हर गिरफ्तारी और हिरासत यातना नहीं, महाराजगंज मामले पर हाई कोर्ट की टिप्पणी
- इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक आदेश में कहा है कि हर गिरफ्तारी और हिरासत को अभिरक्षा में यातना नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने कहा कि जब हिरासत में यातना के आरोपों के समर्थन में कोई मेडिकल रिपोर्ट या अन्य साक्ष्य न हों, तो न्यायालय को इस तरह की कार्यवाही पर विचार नहीं करना चाहिए।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक आदेश में कहा है कि हर गिरफ्तारी और हिरासत को अभिरक्षा में यातना नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने कहा कि जब हिरासत में यातना के आरोपों के समर्थन में कोई मेडिकल रिपोर्ट या अन्य साक्ष्य न हों, तो न्यायालय को इस तरह की कार्यवाही पर विचार नहीं करना चाहिए। यह टिप्पणी न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी एवं न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार की खंडपीठ ने महाराजगंज जिले के श्याम देवोरवा थानाक्षेत्र में तरकुलवा भटगांव निवासी शाह फैजल याचिका को खारिज करते हुए की।
कोर्ट ने कहा कि हिरासत में किसी भी तरह की यातना झेलने वालों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करते हुए न्याय को समाज के हित में सभी झूठे, प्रेरित और तुच्छ दावों के खिलाफ भी चौकन्ना रहना चाहिए और पुलिस को निडरता व प्रभावी ढंग से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में सक्षम बनाना चाहिए। याचिका में याची ने बिना किसी कारण पुलिस हिरासत में उसे बंद करके यातना देने के लिए दो पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई और मुआवजे की मांग की थी।
याची का कहना था कि उसे 14 फरवरी 2021 को परतावल चौकी से पुलिस कांस्टेबलों ने झूठे बहाने से हिरासत में लिया था। सब इंस्पेक्टर व पुलिस कांस्टेबल ने उसे धमकाया और उसके पिता से 50 हजार रुपये की मांग की। याची ने यह भी आरोप लगाया कि रिश्वत देने से इनकार करने पर पुलिस हिरासत में उसकी पिटाई की गई और जब उसने पुलिस अधिकारियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराने की मांग की तो स्थानीय पुलिस ने उसकी शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया। यह भी कहा गया कि याची ने बाद में आईजीआरएस पोर्टल और 19 फरवरी को पुलिस अधीक्षक के माध्यम से शिकायत दर्ज कराई।
फिर भी संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। राज्य सरकार की ओर से याची के आरोप को गलत बताते हुए याचिका का विरोध किया गया। कोर्ट ने कहा कि मुआवजा देने के लिए नियमित रूप से आपराधिक रिकॉर्ड रखने वाले व्यक्तियों के मानवाधिकार उल्लंघन के दावों को स्वीकार करना विवेकपूर्ण नहीं होगा। कोर्ट ने कहा कि इसकी अनुमति दी जाती है तो यह एक गलत प्रवृत्ति को जन्म देगा और गिरफ्तार या पूछताछ किए जाने वाला हर अपराधी पुलिस अधिकारियों की कार्रवाई के खिलाफ भारी मुआवजे की मांग करते हुए याचिका करेगा। इसके अलावा इस तरह की कार्यवाही को बढ़ावा दिया जाता है तो यह झूठे दावों के लिए द्वार खोल देगा, या तो राज्य से पैसे ऐंठने के लिए या आगे की जांच को रोकने या विफल करने के लिए।
याचिका खारिज करते हुए कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि मुआवजे के लिए इस तरह की याचिकाओं पर विचार करने और न्यायिक यातना के लिए पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई करने से पहले न्यायालय को स्वयं से यह पूछना होगा कि क्या किसी मानवाधिकार का उल्लंघन हुआ है या अनुच्छेद 21 का उल्लंघन हुआ है, जो स्पष्ट और निर्विवाद है। साथ ही क्या ऐसा उल्लंघन गंभीर है और इतना बड़ा है कि न्यायालय की अंतरात्मा को झकझोर दे और क्या यह साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य हैं कि हिरासत में यातना दी गई थी।
कोर्ट ने आगे कहा कि यह सुनिश्चित करना न्यायालय की सर्वोच्च जिम्मेदारी है कि यदि किसी व्यक्ति को हिरासत में यातना दिए जाने का उसके स्वयं के बयान के अलावा कोई सबूत नहीं है और जहां ऐसे आरोप किसी मेडिकल रिपोर्ट या अन्य पुष्टिकारी साक्ष्य द्वारा समर्थित नहीं हैं, या जहां स्पष्ट संकेत हैं कि आरोप पूरी तरह या आंशिक रूप से झूठे या बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए हैं। तो ऐसे में न्यायालय अनुच्छेद 226 के तहत मुआवजा नहीं दे सकता है और ऐसी स्थिति में उपयुक्त उपाय यह है कि पीड़ित पक्ष को उचित सिविल/आपराधिक कार्रवाई के माध्यम से पारंपरिक उपचारों का सहारा दिया जाए।
कोर्ट ने कहा कि यह नहीं माना जा सकता कि याची निर्दोष है क्योंकि उसके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी, जिसमें उस पर ऋषिकेश भारती की रॉड से पिटाई करने का आरोप लगाया गया था। हिरासत में यातना के लिए याची ने आईजीआरएस पोर्टल पर शिकायत की थी और एसएसपी ने जांच शुरू की थी और जांच के बाद पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कुछ भी नहीं मिला। तदनुसार उन्हें आरोपमुक्त कर दिया गया।