीजा क्या हुआ। उसका एक दिन का शुल्क लाखों में हैं। रंगकर्मी मानवेंद्र त्रिपाठी ने गोरखपुर में प्रेक्षागृह सस्ता करवा लिया है। बनारस में अब तक ऐसा नहीं हो सका है। साठ से अधिक क्षेत्रीय और हिंदी फीचर फिल्मों में काम कर चुके तेज बहादुर सिंह यादव कहते हैं कि रंगमंच से निकलकर फिल्मों में सफल होने वाले कलाकारों का लंबा इतिहास है लेकिन यह बात बनारस पर लागू नहीं होती। यहां के चंद लोग ही उस फेहरिश्त का हिस्सा हो पाए हैं। इसके पीछे वजह साफ है। कोई रंगकर्मी बनना क्यों चाहेगा। निश्चित रूप से आर्थिक मजबूती होनी चाहिए।
सबसे बड़ी समस्या थिएटर की
रंग संस्था कामायनी के अध्यक्ष डॉ. दीपक कुमार कहते हैं कि बनारस में सबसे बड़ी समस्या थियेटर की है। हमारे पास ऐसी जगह नहीं है कि जहां कम से कम खर्च में नाटक कर सकें। नागरी नाटक मंडली का रेट बहुत अधिक है। सांस्कृतिक संकुल बना मगर उसका स्टेज अच्छा नहीं है। हॉल में ईको की समस्या है। रुद्राक्ष कन्वेंशन सेंटर से बड़ी अपेक्षा थी कि लेकिन उसने रेट के मामले में सबको पीछे छोड़ दिया। वहां तो हम नाटक करने के बारे में सोच भी नहीं सकते। ले देकर नागरी नाटक मंडली का प्रेक्षागृह रह गया है लेकिन वहां भी नाटक करना बहुत महंगा है। वरिष्ठ रंगकर्मी वीना सहाय ने कहा, एक उम्र हो गई नाटक करते-कराते मगर अब तक इस मुकाम पर नहीं पहुंच सके हैं कि रंगकर्मियों को मानदेय दिया जा सके। एक ऐसा स्थान नहीं है जो नाटक करने वाले सभी लोगों को पूर्वाभ्यास के लिए आसानी से उपलब्ध हो।
तकनीक का नहीं दिया जा रहा ज्ञान
फोटो : तेज बहादुर सिंह यादव
अभिनेता तेज बहादुर सिंह यादव ने कहा कि आज रंगमंच के कलाकार फिल्मों और धारावाहिकों में सफल नहीं हो पा रहे हैं तो उसकी बड़ी वजह है। रंगमंच और सिनेमा में तकनीक की दृष्टि से बहुत अंतर है। यह तकनीक नहीं सिखाई जा रही है। बनारस में हिंदी फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर शूट हुई। उसके सेट से बहुत सारे धुरंधर रंगकर्मी वापस कर दिए गए थे। उसकी वजह यह थी कि उन लोगों ने कैमरे के सामने भी रंगमंच के हथकंडे अपनाए। उसके निर्देशक अनुराग कश्यप ने हाथ जोड़ के यहां के रंगकर्मियों से कहा था कि एक्टिंग मत करियेगा। सीन को समझिये वो करके मुझे दीजिए। दक्ष रंगकर्मी भी कैमरे के सामने फेल हो जा रहा है। ऐसा इसलिए हो रहा कि यहां के रंगकर्मियों को तकनीकी रूप से दक्ष नहीं बनाया गया। जो विशेषज्ञ हैं, जो सफल हुए हैं उन्हें सिखाने की विधा से जोड़ा नहीं जा रहा है। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि बनारस में फिल्मों की शूटिंग के लिए ‘क्राउड (कैमरा के सामने दिखने वाली भीड़) पैदा की जा रही है।
जिसे देखो घुस जा रहा नाटक में
फोटो नीलम पॉल
वरिष्ठ रंगकर्मी नीलम पॉल के मुताबिक जो लोग किसी लाइन में खप नहीं पा रहे हैं, वे नाटक में घुस गए हैं। कोई अभिनय सिखा रहा है। कोई आवाज का प्रशिक्षण दे रहा है। हकीकत यह है कि वे खुद कुछ नहीं कर सके हैं लेकिन खुद को महारथी समझते हैं। ऐसे लोगों पर लगाम लगनी चाहिए। सरकार की ओर से परमिट होना चाहिए। उन्हीं लोगों को सहूलियत मिले तो सच में इसके काबिल हैं। जो वास्तव में सिखा सकते हैं। पैसा बनाने में बहुत से लोग लगे हैं लेकिन सिखाने वाले कम हैं।
कलाकारों में है एकजुटता की कमी
फोटो अमलेश श्रीवास्तव
काशी का रंगमंच बड़ा समृद्ध रहा है। साथ ही यह भी उतना ही सच है कि बनारस के कलाकार एकजुट नहीं हैं। आपस में सामंजस्य नहीं है। अमलेश श्रीवास्तव का कहना है कि नाटक अर्थ के अर्जन का स्रोत नहीं बन सके है। इस कारण भी लोग इधर उधर भागते हैं। प्रशिक्षण की पर्याप्त व्यवस्था भी नहीं है। चालीस साल पहले नाटक देखने वालों की भीड़ थी। लोग टिकट लेकर नाटक देखते थे। यही देखकर हमलोग इस दिशा में प्रेरित हुए थे। वर्तमान में यह स्थिति बिल्कुल उलट गई है।
रुद्राक्ष से बहुत हुई निराशा
फोटो : बालमुकुंद त्रिपाठी
वरिष्ठ रंगकर्मी बालमुकुंद त्रिपाठी के मुताबिक बनारस में नाटक के लिए प्रेक्षागृह की कमी सबसे गंभीर समस्या है। प्रेक्षागृह हैं भी तो बहुत महंगे। रुद्राक्ष से बहुत निराशा हुई। सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया। रंगकर्मियों के लिए सस्ता थियेटर बहुत जरूरी है। इसके अभाव में श्रेष्ठ रंगकर्मी पैदा करना मुश्किल है। बनारस में एक चीज अच्छी हुई है कि महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में ड्रामा डिप्लोमा, बी.ड्रामा, एम.ड्रामा के कोर्स शुरू हुए हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का केंद्र तो है लेकिन बनारस के युवाओं के लिए उसमें मौका नहीं है।
काबिलेगौर मुद्दे
सरकार ही न्यूनतम शुल्क पर नाटक के लिए थियेटर उपलब्ध कराए। स्थान का अभाव बड़ा संकट है।
डॉ. दीपक कुमार
पाठ्यक्रम में नाटक का समावेश हो। अभिनय एक दैवीय कृपा है। प्रशिक्षण से उसे और निखारा जा सकता है।
-डी. चंद्रा
नाटक करने से पहले हमने यह सोचना पड़ता है कि पूर्वाभ्यास कहां करेंगे। कभी किसी स्कूल तो कभी किसी संस्था का दरवाजा खटखना पड़ता है।
-वीना सहाय
मैकाले की शिक्षा पद्धति क्लर्क पैदा करती थी। वैसे ही रंगकर्मी गुरु और मठाधीश क्राउड पैदा कर रहे हैं, कलाकार नहीं।
-अनामिका सिन्हा अर्श
अपनी जेब से खर्च करके कब तक नाटक करेंगे। सरकार काशी के रंगकर्मियों को भी सहायता दे।
-आलोक सिंह
नाटक स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बने। उसमें नाटक की सभी शैलियों का समावेश हो।
-सत्या पांडेय
हमारे वरिष्ठ रंगकर्मी भुखमरी के कगार पर हैं। आर्थिक तंगी में नाटक नहीं किया जा सकता।
-कविराज कवि
सभी रंगकर्मी के लिए मानदेय तय किया जाए। सिर्फ बड़ी-बड़ी बातों से पेट नहीं भरता है।
-डॉ. एसके पांडेय
रंगकर्मियों के लिए एक व्यवस्थित स्थान होना चाहिए जहां उन्हें पूर्वाभ्यास और मंचन की सहूलियत मिले।
-अमित सिंह
नागरी नाटक मंडली जैसी प्रतियोगिताएं पुन: शुरू होनी चाहिए। यह बहुत जरूरी है।
-उमेश भाटिया
सुझाव
-बनारस में रंगकर्मियों के लिए एक ऐसा प्रेक्षागृह हो जहां वे बेरोक टोक पूर्वाभ्यास और मंचन के बारे में सोच सकें। यह बहुत जरूरी है।
-सांस्कृतिक संकुल प्रेक्षागृह की तकनीकी खामियां दूर हों। उसे न्यूनतम शुल्क पर काशी के रंगकर्मियों को उपलब्ध कराने की व्यवस्था हो।
-बच्चों को पढ़ने के लिए ही बाध्य न किया जाए। उनकी प्रतिभा पर गौर होना चाहिए। उन्हें उनकी इच्छानुरूप प्रोत्साहित करना चाहिए।
-नाटक पाठ्यक्रम का हिस्सा बने। यूपी सरकार पारितोषिक या छात्रवृत्ति दे ताकि प्रतिभाएं निखर सकें।
-बात से पेट नहीं भरता। पेट भरने के लिए धन चाहिए इसके लिए एकजुट होकर हर रंगकर्मी को कमर कसनी होगी।
शिकायत
-रंगकर्म के प्रति श्रद्धा और संस्कार का अभाव है। यहां सिखाने वालों की भीड़ अधिक हो गई है। यह भी नुकसान का बड़ा कारण है।
-काशी के रंगमंच को सरकारी सहायता नहीं मिलती। पटना की लगभग सभी रंग संस्थाओं को मिलती है।
-काशी में रंगमंच के कलाकारों के लिए संसाधनों का बहुत अभाव है। इससे नई पीढ़ी को नाटक में लाने की प्रेरणा कम होती जा रही है।
-रंगकर्म के लिए समर्पण तभी आएगा जब नाटक आमदनी का स्रोत बनेगा। बनारस में ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती है।
-बनारस में कई तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं लेकिन नाटक के नाम पर सब पीछे हो जाते हैं।
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