बीटेक से कम कठिन नहीं है जूना अखाड़े में नागा संन्यासी की दीक्षा
Prayagraj News - महाकुम्भ में नागा संन्यासी बनने की प्रक्रिया बहुत कठिन है। गृहस्थ आश्रम छोड़कर जूना अखाड़े में शामिल होने के लिए कई सालों की कठिन तपस्या की आवश्यकता होती है। इस प्रक्रिया में कई संस्कार और शिक्षा...
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महाकुम्भ नगर अभिषेक मिश्र गृहस्थ आश्रम छोड़कर जूना अखाड़े में नागा संन्यासी बनना बीटेक की डिग्री पाने से भी ज्यादा कठिन है। इसके लिए कई सालों का वक्त लगता है। घोर तप के बाद ही महाकुम्भ के दौरान एक सामान्य संन्यासी नागा बनता है और जब नागा बनता है तो शस्त्र व शास्त्र दोनों की शिक्षा में पारंगत होता है।
ऐसे गृहस्थ बनते हैं सदस्य
जूना अखाड़े में नागा संत बनने के लिए सबसे पहले महापुरुष (अवधूत)या महिला संत (अवधूतानी) होती है। यानी गृहस्थ आश्रम से आए पुरुष को महापुरुष और महिला को प्रारम्भिक साधारण दीक्षा देकर अवधूतानी बनाया जाता है। इसका अर्थ है कि इन्हें जूना अखाड़े का सदस्य तो माना गया, लेकिन ये 52 महासभा के सदस्य नहीं होंगे। इस पूरी प्रक्रिया में दो साल लगते हैं।
मध्य रात्रि में लगाते हैं 108 डुबकी
अवधूत या अवधूतानी बनने के बाद संन्यास दीक्षा होती है। अवधूत या अवधूतानी का कुम्भ मेले के दौरान बीर्जाहवन संस्कार होता है। यह संस्कार के केवल कुम्भ के अवसर पर होता है। अवधूत या अवधूतानी के नाम की पर्ची उनके गुरु के माध्यम से जारी होती है, इसके बाद यह अखाड़े के रमता पंच के पास जाती है। रमता पंच चरित्र के आधार पर मुहर लगाता है, इसके बाद आचार्य महामंडलेश्वर के सामने आधा मुंडन होता है और आधी रात को गंगा में 108 डुबकी लगाकर आते हैं। इसके बाद हवन होता है।
हिमालय जाते हैं तप के लिए
सुबह सभी को दंड देकर उनको हिमायल में तप करने के लिए भेजा जाता है। यह ठीक वैसे ही है जैसे यज्ञोपवीत संस्कार में काशी पढ़ने के लिए जाते हैं। फिर गुरु मनाते हैं और इसके बाद भोर में चार बजे गंगा स्नान के बाद गुरु संन्यासी की चोटी काटते हैं, जिसके बाद संन्यास दिया जाता है।
फिर बनते हैं नागा और पाते हैं प्रमाणपत्र
इस दीक्षा के बाद देखा जाता है कि संन्यासी संत जीवन बिता सकेगा कि नहीं। इस दौरान संन्यासी की हर गतिविधि पर नजर रखी जाती है। इस प्रक्रिया में लंबा समय लगता है, कभी दो तो कभी छह साल तक लग जाता है। जिसके बाद किसी कुम्भ मेले में दिगंबर संन्यासी बनाया जाता है, जिससे ये नागा बन जाते हैं। नागा संत को अखाड़े के प्रमुख सदस्य होने का प्रमाणपत्र मिलता है।
शस्त्र और शास्त्र देनों की दीक्षा
नागा संन्यासी को धर्म और शस्त्र चलाने की पूरी दीक्षा दी जाती है। समय के साथ तलवार और भाले चलाने का प्रशिक्षण तो बंद हो गया, लेकिन आज भी आत्मरक्षा का प्रशिक्षण दिया जाता है। यहीं कारण है कि मुगल सेना से लोहा लिया, इन्हीं नागा संन्यासियों ने नागौरी में शासक को मार कर धर्म की स्थापना कराई और इन्हीं नागा संन्यासियों ने राम जन्म भूमि आंदोलन में अपना सहयोग दिया। मुगलकाल में जूना अखाड़े के 10 हजार से अधिक नागा संत इस आंदोलन में शामिल हुए, जिसमें 400 से अधिक ने अपने प्राणों की आहुति दी। जिन्हें अभी संतों ने श्रद्धांजलि भी दी।
सदस्यता पाने के बाद रक्षा का होता है दायित्व
महाकुम्भ नगर। सदस्यता पाने की प्रक्रिया जटिल है, लेकिन इसके बाद सदस्य की रक्षा का दायित्व अखाड़े का होता है। 1860 में अंग्रेजों के समय में बनाए गए कानून में स्पष्ट है कि जूना अखाड़े का संत विदेश में चाहे किसी भी नाम से जाना जाए, उसकी सुरक्षा का दायित्व अखाड़े का ही होगा। उसकी संपत्ति पर अधिकार भी अखाड़े का ही होगा।
इन स्थिति में जाती है सदस्यता
पागल होने, मृत्यु होने या फिर चारित्रिक दोष सिद्ध होने पर जूना अखाड़े के संतों की सदस्यता खत्म होती है।
जूना अखाड़े के बारे में
11वीं शाताब्दी में अखाड़े का गठन माना जाता है।
शुरुआत में भारत, श्रीलंका, नेपाल में प्रचार।
आज विश्व के कई देशों में फैले हैं नागा साधु।
सनातन धर्म का प्रचार करना और रक्षा करना मुख्य उद्देश्य।
महाकुम्भ में हर बार होती है अखाड़े की विशेष बैठक।
वर्जन
जूना अखाड़े के संतों का अपना एक गौरव रहा है। यहां नागा संन्यासी बनना आसान नहीं है। इसकी एक प्रक्रिया है। इसे पूरा करना होता है, एक बार अखाड़े में प्रवेश के बाद संत हमारा होता है।
श्रीमहंत नारायण गिरि, अंतर्राष्ट्रीय प्रवक्त जूना अखाड़ा
अखाड़े के नागा संन्यासियों का अपना इतिहास रहा है। मुगल शासकों से युद्ध हो या फिर रामजन्म भूमि आंदोलन, नागा संन्यासियों ने धर्म की रक्षा के लिए हमेशा अगुवाई की है।
श्रीमहंत हरि गिरि, संरक्षक, जूना अखाड़ा
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