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आशाओं के कंधों पर है जिम्मेदारियों का बोझ पर सम्मानजनक मानदेय नहीं

Santkabir-nagar News - संतकबीरनगर, हिन्दुस्तान टीम। संतकबीरनगर जिले के स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत आशाएं अपने कंधों पर

Newswrap हिन्दुस्तान, संतकबीरनगरSat, 3 May 2025 10:45 AM
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आशाओं के कंधों पर है जिम्मेदारियों का बोझ पर सम्मानजनक मानदेय नहीं

संतकबीरनगर, हिन्दुस्तान टीम। संतकबीरनगर जिले के स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत आशाएं अपने कंधों पर स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारियों का बोझ ढो रही हैं। जिस तरह से उनसे काम लिया जा रहा है उसके अनुरूप सम्मानजनक मानदेय नहीं मिल रहा है। ये कर्मचारी शहर से गांव तक स्वास्थ्य कार्यक्रमों की जिम्मेदारी संभाल रहीं हैं। गर्भवती महिलाओं व बच्चों के स्वास्थ्य की देखभाल का जिम्मा इनके ऊपर है। स्वास्थ्य कार्यक्रमों के चलने वाले अभियान का हिस्सा बन घर-घर योजनाओं को पहुंचाती हैं। दो दशक से स्वास्थ्य सेवाओं के लिए काम कर रही आशाएं बहुत कम मानदेय पर काम कर रही हैं। बढ़ती महंगाई में घर का खर्च चलाने में खुद को असमर्थ पा रही हैं।

उनका मानना है कि जब सरकारी कर्मचारियों की तरह सरकार काम ले रही है तो उनके हक में एक तय मानदेय की घोषणा होनी चाहिए। उन्हें राज्य कर्मचारी का दर्जा दिया जाय। इसकी मांग कर रही हैं। लोगों की सेहत के प्रति फिक्रमंद रहने के बावजूद मरीजों व कर्मचारियों का असहयोग मिलता है। ‘हिन्दुस्तान ने उनकी समस्याओं को जानने की कोशिश की तो आशा कार्यकर्त्रियों ने अपनी समस्याएं सांझा कीं। केंद्र सरकार के राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में महिलाओं की भर्ती की जाती है। ये महिलाएं उस गांव या शहर की ही होती हैं जो वहां की स्थायी निवसी होती हैं। वर्तमान समय में जिले में 1957 आशाओं की तैनाती है। उनके कार्यों के पर्यवेक्षण के लिए 87 आशा संगिनी की तैनाती है। स्वास्थ्य योजनाओं को ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में घर-घर पहुंचाने, टीकाकारण से लेकर मातृ-शिशु मृत्यु दर में कमी लाने और सर्वे से लेकर स्क्रीनिंग तक की जिम्मेदारियां निभा रहीं आशाओं के सामने कई चुनौतियां हैं। व्यवस्था में सुधार की बात खुद अधिकारी से लेकर शासन-प्रशासन करता है। आशा अपनी काम की परिस्थितियों में सुधार के लिए 20 साल से संघर्ष कर रही हैं। उम्मीद भरी निगाहों से सरकार की ओर देख रही हैं। सभी दलों की सरकारों से मिला आश्वासन कभी पूरा नहीं हुआ। आशाओं के संघर्ष पर परिवारों की भी उम्मीदें जिंदा हैं। उनकी मांग है कि उन्हें एक सम्मानजनक मानदेय मिले तो उनके परिवार की जरूरतें पूरी होने लगेंगी। आशाओं पर अस्पतालों और स्वास्थ्य केन्द्रों की चिकित्सा सेवाओं को अधिकतम लोगों तक पहुंचाने के लिए जो जिम्मेदारियां थोपी गई हैं, यदि उसमें सुधार हो जाए तो परिणाम और बेहतर होंगे। इमरजेंसी में भी होती है महत्वपूर्ण भूमिका आशाएं सिर्फ गर्भवती महिलाओं को घर से अस्पताल और नवजात बच्चों को अस्पताल से घर नहीं लातीं। बल्कि इमरजेंसी में उनसे मदद मांगने पर काम आती हैं। अक्सर गांवों में आशा को सिर्फ डिलेवरी और प्रेग्नेंट महिलाओं को अस्पताल ले जाने तक की ही लोग भूमिका समझते हैं। लेकिन, उनके सिर पर स्वास्थ्य की कई योजनाएं हैं जिसमें अहम भूमिका निभा रहीं हैं। आशा की ड्यूटी किसी सरकारी, संविदा और आउटसोर्स से कम नहीं है, लेकिन अल्प मानदेय लेकर भी गांव और शहर के स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ साबित हो रहीं। गांव में किसी बीमारी के फैलने पर उनकी भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती आशा कर्मी के पास उसकी डायरी में गांव की की हिस्ट्री रहती है। स्वास्थ्य विभाग या अन्य विभाग वहां से सूचनाएं ले सकते हैं। इससे आशाओं के सामने हर वक्त चुनौती रहती है। हर अभियान का बनाया जाता है हिस्सा आशाओं ने अपनी समस्याएं साझा करते हुए बताया कि जिले में कोई भी अभियान चलता है तो उन्हें उस अभियान का हिस्सा बनाया जाता है। आशाओं ने कहा कि मातृ-शिशु दर कम करने, पोलियो अभियान, टीकाकरण में सहयोग, टीबी रोगी खोज, फाइलेरिया से लेकर मलेरिया रोधी दवा खिलाने, संस्थागत प्रसव के लिए जागरूक करने और स्वास्थ्य विभागों की योजनाओं का पात्रों को लाभ दिलाने में आशाओं क भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। प्रत्येक ग्राम पंचायत में दो से तीन आशाएं कार्यरत हैं। इंटरमीडिएट कर सेवा में आईं आशाएं अब अपनी आवाज उठा रही हैं। आर्थिक स्थिति बेहतर हो इसके लिए अनुभवों के आधार पर मानदेय मांग रही हैं। एक न्यूनतम वेतन यदि तय कर दिया जाए तो परिवार भरण-पोषण बेहतर ढंग से हो सकेगा। संस्थागत प्रसव के लिए आसान हो व्यवस्था जिला महिला अस्पताल में सर्वाधिक गर्भवती महिलाएं जांच कराने आती हैं। उनके साथ आशा बहू आती हैं, लेकिन यहां उन्हें गलत नजर से देखा जाता है। आशाओं ने अपना दर्द बयां करते हुए कहा कि व्यवस्था आसान हो तभी संस्थागत प्रसव बढ़ेगा। यहां जांच कराने और सहयोग के लिए आने पर अव्यवस्था झेलनी पड़ती है। वहीं निजी अस्पतालों के मकड़जाल के कारण अब संस्थागत प्रसव भी आसान नहीं रहा। मरीजों के लिए छीनाछपटी पर उतारू हो जाते हैं, विरोध करने पर कथित दलाल मारने-पीटने और धमकी पर आमादा हो जाते हैं। यह बंद हो और सुरक्षित माहौल मिले ताकि संस्थागत प्रसव बढ़ाया जा सके। 2005 में शुरू हुईं थीं नियुक्तियां आशा संघ की जिलाध्यक्ष सरोज यादव बताती हैं कि जिले में ‘आशा बहू की नियुक्तियां वर्ष 2005 में शुरू हुईं थी। उस वक्त प्रसूता और नवजात की मृत्यु दर चिंता का विषय थी। इस दृष्टिकोंण से आशाओं की नियुक्ति की गई। ये बहुएं सुदूर हो या फिर पास के इलाके, हर घर की महिलाओं के बीच एक विश्वास की भी कड़ी बनी हैं, लेकिन वर्तमान समय में सरकारी कर्मचारी की अपेक्षा उनके साथ हो रहे भेदभाव से उनके मन में निराशा पैदा कर रही है। वर्तमान में आशा के लिए सरकार प्रधानमंत्री जीवन ज्योति और सुरक्षा बीमा योजना संचालित कर रही है। संगिनी को एक बार मिली थी साइकिल आशाओं के कार्यों की निगरानी के लिए वर्ष 2016 में आशा संगिनी को एक-एक साइकिल प्रदान की गई थी। उसके बाद से साइकिल नहीं मिली। वहीं आशाओं को एक बार टार्च दिया गया था। एक बार छाता भी मिला जबकि फीडिंग के लिए एक-एक मोबाइल दिया गया, लेकिन उसमें वाट्सएप नहीं चलता, ऐसे में रिपोर्ट भेजने में परेशानी होती है। जिस काम के लिए नियुक्ति हुई वही कार्य लिया जाए बातचीत में उभर कर आया कि आशा के लिए जो कार्य सौंपा गया है वही कार्य लिया जाए। बेगारी की जो प्रथा शुरू की गई है वह बंद हो या फिर उस कार्य के बदले मानदेय दिया जाए। शोषण को लेकर मुखर आवाज उठाने पर भी निराकरण नहीं होता। सरकार को चाहिए कि अन्य संविदा कर्मियों की भांति आशा बहू का भी मानदेय फिक्स कराए। भुगतान प्रक्रिया में लेटलतीफी और धनउगाही पर रोक लगे। माह के तीन तारीख को भुगतान हर हाल में किया जाए। महिला अस्पताल में सुदूर क्षेत्र से आने वाली आशा को दलालों के कारण बेइज्जत कर दिया जा रहा है, इस पर रोक लगे। ग्रामीण क्षेत्रों में मिलता है सम्मान आशाओं ने बताया कि ग्रामीण स्तर पर तो घरों से सम्मान मिल जाता है, लेकिन शहर में वह सम्मान नहीं मिलता है। सेहत की रखवाली के लिए घरों पर जाना होता है, लेकिन जागरूक लोग भी उनका सम्मान नहीं करते और ऐसे पेश आते हैं जैसे लगता है कि कोई अंजान हो, जबकि उनके गले में आशा बहू का टैग लटकता है, फिर भी उचित सम्मान न मिलने से मन को ठेस पहुंचती है। आशा संघ जिलाध्यक्ष सरोज यादव ने कहा कि आशाओं के हित के लिए हरसंभव संघर्ष किया जा रहा है। जिला स्तर से लेकर प्रदेश स्तर तक प्रयास किया जा रहा है। सरकार को चाहिए कि आशाओं को सरकारी कर्मचारी घोषित करे। उसके समान वेतन दे। किसी के साथ भेदभाव होगा या उत्पीड़न किया जाएगा तो संगठन उसके मदद में साथ रहेगा। विधायक खलीलाबाद अंकुर राज तिवारी ने कहा कि आशा कार्यकर्ता जिले के स्वास्थ्य विभाग की रीढ़ हैं। हर कार्यक्रम के संचालन में इनकी अहम भूमिका रहती है। इनकी उपेक्षा को दूर करने के लिए शासन में बात करेंगे। समस्याओं को दूर करने का पूरा प्रयास होगा।

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