इस्लाम भी शादी से पहले शारीरिक संबंध बनाने के खिलाफ, लिव-इन में रहने वाले प्रेमी युगल को सुरक्षा देने से HC का इनकार
हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले एक प्रेमी युगल को राहत देने से इनकार करते हुए कहा है कि कानून पारम्परिक तौर पर विवाह के पक्ष में है।
हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले एक प्रेमी युगल को राहत देने से इनकार करते हुए कहा है कि कानून पारम्परिक तौर पर विवाह के पक्ष में है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रेमी युगलों की सुरक्षा व लिव-इन को लेकर जो निर्णय पारित किए गए हैं, उनमें भी शीर्ष अदालत ने सिर्फ समाज की सच्चाई को स्वीकार किया है, न कि ऐसे रिश्तों को बढ़ावा देने का उक्त निर्णयों में कोई इरादा है। अपनी टिप्पणी में न्यायालय ने कहा कि इस्लाम भी विवाह पूर्व शारीरिक संबंधों के विरुद्ध है और ऐसे कृत्य को व्यभिचार मानते हुए इसे ‘जिना’ कहा गया है।
यह आदेश न्यायमूर्ति संगीता चंद्रा और न्यायमूर्ति नरेंद्र कुमार जौहरी की खंडपीठ ने दो अलग-अलग धर्मों के प्रेमी युगल की याचिका को खारिज करते हुए पारित किया। याचियों का कहना था कि वे क्रमशः 29 और 30 साल के युवा हैं। एक-दूसरे से प्रेम करते हैं तथा लिव-इन में रह रहे हैं, लेकिन लड़की की मां के कहने पर लखनऊ के थाना हसनगंज की पुलिस उन्हें परेशान कर रही है। कहा गया कि दोनों के मजहब अलग-अलग होने के कारण लड़की के परिवार वाले उनके रिश्ते को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। याचिका में पुलिस को याचियों के शांतिपूर्ण जीवन में दखल न देने का आदेश देने की मांग की गई।
न्यायालय ने 28 अप्रैल को याचिका पर विस्तृत आदेश पारित करते हुए कहा कि याचियों ने अपनी वैवाहिक स्थिति के बारे में कोई स्पष्ट कथन नहीं किया है और न ही इस तथ्य का उल्लेख है कि वे निकट भविष्य में विवाह करने जा रहे हैं। न्यायालय ने यह भी पाया कि याचिका में पुलिस द्वारा परेशान करने की किसी भी विशेष घटना का कोई उल्लेख नहीं है। याचिका में सर्वोच्च न्यायालय के तमाम आदेशों का हवाला दिया गया था, जिस पर न्यायालय ने टिप्पणी कि उक्त निर्णयों को लिव-इन संबंधों को बढ़ावा देने के तौर पर नहीं देखा जा सकता।
न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की कि युवाओं में यह जागरूकता लानी होगी कि ऐसे रिश्ते तमाम कानूनी परेशानियों को उत्पन्न करते हैं, जैसे सम्पत्ति में बंटवारा, हिंसा, लिव-इन पार्टनर के साथ धोखा, पार्टनर से अलगाव अथवा उसकी मृत्यु के पश्चात पुनर्वास व ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चे की कस्टडी आदि। न्यायालय ने कहा कि स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने भी भरण-पोषण के मामलों में लिव-इन पार्टनर को ‘पत्नी’ की परिभाषा में शामिल करने से इनकार किया है।