चुनावी सफर शशि शेखर के साथ: अतीत की मांद में भविष्य की तलाश
काशी हिंदू विश्वविद्यालय का परिसर पतझड़ के इस मदमाते मौसम में भी सियासी चर्चाओं से गुलजार है। यहां के युवा राजनीति की गहराई को विस्तार से समझते हैं और इन्हें समझाते भी हैं। आज...
काशी हिंदू विश्वविद्यालय का परिसर पतझड़ के इस मदमाते मौसम में भी सियासी चर्चाओं से गुलजार है। यहां के युवा राजनीति की गहराई को विस्तार से समझते हैं और इन्हें समझाते भी हैं। आज चुनावी सफर के अंतिम पड़ाव के दौरान अतीत की मांद में भविष्य की तलाश करते इन युवाओं के मन की बात...
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इन दिनों आम के पेड़ों पर ताजे-ताजे आए बौर महकने लगे हैं। 40 साल पहले जब मैंने इस परिसर को अलविदा कहा था, तब इस मौसम में पूरा परिसर इनकी सुगंध से मदमाता रहता था। आज विश्वविद्यालय और वहां के विद्यार्थियों के हालात क्या हैं, यह जानने के लिए मैं उस परिसर में दाखिल होता हूं, जहां तमाम सुखद संयोग मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे।
इधर-उधर डोलते हुए मैं काशी-हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में जा पहुंचा। अभी नियमित कक्षाएं नहीं चल रहीं पर फिर भी कुछ कर्तव्यनिष्ठ प्राध्यापक और शोध छात्र वहां नियमित तौर पर आते हैं। उनसे बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर घंटों चलता रहा। विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर ओंकारनाथ सिंह ने हमें सभागार मुहैया करा दिया था और मेरा परिचय देने की जिम्मेदारी उत्साही सहायक प्रोफेसर डॉक्टर विनोद जायसवाल ने संभाल ली थी। वे रोमांचक पल थे, क्योंकि सामने की सीटों पर मैं कभी बहैसियत विद्यार्थी बैठा करता था। थोड़ी देर में अपरिचय की धुंध छंट गई और फिर बातचीत का सिलसिला जैसे बह निकला।
मेरा पहला सवाल था- लोकतंत्र से आप क्या समझते हैं? अधिकांश छात्रों का जवाब उत्साहजनक था। उन्हें लोकतंत्र में उम्मीद नजर आती है। जात-पात, भ्रष्टाचार, माफिया का दखल तथा सांप्रदायिकता की भरमार के बावजूद उन्हें इस प्रणाली में सबकी बेहतरी दिखती है। आकाश आर्यन ने बताया, ‘चुनाव एक माध्यम है जिससे जनता अपनी बात कह सकती है। लोकतंत्र में वोट का अधिकार लोगों को अपने मन का प्रत्याशी चुनने का अधिकार देता है।’
दूसरे छात्र अंकित सिंह का कहना था, ‘चुनाव ऐसा माध्यम है जो जनता को बदलाव का अवसर देता है। राजतंत्र या मोनार्की की व्यवस्था में यह संभव नहीं है। उस निजाम में लोग बदलाव नहीं कर सकते।’
प्रिया तिवारी अकेली थीं, जो महिला बिरादरी का प्रतिनिधित्व कर रहीं थीं। यह देखना दुखद था कि छात्राएं बार-बार कहने के बावजूद चुप बैठी हैं पर प्रिया बोलीं- ‘समय के साथ नेतृत्व में बदलाव होना ही चाहिए। इसके लिए चुनाव जरूरी हैं। लोकतंत्र एक ऐसा माध्यम है, जो आम लोगों को सत्ता को नियंत्रित करने का अधिकार देता है। लोकतंत्र के प्रति आस्था बनी रहे, इसलिए जनता को भी अपने दायित्व का निर्वाह करना होगा।’
इन जवाबों से उल्लसित होकर मैंने अगला सवाल पूछा कि आप अपने सांसदों और विधायकों को कितने नंबर देना चाहेंगे? सिर्फ एक के अलावा सभी ने अपने प्रतिनिधियों को दस में से महज एक से चार के बीच में अंक दिए। जाहिर है, हमारे जनप्रतिनिधि अपने मतदाताओं की आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। संयोगवश, छात्र-छात्राओं के इस झुंड में सोहन गुप्त अकेले थे जो वाराणसी के वोटर हैं, उन्होंने अपने सांसद नरेंद्र मोदी को 10 में से 8 अंक दिए। मैंने पूछा इसकी वजह? वे एक सुर में काशी में होने वाले या अब तक हुए काम गिनाते चले गए। बहैसियत प्रधानमंत्री आप उन्हें कैसे आंकते हैं? इस पर सोहन का जवाब था, ‘इस मामले में उन्हें मैं उतने नंबर फिलहाल नहीं दूंगा, क्योंकि अभी उनके कुछ वायदे पूरे होने बाकी हैं।’
एक अन्य छात्र विश्वनाथ प्रताप सिंह ने चंदौली के सांसद महेंद्र नाथ पांडेय को दस में से आठ नंबर दिए। मैंने कहा ऐसा क्यों? उसका जवाब था कि वे सबसे अच्छे से मिलते हैं और जनता के विकास कार्यों में रुचि लेते हैं। इन पंक्तियों के लिखने तक यह बात मुझे सालती रही कि काश, काशी के कुछ और विद्यार्थी यहां होते पर हमेशा आपके मन की हो, ऐसा संभव तो नहीं।
लगभग दो घंटे की बातचीत के बाद प्रोफेसर ओंकारनाथ सिंह आग्रह करते हैं कि उनका संग्रहालय जरूर देखूं। जब हम पढ़ते थे, तब वह नहीं था।
प्रो. सुमन जैन, प्रो. महेश प्रसाद अहिरवार, डॉ. अर्चना शर्मा, डॉ. विराग सोनटाके, डॉ. प्राची विराग सोनटाके और डॉ. गौतम कुमार लामा ने विभाग में वक्त के साथ हुए बदलावों की जानकारी दी। टीम भावना के साथ हो रहे काम उनमें ऊर्जा भरते प्रतीत हुए। संग्रहालय में पुरावशेषों के संयोजन में सहायक क्यूरेटर दीपक कुमार की मेहनत दिख रही थी।
संग्रहालय में मिट्टी के बर्तन का एक टुकड़ा देखता हूं। उसकी उम्र ईसा से छह सौ साल पुरानी आंकी गई है। उसकी चमक अभी तक जस की तस है। वह इतना चमकदार क्यों है? इस सवाल का जवाब प्रोफेसर प्रभाकर उपाध्याय ने कुछ यूं दिया- ‘है तो यह मिट्टी का लेकिन उस समय इसमें विशेष तरह का लौह अयस्क मिलाया जाता था जिससे उसमें चमक आ जाती थी।’ दिमाग में बिजली की तरह कौंधा, तथागत की शिक्षाओं की तरह उस समय के बर्तनों की भी चमक धुंधली नहीं पड़ती! ईसा से सैकड़ों साल पहले भारत का लोकतंत्र भी जन्मा था। वह दीर्घजीवी तो साबित हुआ पर वह अजर-अमर-अविनाशी चमक कब ग्रहण करेगा?
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से रुखसती के वक्त देखता हूं कि पतझड़ ने पीपल के तमाम पत्ते सड़कों पर बिछा दिए हैं। हमारे वक्त में भी ऐसा ही होता था। हमें उन पर चलना और उनकी कड़कड़ाहट सुनना सुखद लगता था। गाड़ी से उतरकर पैदल चलने लगता हूं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की वह दोपहर चुनावी सफर के आखिरी दिन ऐसी पुलक देगी, सोचा न था।
सिंहद्वार से बाहर निकलते ही लगा कि हम जन-सैलाब में धंसते जा रहे हैं। लंका से साजन सिनेमा तक लगातार भीड़ बढ़ती गई। साथ चल रहे साथी ने बताया कि मोदी के हर रोड शो के दौरान शहर थम जाता है। हाथों में झंडे लिए लोगों के झुंड इसकी मुनादी कर रहे थे।
बाद में हवाई अड्डे की लाउंज में लगे टीवी के परदे पर जो जन-ज्वार दिखाई पड़ा वह चौंकाता था। 2014 से अब तक प्रधानमंत्री अपनी लोकप्रियता को काशी में जस का तस कायम रखने में सफल साबित हुए हैं। इस बात का देर तक मलाल रहा कि मैंने अगले दिन की फ्लाइट क्यों नहीं बुक कराई?
-साथ में रजनीश त्रिपाठी, अरविंद मिश्र, अभिषेक
भारत को पसंद हैं युवा और जुझारू नेता
देश के लोगों को युवा और जुझारू नेता ज्यादा पसंद हैं। लोगों का तर्क है कि युवा नेताओं की वर्तमान पीढ़ी में देश के राजनीतिक परिदृश्य को उभारने की क्षमता है। यह दावा जुलाई 2021 में आईएएनएस सी-वोटर लाइव ट्रैकर द्वारा किए गए सर्वे में किया गया है। सर्वेक्षण में भाग लेने वाले 45.5 ने युवा राजनेताओं पर भरोसा जताया।
नौजवान और अनुभवी का तालमेल बेहतर
सर्वेक्षण में भाग लेने वाले 41.5 प्रतिशत ने कहा कि देश को बेहतर शासन के लिए युवा और अनुभवी नेताओं के संयोजन की आवश्यकता है। शेष उत्तरदाताओं को यकीन नहीं था कि क्या युवा राजनेता या सरकार में युवा और अनुभवी नेताओं का संयोजन देश को बेहतर भविष्य की ओर ले जा सकता है।
महिला और पुरुष समान रूप से अच्छे राजनेता बन सकते हैं
नवंबर 2019 से मार्च 2020 तक तीस हजार वयस्कों पर प्यू रिसर्च सेंटर के सर्वे में 55 फीसदी भारतीयों का कहना था कि महिला और पुरुष समान रूप से अच्छे राजनेता बन सकते हैं। वहीं 14 फीसदी का ही मानना था कि पुरुष के मुकाबले महिला अच्छी राजनेता बन सकती हैं।
इस पर भी रखी राय
सर्वे में दावा किया गया है कि अधिकांश भारतीयों का मानना है कि सेवानिवृत्त राजनेता अच्छे राज्यपाल नहीं बनते हैं और सरकार को इन संवैधानिक पदों पर विभिन्न राज्यों में युवा और गतिशील नेताओं की नियुक्ति करनी चाहिए।
स्रोत : (‘पब्लिक ऐप’ की ओर से 25 जनवरी 2022 को देशभर में चार लाख से अधिक लोगों पर सर्वे किया गया था। इनमें 60 फीसदी प्रतिभागियों की उम्र 30 साल से कम थी।)
मोदी और योगी को शत-प्रतिशत नंबर देता हूं:साजन मिश्र
● लोकतंत्र को लेकर आप आशावान हैं अथवा निराश?
लोकतंत्र पर तो आस्था रखनी होगी। यही हमारी नींव है। लोकतंत्र पर संकट न आए इसलिए इसे मजबूत बनाकर रखना होगा। यह जिम्मेदारी सबकी है। सभी राजनीतिक पार्टियों के स्वर अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन जहां तक लोकतांत्रिक मर्यादाओं और आदर्श का प्रश्न है तो इस मुद्दे पर सभी पार्टियों को एक होकर रहना होगा। हम सभी मानव के लिए ही लड़ रहे हैं। सबकी अलग-अलग परेशानी है। यह निरंतर चलती रहेगी, लेकिन हमारे लोकतंत्र और सांस्कृतिक विरासत को बचाकर रखना है। इसी से विश्व में हमारी अलग पहचान है।
● क्या इस चुनाव में नेता भाषायी मर्यादा नहीं लांघ रहे?
यह दुखद है कि भाषा के स्तर पर मर्यादा नहीं निभा पा रहे हैं। भारतीय संस्कृति में पहली बार देखने को मिल रहा है कि नेताओं की भाषा निम्न स्तर पर आ गई है। जीत हार का सिलसिला तो लगा रहेगा। उससे विचलित नहीं होना चाहिए। भाषा ऐसी होनी चाहिए कि हृदय में कोमल रूप में प्रवेश हो न कि कर्कशता के रूप में। भाषा पर हमेशा नियंत्रण होना चाहिए। इससे पहचान होती है कि आप को कैसे संस्कार मिले हैं। आवेश में कुछ कह देते हैं फिर माफी मांगते हैं। ऐसा आवेश किस काम का।
● मोदी-योगी को आप दस में से कितने अंक देंगे?
मैं कौन होता हूं अंक देने वाला, बनारस की जनता अंक दे सकती है। मैं तो अब मेहमान की तरह बनारस आता हूं। फिर भी जो कुछ देखता-सुनता हूं उसके आधार पर कह सकता हूं कि दोनों को ही पूरे अंक मिलने चाहिए। बतौर सांसद और प्रधानमंत्री मोदी ने बनारस के जितने दौरे किए, अपने हर दौरे में बनारस के विकास की नई इबारत लिखी। वहीं, योगी ने पीएम की हर परिकल्पना को पूर्ण करने में अपना शतप्रतिशत योगदान दिया है।
● क्या विश्वनाथ कॉरिडोर चुनाव पर असर डालेगा?
बिल्कुल डालेगा और दोनों ही दृष्टि से डालेगा। एक बड़ा वर्ग है जो मानता है कि विश्वनाथ कॉरिडोर के रूप में एक ऐतिहासिक काम हुआ है। वहीं, एक बड़ा वर्ग दबी जुबान से यह कहता है कि पौराणिकता के साथ छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए थी। ऐसे में इसका असर तो पड़ेगा। निजी तौर पर मेरा मानना है कि इससे पहले कि कोई मकान या मंदिर पूरी तरह जर्जर हो जाए, उससे पहले ही उसका नवीनीकरण हो जाना चाहिए। यह भी जरूरी है कि विरासत को उसके मूल रूप में संरक्षित किया जाए।
● बतौर कलाकार सरकार से क्या अपेक्षा रखते हैं?
कोरोना की विभीषिका से कलाकार वर्ग भी त्राहिमाम कर उठा। यह सही है कि उस विकट स्थिति में सभी को समय से चिकित्सा सुविधा मुहैया हो जाए, यह भी संभव नहीं था। वहीं, दूसरा पक्ष यह है कि मुझ जैसे कलाकार, जो स्थापित हो चुके हैं वे तो अपने बैंक बैलेंस से दो-चार साल काम चला सकते हैं, लेकिन जो स्थापित नहीं हैं उनके लिए तो एक महीना गुजारना भी पहाड़ हो गया था। मान लीजिए किसी कार्यक्रम में मुझे एक लाख रुपये मिलते हैं वहां मेरे साथ संगत करने वाले कलाकार को दस हजार ही मिलते हैं। मेरे परिवार की तुलना में उसका परिवार भी बड़ा है। उनका ध्यान रखा जाना चाहिए।
● क्या चुनावी मुद्दे यथार्थ से अलग होते हैं?
बहुत बड़ा देश है हमारा, खासतौर से जनसंख्या की दृष्टि से...। हम कुछ प्रतिशत में मुद्दों की बात करते हैं। इस चुनाव में मुद्दा तो यह भी होना चाहिए कि जिन तबकों पर कोविड की सबसे अधिक मार पड़ी है उसके लिए क्या किया जाएगा लेकिन इससे उलट चुनाव में ऐसे मुद्दों को जानबूझ कर उछाला जाता है जो लोगों के सेंटिमेंट से जुड़े होते हैं।