लखनऊ में दो-दो चर्च बनवाने के बाद भी अंग्रेज इस इमामबाड़ा में करते थे प्रार्थना, जानिए क्यों?
अंग्रेजों ने लखनऊ में दो चर्च बनवाए थे लेकिन 1857 के बाद भी शहर के हजरतगंज में स्थित सिब्तैनाबाद इमामबाड़े में दो साल तक अंग्रेजों ने प्रार्थना की थी। जानें क्यों चर्च में नहीं हुई प्रार्थना?
लखनऊ में एक और इमामबाड़ा है जो बेहद खूबसूरत है। देश की धरोहरों की सूची में यह पहले स्थान पर है, क्योंकि इसके अपने बाइलॉज हैं। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के पिता ने इसका निर्माण शुरू कराया था। वाजिद अली शाह के समय यह बनकर तैयार हुआ जिसमें उस दौर में 10 लाख रुपये खर्च हुए थे।
इस इमामबाड़े का निर्माण मजिलस और इमाम हुसैन की शहादत पर शोक मनाने केलिए किया गया था। नवाब अमजद अली खां जो कि 1842 से लेकर 1947 तक अवध की गद्दी पर आसीन रहे, उनका यह ड्रीम प्रोजेक्ट था। नवाब अमजद अली खां तब अवध के बादशाह हुआ करते थे। उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे नवाब वाजिद अली शाह ने पिता के अधूरे ख्वाब को पूरा करवाया। तब इसे 16 बीघा क्षेत्रफल में बनवाया गया था।
धरोहरों को बचाने की मुहिम चला रहे एक्टिविस्ट एवं सिब्तैनाबाद इमामबाड़े के पूर्व ट्रस्टी मो. हैदर के अनुसार यह पहला ऐसा स्मारक है जिसके अपने नियम कानून हैं। इसके दो प्रवेश द्वार हैं। एक मुख्य परिसर में जाता है और दूसरा हॉल में जाता है। मुख्य हॉल में पांच मेहराबदार दरवाजे हैं जिन पर खूबसूरत कारीगरी है। दीवारों और ऊंची छत नवाबी काल की स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। इसको झूमरों से सजाया गया था। इमामबाड़े में रंगीन कांच का भी बखूबी इस्तेमाल किया गया है। मो. हैदर के अनुसार 1919 में इस इमामबाड़े को संरक्षित स्मारक घोषित किया गया था।
इसाइयों का अस्थायी गिरजाघर रही इमारत
अंग्रेजों ने प्रार्थना केलिए रेजीडेंसी और मड़ियांव के पास चर्च बनवाए थे। 1857 की क्रांति में ये दोनों ही क्षतिग्रस्त हो गए। ऐसे में अंग्रेजों ने इस अस्थायी गिरजाघर मानते हुए प्रार्थनाएं कीं। रविवार को होने वाली प्रार्थनाएं भी इसी इमामबाड़े में हुआ करती थीं। 1858 तक यह सिलसिला चलता रहा जब तक नए चर्च तैयार नहीं हो गए।
मौजूदा समय अतिक्रमण का शिकार सिब्तैनाबाद इमामबाड़ा
यह खूबसूरत धरोहर अपनी पहचान खोती जा रही है। मो. हैदर के अनुसार 1921 में इस पर इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट का अधिकार हो गया। क्योंकि यह धरोहर के रूप में दर्ज हो चुका था इसलिए मस्जिद और इमामबाड़े का मूल परिसर इस करार में शामिल नहीं किया गया था। इसकी जमीनों पर दुकानें बनती चली गईं। इसके हजरतगंज की मुख्य सड़क की ओर खुलने वाले गेट पर भी कब्जा हो गया जो इसी वजह से दो वर्ष पहले धाराशायी हो गया था। इसको फिर से बनवाया गया।