रंगभूमि-कर्बला का संदेश, सबकुछ नहीं खरीद सकते
प्रयागराज में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा कर्बला और रंगभूमि के सौ वर्ष पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन हुआ। वरिष्ठ आलोचक प्रो. शम्भुनाथ ने कहा कि इन कृतियों पर चर्चा...
प्रयागराज, मुख्य संवाददाता। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की ओर से कर्बला और रंगभूमि के सौ साल विषयक दो दिनी राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन बुधवार को हुआ। उद्घाटन सत्र में हिंदी के वरिष्ठ आलोचक और वागर्थ के सम्पादक प्रो. शम्भुनाथ ने कहा कि स्मृतियों के बहिष्कार के दौर में रंगभूमि और कर्बला पर आज सौ साल बाद चर्चा करना बहुत प्रासंगिक है।
'रंगभूमि' के सूरदास का यह संदेश है कि सबकुछ बिकाऊ नहीं है। पूंजी आधारित विकास ने हमारी संवेदना, कल्पनाशीलता और विवेकशीलता को साथ ही हमारे अंतःकरण को नष्ट कर दिया है। ऐसे में रंगभूमि के नायक सूरदास का नैतिक साहस हमें इसके प्रतिरोध की शक्ति देता है। कर्बला और रंगभूमि के बीच आवाजाही दिखती है। दोनों कृतियों में जो बात उभयनिष्ठ है कि सबकुछ रुपये से नहीं खरीदा जा सकता।
मुख्य अतिथि डीन कला एवं विज्ञान संकाय प्रो. बेचन शर्मा ने प्रेमचंद और उनकी कृतियों के पुनर्पाठ को अत्यन्त प्रासंगिक बताया। उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए हिंदी विभाग की अध्यक्ष प्रो. लालसा यादव ने विभाग के शताब्दी वर्ष में प्रेमचंद की इन दोनों कृतियों के सौ वर्ष पूरा होने पर गोष्ठी के महत्व को रेखांकित किया। आरम्भ में संयोजक प्रो. आशुतोष पार्थेश्वर ने गोष्ठी की संकल्पना, रूपरेखा एवं प्रमुख मुद्दों की ओर ध्यान आकर्षित किया।
इस सत्र में सत्राची पत्रिका के 'भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन, जनचेतना की निर्मिति और हिन्दी पत्रिकाएं (विशेष सन्दर्भ : 'माधुरी' और 'चांद' के प्रकाशनारम्भ की शताब्दी स्मृति' विषयक विशेषांक का लोकार्पण किया गया। संचालन प्रो. कुमार वीरेन्द्र ने किया।
कर्बला की खूबियों एवं खामियों पर भी चर्चा
प्रथम सत्र में प्रेमचंद के नाटक कर्बला पर गम्भीर विचार विमर्श हुआ। जिसमें नाट्य निर्देशक प्रवीण शेखर ने नाटक के व्याकरण के अनुसार कर्बला की कुछ कमियों को उजागर किया। प्रो. रहमान मुसव्विर ने कर्बला, इतिहास और गल्प पर अपनी बात रखते हुए ऐतिहासिक नाटक के रूप में कर्बला की खूबियों एवं खामियों पर विचार किया। प्रो. विवेक निराला ने यह स्थापित किया कि कर्बला नाटक की कामना हिन्दू मुस्लिम एकता और उसके लिए त्याग और बलिदान के लिए है। अध्यक्षता प्रो. मुश्ताक अली ने की।
साहित्य में भीतर से आनी चाहिए सामाजिक बहस
द्वितीय सत्र में डॉ. अमीश वर्मा ने प्रेमचन्द की चार कहानियों के माध्यम से प्रेमचंद के साहित्य में किसान और जाति प्रश्न पर व्याख्यान केंद्रित किया। डॉ. सुजीत कुमार सिंह ने प्रेमचंद की कहानी सवा सेर गेहूं पर समाजशास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत किया। अध्यक्षता करते हुए कथाकार महेश कटारे ने कहा कि सामाजिक बहस साहित्य में भीतर से आनी चाहिए बाहर से नहीं। तृतीय सत्र में डॉ. मोतीलाल व डॉ. महेंद्र कुशवाहा ने अपनी बात रखी। अध्यक्षता प्रो. भूरेलाल ने की। विभिन्न सत्रों में डॉ. जावेद आलम, डॉ. अमृता, डॉ. रामानुज यादव और डॉ. अजय कुमार ने शोध पत्र पढ़े। संचालन डॉ. दीनानाथ मौर्य, डॉ. शशि कुमारी एवं डॉ. वीरेन्द्र कुमार मीणा ने किया।
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