1981 टोक्यो पैरालंपिक में देश के लिए तीन गोल्ड मेडल जीतने वाले कौशलेंद्र सिंह का निधन, दिल्ली के RMLअस्पताल में ली अंतिम सांस
पैरालंपिक में तीन स्वर्ण और एक रजत समेत कई पदक जीतने वाले दिव्यांग खिलाड़ी कौशलेंद्र सिंह का बुधवार रात दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में निधन हो गया। वह तीन माह से बीमार थे। गुरुवार को गंगा के...
पैरालंपिक में तीन स्वर्ण और एक रजत समेत कई पदक जीतने वाले दिव्यांग खिलाड़ी कौशलेंद्र सिंह का बुधवार रात दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में निधन हो गया। वह तीन माह से बीमार थे। गुरुवार को गंगा के ढाईघाट तट पर उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।
करीब 57 वर्षीय कौशलेंद्र सिंह मूल रूप से जलालाबाद के बहगुल नदी किनारे गांव कोना याकूबपुर के निवासी थे। वर्ष 1960 के उनका परिवार जलालाबाद आकर बस गया। अपने पिता चंद्रहास सिंह के तीन बेटों और पांच बेटियों में कौशलेंद्र तीसरे नंबर के थे। वह अविवाहित थे और नगर के मोहल्ला प्रतापनगर में अपने छोटे भाई तीर्थराज के परिवार के साथ रहते थे।
तीर्थराज के अनुसार, वह पिछले करीब तीन चार महीनों से अस्वस्थ्य थे। उनका हरिद्वार के एक अस्पताल से इलाज चल रहा था। फायदा न होने पर दस दिन पहले वह उन्हें लेकर दिल्ली गए। बुधवार रात राम मनोहर लोहिया अस्पताल में उनकी इलाज के दौरान मौत हो गई।
कौशलेंद्र जन्म से दिव्यांग नहीं थे। वर्ष 1977 में जब वह 13 साल के थे, अपने गांव कोना याकूबपुर में पेड़ पर चढ़ने के दौरान गिर गए, जिससे उनकी रीढ़ की हड्डी टूट गई और सीने से नीचे का पूरा हिस्सा सुन्न पड़ गया। कई साल चले इलाज के बाद भी कौशलेंद्र उस घटना के बाद अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सके।
कौशलेंद्र वर्ष 1981 में पैरालंपिक में जापान गए थे, जहां उन्होंने चेयर रेस में 26 देशों के खिलाड़ियों को पछाड़ते हुए तीन स्वर्ण पदक देश की झोली में डाले। उन्होंने टोक्यो पैरालंपिक में 1500, 100 मीटर व्हील चेयर मुकाबलों में गोल्ड जीता। साथ ही कौशलेंद्र सिंह ने 100 मीटर बाधा दौड़ में भी गोल्ड जीता था। बाद में 1982 में हांगकांग में आयोजित पैसेफिक खेलों में उन्होंने भाला फेंक में रजत और कांस्य पदक जीतकर देश का नाम रौशन किया था।
सालों संघर्ष के बाद मिलती थी 300 रुपये पेंशन
जलालाबाद निवासी कौशलेंद्र को 300 रुपए महीना पेंशन मिलती थी। इस पेंशन को पाने के लिए कौशलेंद्र को सालों संघर्ष करना पड़ा था। वह जीवन भर आर्थिक तंगी के दौर से ही गुजरे। देश के लिए मेडल लाने वाले इस दिव्यांग खिलाड़ी को आर्थिक तंगी झेलनी पड़ी, हालांकि परिवार के लोग उनका बहुत ध्यान रखते थे। उनके इलाज में जो भी कुछ हो सका, वह किया गया।