बोले काशी: घर-घर स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने वाली ‘बहुएं चाहें पूरी हो आशा
वाराणसी में आशा बहुएं स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए संघर्ष कर रही हैं। 2005 से काम कर रहीं ये महिलाएं 17-18 वर्षों से एक समान प्रोत्साहन राशि पर काम कर रही हैं, जबकि महंगाई बढ़ी है। उनका मानना है...
वाराणसी। स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाओं को घर-घर पहुंचाने, मातृ-शिशु मृत्यु दर में कमी लाने के उद्देश्य से जिन ‘बहुओं को जिम्मेदारियां सौपी गईं, जिनके चलते व्यवस्था में सुधार की बात स्वीकार भी की जाती हो, वे ‘आशा बहू अपनी कामकाजी स्थितियों और परिस्थितियों में सुधार के लिए दो दशक से आस लगाए हुए हैं। उस सुधार पर उनके परिवारों की भी उम्मीदें टिकी हैं। वे शिद्दत से चाहती हैं कि सरकार और विभाग मानदेय समेत उनकी दूसरी जरूरतें भी पूरी करे। उनके बहू होने का मान रखे। अस्पतालों और स्वास्थ्य केन्द्रों की चिकित्सा सेवाओं को अधिकतम लोगों तक पहुंचाने के लिए लगातार प्रयास होते रहे हैं। इसी क्रम में सूबे में आशा बहू की अवधारणा सन 2005 में आई। उस वक्त प्रसूता और नवजात की मृत्यु दर राष्ट्रीय स्तर पर चिंता का विषय थी। लिहाजा, सूबे के जिलों में भी आशा बहुओं की नियुक्ति की गई। बनारस में इन दिनों लगभग 2000 आशा बहुएं स्वास्थ्य विभाग और आमजन, खासकर सुदूरवर्ती गांवों और शहर की उपेक्षित बस्तियों की महिलाओं के बीच सेतु की भूमिका निभा रही हैं। कार्य प्रबंधन की दृष्टि से एक निर्धारित संख्या में इन बहुओं के अलग- अलग क्लस्टर बने हैं। इन क्लस्टर की हेड ‘आशा संगिनी कही जाती हैं। इन सबको आंगनबाड़ी कार्यकर्ता की तरह मानदेय नहीं, प्रोत्साहन राशि या ‘इंसेंटिव दिया जाता है। ब्लॉक मुख्यालयों, स्वास्थ्य केंद्रों पर होने वाली बैठकों के लिए यात्रा भत्ता के 150 रुपये से लेकर प्रसव कराने के लिए 600 रुपये तक के बीच इंसेंटिव की कई कैटेगरी हैं। विडंबना यह है कि लगभग 20 वर्ष पहले तय प्रोत्साहन राशि महंगाई के इस दौर में भी यथावत है। चिरईगांव प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के सभागार में जुटीं आशा बहुओं ने ‘हिन्दुस्तान से अपनी समस्याएं साझा कीं। उनकी संगिनी सुशीला मौर्य ने कहा कि मातृ-शिशु दर कम करने, टीकाकरण में सहयोग, टीबी, मलेरिया की दवा खिलाने, महिलाओं को जागरूक करने और स्वास्थ्य विभागों की योजनाओं के सही क्रियान्वयन में आशा बहुओं की महती भूमिका है। जिम्मेदारियों को देख आप हमें ठीकठाक मानदेय वाली हेल्थ वर्कर समझ बैठेंगे लेकिन वास्तविकता जानकर हैरानी होगी। ‘मजबूरी का किस तरह फायदा उठाया जा सकता है, हम आशा बहू उसकी प्रत्यक्ष उदाहरण है-वंदना यादव ने टिप्पणी की। प्रत्येक ग्राम पंचायत पर उन महिलाओं को आशा बहू बनाया गया है जो थोड़ी पढ़ी लिखी हैं, जिनमें रूढ़िवादी परिवेश से बाहर निकलने में झिझक न हो और जिनकी आर्थिक स्थिति बेहतर न हो। उनकी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता इंटर है लेकिन बातचीत में वे किसी परास्नातक से कमतर नहीं लगतीं। उनकी योग्यता अनुभवों से निखरी है।
इंसेंटिव के साथ फिक्स मानदेय मिले
मीरा पांडेय, उर्मिला, विद्या देवी आदि ने बताया कि हमारी जो भी प्रोत्साहन राशि है, वह सन-2007 की निर्धारित है। 17-18 वर्षों से हम उसी पर हर जिम्मेदारी निभा रहे हैं जबकि इस अवधि में महंगाई कहां-कहां बढ़ी है, सभी जानते हैं लेकिन कोई हमारी दिक्कतों पर गौर नहीं करता। उन्होंने बताया कि एक प्रसव के लिए 600 रुपये इंसेंटिव तय है लेकिन यह तब मिलती है जब स्वास्थ्य केन्द्र में गर्भवती महिला चार बार जांच कराए, स्वास्थ्य केन्द्र या सरकारी अस्पताल में प्रसव के बाद जच्चा-बच्चा 43 दिनों तक वह हमारी निगरानी में रहें। कई बार गर्भवती महिलाएं जांच कराने के बाद मायके चली जाती हैं या किसी निजी अस्पताल में प्रसव को प्राथमिकता देती हैं। तब हमें प्रोत्साहन राशि नहीं मिलती। आशा बहुओं ने स्वास्थ्य सेवा के दूसरे कार्यक्रमों की तय प्रोत्साहन राशियों का उदाहरण देते हुए कहा कि यदि सब कुछ ठीक या अनुकूल रहे तो हमें पांच से छह हजार रुपये एक माह में मिल सकते हैं लेकिन साल के 12 माह ऐसी स्थिति नहीं बनती। इंदु सोनकर, शकुंतला ने कहा-‘आप हमारी आय और आर्थिक स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं। सिर्फ मजबूरी में हम काम कर रहे हैं। आशा संगिनियों ने कहा कि इस स्थिति को देखते हुए ही हम लंबे समय से इंसेंटिव के साथ फिक्स मानदेय की मांग कर रहे हैं। ‘आखिर आंगनबाड़ी को मानदेय मिलता ही है। उनसे कम काम आशा बहुएं नहीं करतीं-रंजना ने कहा।
समझाने में झेलना भी पड़ता है
आशा बहुओं ने अनुभव भी साझा किया। कहा, शुरुआत में हमें झिझक होती थी क्योंकि हम गांव की बहू होती थीं। धीरे-धीरे झिझक दूर हुई तो गांव की दूसरी महिलाओं के व्यंग्य और उनकी सोच से जूझना पड़ा।
यह दर्द कौन दूर करेगा...
प्रोत्साहन राशि बढ़ाने के साथ ही फिक्स मानदेय देना समय की मांग है। इसपर गम्भीरता से विचार करते हुए सरकार को फैसला लेना चाहिए।
सुशीला मौर्या, आशा संगिनी
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सरकार को हमारी दिक्कतों को देखते हुए हमारे हित में कुछ ऐसे फैसले लेने चाहिए, जिससे हम आर्थिक रूप से भी सशक्त बन सकें।
- आशा देवी
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अब मजबूरी हो गई है, दूसरा काम सम्भव नहीं है। हमें मिल रहा पैसा इस दौर में नाकाफी है लेकिन सेवा करने का संतोष उससे कई गुना बड़ा है।
- अनीता देवी
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20 आशा कार्यकत्रियों पर एक आशा संगिनी की नियुक्ति होनी चाहिए लेकिन मानक के हिसाब से यह संख्या काफी कम है। लिहाजा संगिनियों पर वर्कलोड भी अधिक है।
- इन्द्रावती देवी, आशा संगिनी
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मोबाइल पर काम करने में दिक्कत आती है। बेटे-बेटियों से किए गए कार्य की फीडिंग करानी पड़ती है।
- इंदू सोनकर
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अस्पतालों में आशाओं के बैठने की व्यवस्था होनी चाहिए। खासकर रात के समय यहां रुकने पर काफी परेशानी होती है। इसपर गौर करना चाहिए।
- कुसुम देवी
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एक साल काम करते हुआ। प्रोत्साहन राशि काफी कम है लेकिन उम्मीद है कि भविष्य में सरकार हमारी मांगों पर विचार करेगी।
- ललिता देवी
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हमारे काम का कोई मोल नहीं है। महिलाओं, बच्चों की सेवा करने में सुख मिलता है। हालांकि कम प्रोत्साहन राशि या फिक्स मानदेय न मिलने से कई बार मनोबल टूटता भी है।
- पूजा पांडेय
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कई गांवों में समझाने के बाद भी अभिभावक अपने बच्चों का टीकाकरण कराने को तैयार नहीं होते। गर्भवती महिलाएं भी प्रसव के दौरान निजी अस्पतालों का रुख करती हैं। यह व्यवहारिक दिक्कत है।
- सरिता देवी
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वरिष्ठ आशा कार्यकत्रियों के सामने एंड्रायड मोबाइल चलाने की दिक्कत है। समय के साथ वे अपने को डिजिटल युग के हिसाब से ढाल नहीं पाई हैं। ऑनलाइन काम बच्चों से करवाना पड़ता है।
- शकुंतला देवी
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रात को महिलाओं के प्रसव के दौरान अस्पतालों में रुकने पर हमें अलग से जगह नहीं मिलती है। हमारी काफी दिनों से मांग है कि एक अलग से कक्ष बनाया जाए। इसमें सोने की व्यवस्था भी हो।
- सुनीता यादव
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प्रोत्साहन राशि मिलने के लिए सरकारी अस्पतालों में प्रसव जरूरी है। जिन गर्भवती महिलाओं को हम लिस्टेड करते हैं, उनके निजी अस्पतालों में जाने पर इंसेंटिव नहीं मिलता है।
- शशिकला
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जिले के सभी पीएचसी और सीएचसी पर अल्ट्रासाउंड और अन्य जांच की मुकम्मल व्यवस्था होनी चाहिए। यह गांव-गिरांव की चिकित्सा व्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए जरूरी भी है।
- सुनीता भारती
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बार-बार मांग करने के बावजूद सरकार सुन नहीं रही है। यह आशा कार्यकत्रियों के प्रति उदासीनता को दर्शाता है। समय के साथ हमारी भी समस्याएं दूर करने को ठोस पहल होनी चाहिए।
- वंदना यादव
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इसे भी जरूर जानें...
- 2005 में आशाओं का चयन हुआ शुरू
- 2007 में विधिवत काम किया शुरू
- 2000 से ज्यादा आशा कार्यकत्रियां हैं जिले में
- 600 रुपया इंसेटिव मिलता है एक संस्थागत प्रसव पर
- 75 रुपये मिलते हैं ‘ट्रिपल ए की बैठक का इंसेंटिव
- 200 रुपये मिलते हैं ग्राम स्वास्थ्य, स्वच्छता और पोषण समिति की एक बैठक पर
- 12 कक्षा पास है न्यूनतम योग्यता
- 1000 आबादी पर एक आशा कार्यकत्री होनी चाहिए
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