बोले उन्नाव : हमें दूध बेचने का ठिकाना ही दिला दीजिए
Unnao News - 1970 से शुरू हुई श्वेत क्रांति के लाभ के बावजूद, दूधियों की स्थिति चिंताजनक है। बड़ी कंपनियों के दबाव और प्रशासनिक लापरवाही के चलते मुनाफा घटा है। दूध बिक्री के लिए स्थायी मंडी की कमी और महंगे चारे की...
1970 से शुरू श्वेत क्रांति के अग्रणियों ने यह कतई नहीं सोचा होगा कि 55 साल बाद इस अभियान की मुख्य कड़ी यानी कि हम दूधियों के हालात ऐसे हो जाएंगे। घर-घर दूध पहुंचाने और उत्पादन कई गुना बढ़ाने की यह मुहिम तो सफल हो गई, लेकिन हम दूधिये वर्तमान परिस्थितियों के आगे खुद को हारता महसूस कर रहे हैं। बड़ी कंपनियों के चलते मुनाफे में कमी आई पर प्रशासन के खराब रवैये ने हमें अधिक नुकसान पहुंचाया। हर त्योहार पर यह सिलसिला रहता है। आपके अपने अखबार ‘हिन्दुुस्तान से दूधियों ने कहा कि हमें दुग्ध मंडी और क्रय केंद्र की सुविधा ही दिला दीजिए। ठिठुरन भरी सर्दी हो या फिर चिलचिलाती गर्मी, चाहे झमाझम पानी ही क्यों न गिर रहा हो। हर मौसम में हाड़तोड़ मेहनत संग सफर तय कर समय पर घर-घर हम दूध पहुंचाते हैं। बड़ी दूध कंपनियों ने हमारे मुनाफे पर कब्जा कर लिया, फिर भी हमने हार न मानी क्योंकि तिथि-त्योहारों पर अधिक दूध बेचकर पिछला मुनाफा औसत जो कर लेते हैं। इस पर भी पिछले कुछ वर्षों से प्रशासन की नजर लग गई है। वो बात ठीक है कि इस दौरान कुछ लालची लोग मिलावट करते हैं, लेकिन उन पर कार्रवाई के नाम पर हम सभी का उत्पीड़न किया जाना भी गलत है। दूधिया रामखिलावन और जगदीश ने बताया कि बाजार आने वाले दूध में औसतन 12 हजार लीटर दूध की खपत पनीर, छेना और खोया में होता है। ढाई हजार लीटर दूध घरेलू उपयोग में लाया जाता है। यह आंकड़ा आम दिनों का है, जबकि त्योहार में खोया, पनीर के साथ साथ छेना आदि सभी की डिमांड आम दिनों की अपेक्षा दोगुना हो जाती है। यानी 1.50 से 1.80 लाख लीटर तक पहुंच जाती है। इनमें अधिकांश दूध वाले लोगों के घरों तक पहुंचाते हैं। मौजूदा समय करीब 63000 लीटर दूध की उठान की जा रही है।
दूध बिक्री के लिए मंडी को मोहताज
दूधिया राकेश और राजू बताते हैं कि जिले में कहीं भी दुग्ध मंडी नहीं है। शहर की हालत तो और बदतर है। कहीं भी स्थायी जगह नहीं है। पहले हरदोई पुल के नीचे खड़े होकर दूध की बिक्री करते थे। इसके बाद वहां के लोगों के विरोध पर वह जगह छोड़नी पड़ी। मौजूदा समय वह लोग शास्त्री पार्क के पास बने अस्थायी अड्डे पर दूध बेचते हैं। इसकी जानकारी भी लोगों को नहीं है। यहां से कब हटा दिया जाएगा, इसका भी कोई ठिकाना नहीं है।
दुग्ध उत्पादन सहकारी संघ में 20 हजार लीटर दूध रखने की क्षमती थी
दूधिया महेश ने बताया कि दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए राज्य और केंद्र सरकार कामधेनु, मिनी कामधेनु जैसी कई योजनाएं चला रही हैं। इसके बावजूद जिले में सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलता है। आलम यह है कि जिले में क्रय केंद्र तक की व्यवस्था नहीं है। ऐसे में कई बार दूध का उत्पादन अधिक होने या बिक्री न होने से फेंकना पड़ता है। इसके लिए शासन ने दही स्थित औद्योगिक क्षेत्र में करोड़ों की लागत से दुग्ध उत्पादन सहकारी संघ लिमिटेड का निर्माण किया था। यहां करीब 20 हजार लीटर दूध रखने की क्षमता थी। दूध की खरीद समितियों के माध्यम से की जानी थी, लेकिन यह भी व्यवस्था कारगर नहीं है। ऐसे में उनके पास दूध बेचने के लिए कोई व्यवस्थित इंतजाम नहीं हैं। इससे उनकी आर्थिक स्थिति दिन प्रति दिन खराब होती चली जा रही है।
भूसे-चारे के दाम दस गुना तक बढ़े
दूधिया शिवमोहन ने बताया कि अब बाजार में पैकेट बंद दूध आने लगा है। इससे उनके व्यापार पर फर्क पड़ रहा है। वह लोग बड़ी कंपनियों की तरह काफी मात्रा में भूसा और चारा नहीं खरीद सकते हैं। इससे उन्हें भूसे और चारे के रेट अधिक देने पड़ते हैं। साथ ही, उनके पास संसाधनों की भी कमी है। इसलिए बड़ी कंपनियों से प्रतिद्वंद्विता करना महंगा पड़ रहा है। बीते दस सालों में भूसे और चारे के दाम करीब पांच से दस गुना बढ़ गए, लेकिन दूध के दामों में अपेक्षानुसार बढ़ोतरी नहीं हुई। इससे उनके सामने मवेशियों के पेट भरने का भी संकट खड़ा हो रहा है। ऐसे में शासन को भूसे-चारे के दामों में कमी और दूध की कीमतों में कुछ बढ़ोतरी करनी चाहिए ताकि जिससे उन्हें राहत मिल सके।
पशु इलाज की व्यवस्था धड़ाम
दूधिया सत्येंद्र ने बताया कि सरकार पशु पालकों की बेहतरी के लिए कई योजनाएं चलाती है, लेकिन वे धरातल पर नहीं उतरती हैं। शासन ने मवेशियों के इलाज के लिए पशु चिकित्सालयों की व्यवस्था तो की है, लेकिन यहां गंभीर बीमारियों का इलाज नहीं हो पाता है। कई बार तो दवाएं भी उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। इससे मजबूरी में बाहर से महंगी दवाएं खरीदनी पड़ती हैं। इसका भार उनकी जेबों पर पड़ता है। शासन ने मवेशियों के इलाज के लिए पशु एंबुलेंस की व्यवस्था की थी, लेकिन जिले में यह व्यवस्था पूरी तरह धड़ाम हो चुकी है। कई-कई बार जिम्मेदारों को जानकारी देने के बावजूद एंबुलेंस समय पर नहीं पहुंचती है। इससे उनके पास निजी पशु चिकित्सकों के चक्कर काटने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता है। पशु चिकित्सक इलाज के नाम पर मनमाने रुपये वसूलते हैं।
त्योहारों पर कई बार नमूने न लिए जाएं
दूधिया मनसुख बताते हैं कि त्योहार आते ही खाद्य विभाग के अधिकारी डेयरी उत्पादों की गुणवत्ता जांचने के लिए सैंपलिंग करते हैं। यह प्रक्रिया भी दूधियों के लिए सिर दर्द साबित हो रही है। कई अधिकारी एक ही दूधिये के दुग्ध उत्पादों का कई बार सैंपल ले लेते हैं। इससे ग्राहकों के मन में उत्पाद ठीक न होने का संशय आ जाता है। वहीं, कई बार तो ऐसा होता है कि सैंपल पास होने के बाद बावजूद दूधियों को परेशान किया जाता है। शासन को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए ताकि वह लोग बेहतर ढंग से व्यवसाय कर सकें।
प्रतिदिन करीब 97 हजार लीटर दूध का उत्पादन
दुग्ध उत्पादन के आंकड़ों के अनुसार, जिले में कामधेनु, मिनी कामधेनु तथा आठ से अधिक माइक्रो दूध डेयरियां कुछ वर्ष पहले चालू की गई थी। इसके अलावा पशु पालक भी दुधारू जानवर पालते हैं। इन सभी को मिलाकर जिले में प्रतिदिन करीब 97 हजार लीटर दुग्ध उत्पादन होता है। जानकर बताते हैं कि वर्तमान में करीब 63000 लीटर प्रतिदिन दूध का उठान किया जा रहा है।
सुझाव
1. शहर में दूध बिक्री के लिए स्थायी मंडी की स्थापना हो ताकि लोगों को दूध के लिए इधर-उधर भटकना न पड़े।
2. खाद्य विभाग की एक निर्धारित गाइडलाइन तय की जाए। त्योहारों के समय दूधियों का शोषण बंद किया जाए।
3. भूसा और चारा काफी महंगा है और दूध के रेट बेहद कम हैं। दूध के दाम बढ़ें तो दूधियों को राहत मिले।
4. सरकारी योजनाओं के लाभ के लिए पशुपालकों को चक्कर न कटवाए जाएं। इससे सीधे दूध उत्पादन में वृद्धि होगी।
5. बीमार पशुओं का बेहतर और नि:शुल्क इलाज हो। अभी जिम्मेदार लापरवाही कर रहे हैं।
6. बिक्री न होने पर दूध खरीद के लिए सरकार क्रय केंद्र स्थापति करे ताकि दूधियों का नुकसान का सामना न करना पड़े।
शिकायतें
1. पशु चिकित्सालय में डॉक्टर बाहर की दवा लिखते हैं। इससे पशुपालकों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है।
2. जानवरों के रेट बहुत अधिक हो गए हैं। पशुओं की खरीद पर कोई सब्सिडी भी नहीं दी जाती है।
3. त्योहारों के समय एक ही दूधिए का कई बार सैंपल भर लिया जाता है। बाद में इसी सैंपल के नाम पर कई बार जुर्माना लगाया जाता है।
4. जानवर यूरिया युक्त चारा खाते हैं तो दूध में यूरिया मिलेगा ही। नमूने भरने के बाद अधिकारी जुर्माना लगा देते हैं।
5. मंडी स्थायी न होने से दूध बेचने के लिए स्थायी ठिकाना न होने से भटकना पड़ता है।
6. दूध का रेट इतना सस्ता है कि अब लागत तक निकालना मुश्किल हो गया है।
बोले दूधिये
पशुओं के लिए भूसा और हरा चारा इतना महंगा हो गया है कि लागत तक निकालना मुश्किल हो गया है। दूध के वाजिब रेट भी नहीं मिल रहे हैं। - राजकुमार पाल
मिठाई और दूध से बने उत्पाद काफी महंगे हैं, लेकिन हम लोगों को दूध सस्ते में लिया जाता है। इस पर रोक लगनी चाहिए। लागत निकलना मुश्किल है। -रामबहादुर
शहर में एक जगह मंडी न होने से व्यापार करने में समस्या आ रही है। एक स्थान पर मंडी संचालित की जाए तो दूध के वाजिब मूल्य भी मिल सकते हैं। -गोकरन
फूड विभाग के अधिकारी सैंपल भरने के नाम पर शोषण करते हैं। त्योहारों पर बेवजह परेशान किया जाता है। मिलावट पकड़नी है तो दुकानों पर छापेमारी करें। -राजू
कई बार एक ही दूध के कई अधिकारी सैंपल भर ले जाते हैं और अलग-अलग जुर्माना वसूलते हैं। मेहनत की भी लागत निकाल पाना मुश्किल हो रहा है। -महेश
बोले जिम्मेदार
खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता जांचने के लिए दूध की सैंपलिंग नियमित की जाती है। यह एक नियमत: प्रक्रिया है। सैंपलिंग के नाम पर किसी व्यक्ति को परेशान न करने के निर्देश हैं। फिर भी यदि कोई समस्या है तो वह कार्यालय आकर शिकायत कर सकते हैं। नाम गोपनीय रखा जाएगा। इन लोगों की परेशानी को दूर करने के लिए हरसंभव प्रयास किया जाए।
- शैलेश दीक्षित, मुख्य खाद्य सुरक्षा अधिकारी
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