खड़ी बोली को दी पहचान...याद हैं गंगादास, घीसाराम
- चौधरी चरण सिंह विवि में पढ़ाया जा रहा है खड़ी बोली का इतिहास -
मेरठ। खड़ी बोली क्षेत्र से निकले साहित्यकार, कवि और अनेक रचनाकारों ने हिन्दी को नई पहचान दी है। गंगादास हों या घीसाराम, खड़ी बोली में इनके द्वारा लिखी रचनाएं आज पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं। चौ. चरण सिंह विवि ने बाकायदा कौरवी साहित्य पर यूजीसी की दो वर्षीय शोध परियोजना पूरी करते हुए खड़ी बोली क्षेत्र के साहित्यकारों के योगदान को संकलित कर प्रकाशित किया है। रागिनी के लिए चर्चित खड़ी बोली के रचनाकार घीसाराम की पांडुलिपियां हाल के वर्षों तक मिली हैं, जो सीसीएसयू के हिन्दी विभाग में भी रखी गई हैं। यह है खड़ी बोली
खड़ी का अर्थ माना जाता है ‘खरी। जिसका मतलब है शुद्ध यानी ठेठ हिन्दी बोली। 18वीं शताब्दी की शुरुआत में कुछ हिन्दी गद्यकारों ने ठेठ हिन्दी बोली में लिखना शुरू किया। इस ठेठ हिन्दी को 'खरी हिन्दी' या 'खड़ी हिन्दी' बोला गया। शुद्ध या ठेठ हिन्दी बोली या भाषा को उस समय साहित्यकारों द्वारा खरी या खड़ी बोली नाम दिया गया। खड़ी बोली वह बोली है जिसपर ब्रजभाषा या अवधी आदि की छाप न हो।
यहां बोली जाती है खड़ी बोली
खड़ी बोली का क्षेत्र है मेरठ, गाजियाबाद, बुलंदशहर, हापुड़, बागपत, बिजनौर, मुरादाबाद, संभल, अमरोहा, शामली, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, देहरादून एवं नैनीताल के मैदानी भाग, हरिद्वार, उधम सिंह नगर, अम्बाला, कलसिया और पटियाला के पूर्वी भाग। मेरठ की खड़ी बोली आदर्श खड़ी बोली मानी जाती है, जिससे आधुनिक हिन्दी भाषा का जन्म हुआ।
अनेक साहित्यकारों ने किया है काम
भटीपुरा के घीसाराम ने खड़ी बोली में रागनियां लिखी। उन्होंने लावणी छन्द में इन्हें लिखा। गंगादास ने भी खड़ी बोली का साहित्य सृजन किया। कल्लू अलहेत खड़ी बोली में आल्हा लिखते थे। मवाना के साहित्यकार थे बसंत सिंह भ्रंग। इन्होंने खड़ी बोली में उपन्यास लिखे। चर्चित उपन्यासकार वेदप्रकाश शर्मा कुछ दशक पहले जिन उपन्यासों से देश-दुनिया में छाए उनकी भाषा खड़ी बोली थी। भारत भूषण ने खड़ी बोली में काव्य रचनाएं की और साहित्य जगत में छा गए। मेरठ से वेद प्रकाश बटुक, डॉ. हरिओम पंवार और गाजियाबाद से देवेद्र शर्मा इंद्र ऐसे नाम हैं, जो खड़ी बोली में साहित्य सृजन करते हुए देश-दुनिया में अपना दबदबा कायम किए हुए हैं।
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