पितरों को तृप्त करने के लिए किया पिंडदान
पितरों को तृप्त करने के लिए किया पिंडदान
अपने-अपने पितरों को प्रसन्न करने के लिए लोग पितृविसर्जन के लिए गंगा घाटों पर पहुंच रहे हैं। यह क्रम प्रात:काल से लेकर शाम तक चल रहा है। तिथि के अनुसार लोग अपने पितरों को तर्पण के लिए पिंडदान कर रहे हैं। इस बार पितृ पक्ष एक सितंबर से प्रारंभ है, जो 16 सितंबर तक चलेगा और 17 सितंबर को आमावस्या को यह खत्म हो जायेगा। जो लोग पितृविसर्जन करते हैं, उनके यहां इन दिनों कोई शुभ कार्य नहीं किये जाते हैं, क्योंकि पितृपक्ष में पितरों का तर्पण करना बहुत ही जरूरी होता है। उन्हें याद करने व स्मरण करने का यही शुभ समय होता है। इस तर्पण को कर लोग अपने पितरों के प्रति आभार जताते हैं और सुख-समृद्धि व आशीर्वाद बनाये रखने की कामना करते हैं। पितृविसर्जन को लेकर नगर के अधिकांश गंगा घाटों पर लोग पहुंच रहे हैं। वहीं बुधवार को भी नगर के ददरीघाट पर प्रात:काल से लोगों के आने का क्रम बना रहा। दोपहर में कुछ भीड़ कम रही, जो अलग-अलग छांव वाले स्थानों पर बैठकर पिंडदान करते देखे गये। इसके बाद शाम को भी कुछ लोग पिंडदान के लिए पहुंचे। पिंडदान करा रहे ब्राह्मणों ने बताया कि करीब सौ से अधिक लोगों ने बुधवार को पिंडदान करने के लिए पहुंचे थे।
आत्मा अमर है जिसका नाश नहीं होता : पं. अजीत शास्त्री
ददरीघाट पर पिंडदान करा रहे पं. अजीत शास्त्री चौबे ने बताया कि आत्मा अमर है, जिसका नाश नहीं होता है। श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओं, पितरों और वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है। मान्यता है कि जो लोग अपना शरीर छोड़ जाते हैं, वह किसी भी लोक में या किसी भी रूप में हों, श्राद्ध पखवाड़े में पृथ्वी पर आते हैं और श्राद्ध व तर्पण से तृप्त होते हैं। बताया कि हिन्दू धर्म में इसकी खास महत्ता है। पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सरल मार्ग है। वैसे तो गया में पिंडदान का काफी महत्व है, क्योंकि भगवान राम और माता सीता ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था।
पिंडदान में इन सामग्री का होता है इस्तेमाल
पिंड दान करने के लिए जौ या चावल के आंटे को गूंथकर पिंडा बनाया जाता है। इसके बाद दक्षिणाभिमुख होकर, आचमन करते हैं। फिर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करते हैं। यही पिंडदान कहलाता है। जल में काले तिल, जौ, कुशा व सफेद फूल मिलकार उस जल से विधिपूर्वक तर्पण करते हैं। मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं। इसके बाद श्राद्ध के बाद पिंडदान कराने वाले ब्राह्मण को दान-दक्षिण दिया जाता है, अगर भोजन कराया दिया जाय तो और भी उत्तम होता है। पं. अजीत शास्त्री चौबे ने बताया कि पितरों का स्थान बहुत ऊंचा माना गया है। पितरों की श्रेणी में मृत माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल रहते हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों की श्रेणी में आते हैं, जिनका पिंडदान कर मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। पं. अजीत चौबे ने बतासा कि जिस तिथि को जिनके पूर्वज की मृत्यु हुई होती है, उसकी तिथि को उनका पिंडदान एवं श्राद्ध करना अति फलदायी होता है। जिन लोगों को अपने पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं होती है, वह लोग उनके लिए अमावस्या तिथि को श्राद्ध करते हैं, यह भी विधान है। आश्विन मास के कृष्णपक्ष में पितृलोक पृथ्वी के सबसे ज्यादा समीप होता है। इस पक्ष को पितृपक्ष माना गया है।
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