बेहद महत्वपूर्ण है दो जिलों की सीमाओं के बीच स्थित श्वेत वाराह क्षेत्र
- दो जिलों के बीच 14 किलोमीटर के क्षेत्र का विशेष महत्व है। कहा जाता है कि यह वही पवित्र भूमि है जहां भगवान विष्णु ने वाराह रूप में अवतार लिया
गोमती नदी के किनारे दोनों तटों पर सुलतानपुर और अमेठी जनपद की सीमा में करीब 14 किमी में फैला श्वेत वाराह क्षेत्र पौराणिक महत्ता समेटे है। कहा जाता है कि यह वही पवित्र भूमि है, जहां भगवान विष्णु ने वाराह रूप में अवतार लिया। अमेठी जिले के मुसाफिरखाना कस्बा से लगभग 10 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में गोमती नदी के दोनों तटों पर पौराणिक श्वेत वाराह क्षेत्र है। यहां गोमती के दक्षिणी तट का क्षेत्र अमेठी में आता है, वहीं उत्तरी तट का क्षेत्र सुलतानपुर जनपद में पड़ता है।
वर्तमान में श्वेत वाराह भगवान का मंदिर सुलतानपुर जनपद के पिपरी गांव में स्थित है जो गोमती तट पर बसा एक गांव है। इस मंदिर के पास राम जानकी मंदिर, शिव मंदिर सहित अन्य मंदिर भी हैं। यहां भगवान श्वेत वाराह के अवतरित होने की किंवदंती प्रचलित है। बताते हैं कि इसी स्थान पर प्राचीन समय में गोमती में श्वेत वाराह भगवान की मूर्ति का प्राकट्य हुआ था। क्षेत्र के कई गांवों का भी भगवान विष्णु, हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप से संबंध होना बताया जाता है।
श्वेत वराह क्षेत्र का विस्तार
श्वेत वाराह क्षेत्र को गोमती नदी दो भागो में बांटती है। पश्चिम में भूलीनगर ग्राम से पूरब में परगना इसौली (ईसी गढ़ी) तक इसकी लंबाई लगभग 14 किलोमीटर तथा गोमती के दोनों तरफ चौड़ाई लगभग 3 किलोमीटर मानी जाती है। इस क्षेत्र में अनादि काल से ऋषि मुनि एवं साधक अपनी तप साधना के लिए आते रहते हैं।
श्वेत वाराह क्षेत्र का पौराणिक महत्व
श्रीमद् भागवत् महापुराण एवं अन्य पौराणिक ग्रंथों में वर्णित कथाओं के आधार पर उल्लेख मिलता है कि हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकश्यप नाम के दो राक्षसों के अत्याचार से जब पृथ्वी त्राहि-त्राहि करने लगी तो समस्त ऋषि, मुनि और देवता भयभीत होकर राक्षसों से मुक्ति दिलाने भगवान विष्णु की शरण में गए। इसके बाद भगवान विष्णु ने श्वेत वाराह का रूप धारण कर हिरण्याक्ष का वध किया।
श्वेत वाराह क्षेत्र में स्थित मंदिर
श्वेत वाराह क्षेत्र में गोमती के दोनों तटों पर अनेक सिद्ध संतों एवं महात्माओं के आश्रम व मन्दिर हैं। श्वेत वाराह (वाराह रूपन) मंदिर के पास ही संत दयानाथ समाधि, संत खाकी बाबा द्वारा निर्मित राम जानकी मंदिर, हनुमान मंदिर, शिव मंदिर और गोवर्द्धन दास की समाधि है। ये मंदिर लगभग 130 वर्ष पुराने बताए जाते हैं जो श्रृद्धालुओं एवं भक्तों की आस्था का केन्द्र बने हुए हैं
श्वेत वाराह मंदिर की ऐतिहासिक प्रमाणिकता
बताते हैं कि श्वेत वाराह मंदिर भगवान दण्डेश्वर नाथ मंदिर के पश्चिम भाग में ऊंचे टीले पर बना था। इसे सम्राट विक्रमादित्य द्वारा अयोध्या पुनरोद्धार के समय बनाया गया था। बाद में सिकंदर लोदी ने इसे सन् 1488 में तोड़ दिया। उसके बाद यह टीले में बदल गया। इस क्षेत्र में रहने वाले शिव मत के अनुयायियों ने श्वेत वाराह वैष्णव मंदिर होने के कारण इसके निर्माण में कोई रूचि नहीं दिखाई।
पौराणिक कथाओं का आधार
स्थानीय लोगों का मत है कि श्वेत वाराह क्षेत्र का भूली नगर वह स्थान है, जहां हिरण्याक्ष पृथ्वी की समस्त धन-संपदा लेकर रसातल चला गया था। आज का थौरी वह स्थल है, जहां भगवान विष्णु ने पृथ्वी की धन-संपदा को रसातल से वापस लेकर पुनः स्थापित किया। कोछित गांव भगवान विष्णु की पत्नी माता लक्ष्मी के नाम पर उस समय का श्रीइच्छित नगर है। आज का नारा अढ़नपुर प्राचीन काल का विष्णु के नारायण स्वरूप के कारण बसा नारायणपुर है।
हिरण्याक्ष का कोट जहां था और जिसे भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र से काट कर वितीर्ण कर दिया था, वह जगह आज कोटवा है। हिरण्याक्ष वध के बाद भगवान विष्णु से बैर रखने वाले उसके भाई हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु को हरण के बाद इंद्र ने जिस स्थान पर नारद के पास छोड़ा था, वह इलाका आज का कादूनाला क्षेत्र है, जिसमें नारद धाम स्थित है।
श्वेत वाराह मण्डुप एवं बाबा दया नाथ की समाधि
सिकंदर लोदी ने श्वेत वाराह एवं दण्डेश्वर नाथ मंदिर को तुड़वा दिया था। सन् 1525 के आस-पास पंडित गुनीराम ने व्यापारियों एवं जन सहयोग से राजा राय कुंवर के शासनकाल में दण्डेश्वर नाथ मन्दिर एवं पक्के घाट का निर्माण कराया। बाबा दयानाथ के आशीर्वाद से पुत्र रत्न की प्राप्ति होने पर राजा निहाल ने सन 1730 के आसपास बाबा दयानाथ की समाधि एवं श्वेत वाराह मण्डुप का निर्माण कराया था।
श्वेत वाराह क्षेत्र की सप्तकोसी परिक्रमा
वर्ष में एक बार श्रद्धालु पैदल श्वेत वाराह क्षेत्र की सप्तकोशी परिक्रमा करते हैं। परिक्रमा गाजनपुर के कुंडेश्वर धाम से का शुरू होती है। परिक्रमा पदयात्रा गाजनपुर के कुंडेश्वर धाम से नारा, नौगीरे, कोटवा, कोछित, थौरी, आमघाट, कांकरकोला, पिपरी, पूरे जबर, छतारी होते हुए वापस कुंडेश्वर धाम आकर समाप्त होती है। यहां चैत्र रामनवमी और कार्तिक पूर्णिमा पर मेला लगता है।