Hindi Newsउत्तर प्रदेश न्यूज़Bole Lucknow : When the stages were closed, the base of Lucknowi theatre started weakening

बोले लखनऊ: मंच बंद हो गए तो कमजोर पड़ने लगा लखनवी रंगमंच का आधार

  • कभी लोग गर्व से कहते थे कि राय उमानाथ बली के मंच पर खूब नाटक खेले हैं। आज राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह लगभग पांच वर्ष से बंद है

Gyan Prakash हिन्दुस्तानFri, 14 Feb 2025 05:03 PM
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बोले लखनऊ: मंच बंद हो गए तो कमजोर पड़ने लगा लखनवी रंगमंच का आधार

रंगमंच की दुनिया में लखनऊ का समृद्धशाली इतिहास रहा है। डा. अनिल रस्तोगी, गोपाल सिन्हा, सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, संगम बहुगुणा, मृदुला भारद्वाज, मुकेश वर्मा, अमरीश बॉबी, संदीप यादव जैसे बड़े कलाकारों को लखनऊ ने ही दिया है। इन कलाकारों ने देश के रंगमंच, टीवी और रुपहले पर्दे पर बड़ा नाम कमाया। कभी लोग गर्व से कहते थे कि राय उमानाथ बली के मंच पर खूब नाटक खेले हैं। आज राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह लगभग पांच वर्ष से बंद है। भारतेंदु नाट्य अकादमी का थ्रस्ट सभागार और बीएम शाह सभागार भी सात महीने से बंद है। इस बंदी ने रंगमंच कलाकारों को मुश्किल में डाल रखा है। इन्हीं दिक्कतों से महेश चंद्र देवा, जैसे कलाकारों को चबूतरा थियेटर और मुकेश वर्मा जैसे कलाकारों को मंदिर प्रांगण में रंगमंच की शुरुआत करनी पड़ी। आज इस स्थानों से नवोदित कलाकार फिल्मी दुनिया के सपने देख रहे हैं। हिन्दुस्तान टीम ने रंगकर्मियों के साथ संवाद स्थापित किया तो संसाधनों के संकट से सभी आहत दिखे। कलाकरों का कहना था कि हमें मंच के सिवा और क्या चाहिए। यही तो रंगमंच का आधार है।

संसाधनों की कमी से निराश हैं रंगकर्मी

ऐतिहासिक नाटकों की लम्बी श्रंखला ने शहर के रंगमंच को स्थापित किया और सब कुछ छोड़ सिर्फ रंगमंच में रमने वाले कलाकारों ने लखनऊ के रंगमंच का स्थापित किया। रंगमंच की भूमिका आज भी महत्वपूर्ण है लेकिन अब रंगकर्मी संसाधनो, सुविधाओं से निराश हो रहे हैं। इस निराशा का असर रंगमंच पर भी पड़ रहा है। वर्तमान समय में लखनऊ में रंगमंच के लिए प्रेक्षागृहों की उपलब्धता नही है। सिर्फ संगीत नाटक अकादमी के दो प्रेक्षागृहों की बदौलत रंगमंच की लौ रोशन रखने की भरसक कोशिश की जा रही है क्योंकि लखनऊ रंगमंच का मक्का कहे जाने वाले राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह पिछले पांच वर्षों से बंद पड़ा हुआ है। जीर्णोद्धार के नाम पर एक मार्च 2020 को बंद हुए राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह को खुलवाने के लिए रंगकर्मियों ने जी तोड़ कोशिश की लेकिन नाकामी ही हाथ लगी। संस्कृति विभाग के अधिकारी से लेकिर प्रमुख सचिव और संस्कृति मंत्री तक आवाज दी गई लेकिन रंगकर्मियों की आवाज को अनसुना कर कर दिया गया। जिसका असर ये है कि कैसरबाग में स्थित जिस राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह में महीनों के तीसों दिन रंगकर्मियों की चहल पहल होती थी, निरंतर नाट्य संस्थाओं के नाटकों का मंचन होता था, एक तरफ मंचन और दूसरी तरफ दूसरे नाटक का अभ्यास होता था वो माहौल खत्म हो गया। माहौल खत्म हुआ रंगमंच का केन्द्र रहा राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह वीरान हो गया।

राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह वह स्थल था जहां रंगमंच के प्रदर्शन, संगीत, नृत्य, नाटक, और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता था। यह एक ऐसा स्थान था जो न केवल कलाकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत था, बल्कि दर्शकों के लिए भी एक संस्कृति से भरपूर अनुभव था। लेकिन पिछले पांच वर्षों से, विशेष रूप से कोविड-19 महामारी के बाद से, इस प्रेक्षागृह की स्थिति में भारी गिरावट आई है। दर्शकों की तालियों की गूंज और कलाकारों की उपस्थिति अब यहां नदारद है। यह प्रतिष्ठित प्रेक्षागृह पिछले कुछ वर्षों से बंद पड़ा है, और उसकी मरम्मत की प्रक्रिया अभी भी चल रही है, जिससे छोटे कलाकारों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजकों को गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। एक तरफ राय उमानाथ बली वर्षों से बंद पड़ा है तो वहीं भारतेन्द् नाट्य अकादमी का थ्रस्ट सभागार और बीएम शाम सभागार पिछले सात महीनों जीर्णोद्धार के लिए बंद है। इस कारण शहर में नाट्य मंचन के लिए प्रेक्षागृहों की उपलब्धता बहुत हो गई है।

राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह: अतीत की गूंज और वर्तमान का सन्नाटा

वरिष्ठ रंगकर्मी डा. अनिल रस्तोगी ने कहा कि राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह का नाम लखनऊ में सांस्कृतिक आयोजनों के लिए बेहद प्रतिष्ठित रहा है। कई सालों तक यह प्रेक्षागृह रंगमंच के कार्यक्रमों, नुक्कड़ नाटकों, संगीत, नृत्य, और अन्य सांस्कृतिक प्रस्तुतियों का प्रमुख स्थल रहा। यहां विभिन्न रंगमंच कार्यकमों के साथ ही नये कलाकारों को अपनी कला का प्रदर्शन करने का एक महत्वपूर्ण मंच मिला था। लखनऊ के सांस्कृतिक आयोजनों में इस प्रेक्षागृह की उपस्थिति इतनी महत्वपूर्ण थी कि इसे लखनऊ का सांस्कृतिक दिल कहा जाता था। इस प्रेक्षागृह में होने वाले नुक्कड़ नाटक और अन्य स्थानीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों ने लखनऊ के संस्कृति प्रेमियों और कलाकारों के दिलों में विशेष जगह बना ली थी। यह प्रेक्षागृह कलाकारों के लिए एक ऐसा मंच था जहां वे अपनी कला को व्यक्त कर सकते थे, और यह दर्शकों के लिए एक स्थान था जहां वे भारतीय कला और संस्कृति का आनंद ले सकते थे। डा. रस्तोगी ने कहा कि राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह रंगमंच के मक्का के समान है।

कोविड-19 और प्रेक्षागृह की बंदी

कोविड-19 महामारी ने दुनिया भर के सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया, और भारतीय कला और संस्कृति भी इससे अछूता नहीं रहा। महामारी के कारण बंदी और सामाजिक दूरी के उपायों के चलते कई सांस्कृतिक स्थल और प्रेक्षागृह बंद हो गए। इनमें से एक था राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह। महामारी के शुरुआती दिनों में जब यह प्रेक्षागृह बंद हुआ, तो कलाकारों और सांस्कृतिक आयोजकों को लगा कि यह अस्थायी समस्या है और जल्द ही समाधान मिल जाएगा। लेकिन, स्थिति और जटिल हो गई जब यह प्रेक्षागृह मरम्मत के नाम पर पूरी तरह से बंद कर दिया गया। सांस्कृतिक आयोजनों को लेकर कलाकारों और आयोजकों ने लंबे समय से प्रेक्षागृह की मरम्मत की मांग की थी। प्रेक्षागृह के पुराने भवन में कई संरचनात्मक कमजोरियां थीं, जो कलाकारों और दर्शकों के लिए समस्याएँ पैदा कर रही थीं। हालांकि, मरम्मत के लिए 2020 में यूपी सरकार ने चार करोड़ रुपये से अधिक का बजट जारी किया था, लेकिन इस बजट का उपयोग या तो बहुत धीमी गति से हो रहा था, या फिर पूरी प्रक्रिया में अनियमितता के कारण काम पूरा नहीं हो पाया। परिणामस्वरूप, यह सांस्कृतिक स्थल बंद पड़ा रहा और कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम बंद हो गए।

सांस्कृतिक क्षेत्र पर प्रभाव

राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह के बंद होने का असर केवल कलाकारों और सांस्कृतिक आयोजकों पर ही नहीं, बल्कि पूरे सांस्कृतिक क्षेत्र पर पड़ा है। पहले यहां रंगमंच, संगीत, नृत्य, नुक्कड़ नाटक और कई अन्य सांस्कृतिक गतिविधियां होती थीं, जो लखनऊ की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा थीं। यहां पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में लखनऊ के ही नहीं, बल्कि अन्य शहरों और राज्यों के कलाकार भी अपनी प्रस्तुतियाँ देते थे।

प्रेक्षागृह के बंद होने से अब छोटे कलाकारों के लिए मंच उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। जहां पहले वे अपनी कला का प्रदर्शन आसानी से कर सकते थे, वहीं अब उन्हें रिहर्सल के लिए भी उपयुक्त स्थान नहीं मिल रहा है। कई छोटे कलाकार जो इस स्थल पर नाटक और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम करते थे, वे अब छोटे और कम सुविधाओं वाले स्थानों पर अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। इसके अलावा, सांस्कृतिक आयोजकों के लिए भी यह प्रेक्षागृह एक महत्त्वपूर्ण स्थल था, लेकिन अब उन्हें भी आयोजन स्थल की कमी का सामना करना पड़ रहा है।

100 रुपए से अधिक टिकट पर किराया दोगुना रंगकर्मियों के लिए आघात

रंगमंच एक ऐसा क्षेत्र में जिसमें 99 फीसदी संस्थाएं या रंगकर्मी अपने स्तर और संसाधनों से नाट्य मंचन करते हैं। एक नाटक की रिहर्सल के लिए 20 दिन, 25 दिन महीना भर रिहर्सल सिर्फ चाय और बिस्किट के साथ कर जाते हैं। ऐसे में रंगमंच की संस्थाओं के साथ प्रेक्षागृह प्रबंधन का सौतेला व्यवहार आघात देने वाला है। दरअसल प्रेक्षागृहों का एक नियम रंगकर्मियों के लिए जहर जैसा है। ये नियम है कि यदि आप किसी नाटक का मंचन करते हैं और उसका टिकट 100 रुपए से अधिक से लगाने पर हाल का किराया दो गुना कर दिया जाता है। वहीं रविवार या किसी सार्वजनिक अवकाश के दिन मंचन किया जाता है तो भी प्रेक्षागृह का किराया दोगुना कर दिया जाता है। प्रेक्षागृह के इस नियम पर रंगकर्मियों में सिर्फ नाराजगी नहीं बल्कि आक्रोश है। वरिष्ठ रंगकर्मी अनिल रस्तोगी, राकेश, ललित पोखरिया, संगम बहुगुणा, मृदुला भारद्वाज, मुकेश वर्मा, अर्चना शुक्ला, प्रभात बोस, अम्बरीश बॉबी समेत अन्य रंगकर्मी मुखरता से कहते हैं कि सरकार यदि वास्तव में रंगमंच का भला चाहती है तो इस नियम को कम से कम नाट्य मंचन के लिए हटा देना चाहिए। क्योंकि अधिकांश नाट्य मंचनों के पास स्पांसर नहीं होते हैं, टिकट बिकने की बहुत मुश्किल है ऐसे में प्रेक्षागृह का किराया दोगुना कर दिया जाना रंगमंच को मार देने जैसा है। रंगकर्मियों ने साफ तौर पर कहा कि यदि प्रेक्षागृह प्रबंधन ये नियम रखना ही चाहते हैं कि रंगमंच पर लगने वाले टिकटों की कीमत की सीमा 100 से बढ़ाकर 500 रुपए के ऊपर किराया दोगुना करने का नियम बनाए और छुट्टी के दिन किराया दोगुना करने के बजाय जिन कर्मचारियों की ड्यूटी प्रेक्षागृह प्रबंधन की ओर से लगायी जाती है सिर्फ उनका शुल्क इसमें जोड़ दे।

सहयोग राशि नहीं तो कर्मचारियों की सुविधा नहीं

रंगमंच से वरिष्ठ रंगकर्मियों और रंग संस्थाओं के संचालकों की प्रेक्षागृह के कर्मचारियों से भी शिकायत है। ये शिकायत नाट्य मंचन के दिन बिना सहयोग राशि के सुविधा नहीं देने की है। वरिष्ठ रंगकर्मी अचला बोस ने कहा कि लखनऊ का कोई भी प्रेक्षागृह हो वहां नाट्य मंचन करने पर अधिकारिक शुल्क देने के साथ ही नाट्य मंचन के दिन कर्मचारियों को अतिरिक्स पैसा देना ही पड़ता है। यदि आप ये सहयोग राशि नहीं देते हैं प्रेक्षागृह समय पर नहीं खुलता है, लाइट और साउण्ड समय से नहीं चलेंगे, जितनी लाइट है उतनी लाइटों का प्रयोग आप नहीं कर सकेंगे कर्मचारी ऐसी स्थिति बना देते हैं कि आपको नाटक या अन्य कोई कार्यक्रम करना है तो अधिकारिक शुल्क के अलाव आपकों कर्मचारियों की जेब गरम करनी पड़ेगी, ऐसा नही करने पर नाट्य मंचन भगवान भरोसे ही होता है।

रंगकर्मियों के पास पैसा न रिहर्सल के लिए सस्ता स्थान

एक नाटक का मंचन करने के लिए रंगकर्मियों को कहानी तैयार होने के बाद कम से कम एक महीना का समय तैयारी के लिए चाहिए होता है। वरिष्ठ रंगकर्मी संगम बहुगुणा, मनीष सैनी, कपिल तिलहरी, मुकेश वर्मा, अमलेश जयसवाल, अशोक सिन्हा, गोपाल सिन्हा, नवल शुक्ला, राकेश कुमार अग्रवाल, अजय, सूरज गौतम समेत तमाम रंगकर्मियों ने लखनऊ रंगमंच रिहर्सल के स्थान की कमी होने का सवाल उठाया। रंगकर्मियों ने कहा कि एक से डेढ़ महीना रिहर्सल करना आसान नही है। राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह में रिहर्सल का एक स्थान हुआ करता जो बंद हो गया है, लखनऊ में 300 से 400 संस्थाएं है और संगीत नाटक अकादमी में सिर्फ दो ही रिहर्सल कक्ष हैं जो हर किसी को मिल नहीं पाते हैं। ऐसे में रंगकर्मी रिहर्सल कहां करें। इधर-उधर रिहर्सल का स्थान ढूंढने पर कम से कम 300 से 500 रुपए प्रति दिन किराया मांगा जाता है। यदि इतना किराया रंगकर्मी सिर्फ रिहर्सल के लिए चुकाएगा तो नाट्य मंचन कैसे कर पाएगा। इसलिए संस्कृति विभाग को इस दिशा में मजबूती से कदम उठाना होगा और रिहर्सल के स्थान कम किराए में देना होगा। विभाग के इस कदम से सरकार रंगकर्मियों को राहत मिलेगी।

ऑनलाइन अनुमति तो फिर रंगकर्मियों को दौड़ाना

रंगकर्मियों ने नाटकों की ऑनलाइन अनुमति पर भी सवाल उठाए हैं। रंगकर्मियों ने कहा कि जब अनुमति के लिए ऑनलाइन अनुमति की प्रक्रिया संचालित हो रही है तो अनुमति के लिए आवेदन करने के बाद रंगकर्मियों को अभिलेख के साथ कार्यालयों में क्यों बुलाया जाता है। साथ ही रंगकर्मियों ने भी कहा कि जब आप किसी संगीत नाटक अकादमी के सहयोग से नाटक का मंचन करते हैं तो कोई अनुमति नहीं मांगी जाती और रंगमंच संस्थाएं स्वतंत्र मंचन करे तो अनुमति अनिवार्य कर दी जाती है। इतना ही नहीं अनुमति प्रक्रिया के दौरान कभी सिक्योरिटी के नाम पर प्रशासन मोटी रकम शुल्क के रुप में लगा देता है जो देना रंगकर्मियों के लिए नामुमकिन हो जाता है, इसदिशा में सरकार को कदम उठाना चाहिए ताकि नाट्य मंचनों को सहायता मिल सके।

बनाना होगा रंगमंच का माहौल, संवाद के लिए हो जगह

दिल्ली, मुम्बई, भोपाल जैसे शहरों में रंगमंच क्यों पसंद किया जाता है क्योंकि वहां सुविधाएं, संसाधन और अच्छी नाट्य प्रस्तुतियां देखने को मिलती है। ऐसा इसलिए होता है कि इन बड़े शहरों में रंगमंच के लिए एक सुखद माहौल दिखता है। ये बात वरिष्ठ रंगकर्मी और फिल्म कलाकार संदीप यादव कहते हैं और सवाल उठाते हैं कि लखनऊ में ऐसा कोई माहौल क्यों नही है। यहां एक भी स्थान ऐसा नही है जहां चार रंगकर्मी एकत्रित होकर नई कहानियां, रंगमंच में बदलाव, कमियां और अच्छाइयों पर संवाद कर सके। कहने को उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी है लेकिन यहां जिस दिन मंचन न हो तो सन्नाटा व्याप्त रहता है कम से कम अकादमी को एक कैन्टीन ही ओपेन करनी चाहिए जहां रंगकर्मी एकत्रित हो सके। कुछ वर्षों पूर्व तक राय उमनाथ बली प्रेक्षागृह में ये माहौल देखने को मिलता था लेकिन राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह बंद होने के बाद वहां भी माहौल खत्म हो गया। संदीप ने कहा कि जब तक माहौल नहीं होगा कि तब तक किसी भी चीज में बेहतरी की उम्मीद नहीं की जा सकती है। इसलिए सबसे पहले रंगमंच के माहौल को बनाना होगा।

अकादमी नाट्य समारोह की संख्या क्यों नही बढ़ाती

वरिष्ठ रंग निर्देशक शैलेश श्रीवास्तव ने कहा कि 80- 90 के दशक में उत्तर प्रदेश का रंगमंच बहुत समृद्ध था, सक्रिय था, मजबूत था। क्योंकि उस दशक में आकाशवाणी और दूरदर्शन के माध्यम से अभिनय प्रधान कार्यक्रमों की अधिकता थी। लखनऊ के संदर्भ में बोले तो जैसे नीम का पेड़, बीवी नदियों वाली जैसे धारावाहिकों का निर्माण और आकाशवाणी पर हवा महल वगैरा बराबर सुनने देखने को मिलता था, और इस वजह से रंगमंच पर भी नए-नए कलाकार आ रहे थे और वह सक्रिय हो रहे थे, रंगमंच समृद्ध हो रहा था। इसी वजह से उन दशकों से संबंधित कलाकार, आज सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। लेकिन उसकी तुलना में अगर आज लगभग 10-15 वर्षों से या उससे पहले से देखें तो दूरदर्शन और आकाशवाणी पर अभिनय प्रधान कार्यक्रमों की या तो कमी हो गई है या बिल्कुल ही समाप्त कर दिए गए है। उन्होंने सवाल उठाया कि उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी द्वारा साल भर में न जाने कितने बड़े-बड़े संगीत के समारोह, नृत्य के समारोह आदि आयोजित किए जाते हैं लेकिन सिर्फ संभागीय और राज्य नाट्य समारोहों को छोड़कर कोई भी नाट्य समारोह आयोजित नहीं किए जाते हैं। जिस तरह से संगीत और नृत्य के गुरुओं के नाम पर बड़े-बड़े कंसर्ट आयोजित किया जा रहे हैं संगीत नाटक अकादमी द्वारा, इस तरह भारतेंदु हरिश्चंद्र, भरत मुनि आदि के नाम पर भी अकादमी को नाट्य समारोह करने चाहिए। कलाकार एसोसिएशन उत्तर प्रदेश अपने क्रियाकलापों से, अपनी सक्रियता से, अपनी उपस्थिति हमेशा दर्ज करता रहता है। लेकिन प्रदेश का संस्कृति विभाग बिल्कुल भी ऐसा नहीं लगता है कि वह कलाकार संगठन से किसी भी प्रकार का सहयोग सुझाव लेने का प्रयास करता होगा। इसका ही एक जीता जागता उदाहरण है, अभी समाचार पत्रों के माध्यम से पता चला था कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली लखनऊ में भारंगम, भारत रंग महोत्सव कराने का इच्छुक था। इसके लिए शासन ने संभावित यह जवाब दिया कि तीन से सात फ़रवरी के बीच लखनऊ का कोई भी प्रेक्षागृह खाली नहीं है । मेरे दृष्टिकोण से यह एक महत्वपूर्ण रंग आयोजन लखनऊ में प्रस्तावित था। जिसे अगर प्रशासन स्वयं या कलाकार संगठन के सहयोग से या कलाकार संगठन से सलाह लेकर प्रयास करता तो यह इतना बड़ा आयोजन लखनऊ से वापस ना जाता।

सिर्फ वर्कशॉप तक सीमित न हो बाल रंगमंच

बच्चों के मनोविज्ञान में थिएटर का योगदान विषय पर रिसर्च कर रही बाल रंगमंच विशेषज्ञ प्रीती चौहान ने कहा कि रंगमंच को समृद्ध बनाए रखने के लिए बाल रंगमंच का सक्रिय होना बहुत जरूरी है। बच्चों के रंगमंच को बढ़ावा देने के लिए कोई सरकारी योजना नहीं है न ही बच्चों के लिए अलग से कोई थिएटर फेस्टिवल आयोजित होता है। संस्कृति विभाग को अलग अलग स्कूलों में बच्चों के थिएटर को बढ़ावा देने व बच्चों के व्यक्तित्व विकास के लिए थिएटर वर्कशॉप आयोजित करनी चाहिए। जिससे स्थानीय कलाकारों को रोज़गार भी उपलब्ध हो तथा बच्चों को थिएटर का लाभ भी मिले । जब बच्चों का व्यक्तित्व उज्जवल होगा तो देश का आने वाला भविष्य उज्जवल होगा। जो संस्थाएं बाल रंगमंच करती हों उन्हें प्रेक्षागृह व रिहर्सल कक्ष के किराए में भी छूट मिलनी चाहिए। प्रीति ने कहा कि सिर्फ गर्मियों की छुट्टियों ने रंगमंच की कार्यशालाओं तक ही बाल रंगमंच सीमित नहीं होना चाहिए। विद्यालयों के पाठ्यक्रम और प्रैक्टिकल में रंगमंच को होना जरूरी है। रंगमंच बच्चों को सिर्फ अभिनय की बारकियां सिखाने के लिए नहीं बल्कि रंगमंच बच्चों के सम्पूर्ण विकास में सहायक है।

-प्रस्तुति: जावेद मुस्तफा, सौरभ मिश्रा, फोटो- सुधांशु यादव

रंग कर्मियों का छलका दर्द

‘जीर्णोद्धार के नाम पर पिछले कई सालों से राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह बंद पड़ा है। वो जल्दी खुलनी चाहिए। छूट्टियों पर हॉल बुकिंग पर किराया दोगुना होना भी एक बड़ी समस्या है, इसपर रोक लगे। राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह थिएयर का मक्का था। इसे खुलवाने के लिए हम कलाकार अधिकारियों से लेकर कई नेताओं के चक्कर लगा चुके हैं, कोई नहीं सुनता।’

-डॉ. अनिल रस्तोगी

‘मैं करीब 35 सालों से रंगमंच से जुड़ा हूं। आज के दौर में कलाकार की सबसे बड़ी समस्या है, वह दूसरों पर निर्भर हो चुका है। अब नए कलाकारों को मौका कम ही मिलता है। इसके वजह वे भी हैं। नए कलाकार एक दफा स्टेज पाकर खुद को हीरो समझ लेते हैं।’

- अजय त्रिवेदी

‘आज के दौर में रंगमंच कलाकारों को सत्तारुढ़ विचारधाराओं से अलग प्रस्तुतियों को उचित मौके नहीं मिलते हैं। सत्ता समर्थित कलाओं को ज्यादा मौके दिए जाते हैं। सरकार को रंगमंच को लेकर योजना बनानी चाहिए।’

हर्षवर्धन

‘किसी भी नाटक की कराने का अनुमति लेने में करीब पांच से छह हजार रुपए लग जाते हैं। वहीं सरकारी कार्यक्राम बिना अनुमति के आयोजित होते रहते हैं। इसी तरह कलाकारों के सम्मान में भी भेदभाव किया जाता है। सरकारी सम्मान राजनैतिक लोग पा जाते हैं। आम कलाकारों को नहीं मिलते हैं।’

-विनोद मिश्रा, सचिव कलाकार एसोसिएशन

‘संगीत नाटक अकादमी में कर्मचारियों की कमी है। यहां पानी की ठीक व्यवस्था नहीं है। टिकट के मुताबिक ऑडिटोरियम के बढ़ते किराया पर रोक लगनी चाहिए। राय उमनाथ बली प्रेक्षागृह को तत्काल खुलवाना चाहिए।’

-अम्बरीष बोबी

‘संगीत नाटक एकेडमी में शो का टिकट चार्ज बढ़ाने पर ऑडिटोरियम बुकिंग दोगना कर दिया जाता है। 500 रुपए तक की टिकट बुकिंग पर ऑडिटोरियम का किराया नहीं बढ़ना चाहिए।’

-अशोक सिन्हा

‘रंगमंच पर नए कलाकारों का आभाव है। नए कलाकारों को मौका मिलना चाहिए। उन्हें प्रशिक्षित कर मौके देने होंगे। बाल रंगमंच को बढ़ावा देना होगा। रंगमंच का केन्द्र रहे बली प्रेक्षागृह का काम पूरा हो गया उसे अब खोल देना चाहिए।’

-मुकेश वर्मा

‘हम कलाकारों की सबसे बड़ी समस्या हॉल की बुकिंग है, इसके लिए हमें बाहर दौड़ लगानी पड़ती है। अनुमति के लिए थाने से लेकर कमिश्नर के दफ्तर तक के चक्कर काटने पड़ते हैं। जबकि अनुमति की प्रक्रिय ऑनलाइन कर दी गई है।’

-मृदुला भारद्वाज

‘शो टिकटों के दाम के हिसाब से ऑडिटोरियम बुकिंग का चार्ज गलत है। इसपर रोक लगनी चाहिए। मात्र कुछ रुपए टिकट के दामों में बढ़ोतरी करने पर बुकिंग रेट दोगुना हो जाता है। इसे तत्काल खत्म करना चाहिए।’

-ललित पोखरियाल

‘मैं पिछले 50 सालों से रंगमंच पर अदाकारी कर रहा हूं। शहर के रंगकर्मी थिएटर व फिल्में सब कर लेते हैं। लेकिन अब के नए अदाकार रंगमंच को सिर्फ रास्ता समझ रहे हैं। उन्हें प्रशिक्षण की जरुरत है। नए कलाकारों में सीखने की इच्छा कम दिखती है।’

-गोपाल सिन्हा

‘आज रंगमंच का कलाकार अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। कलाकारों को कोई जानता तक नहीं है। किसी काम के लिए लम्बी दौड़ लगानी पड़ती है। सरकार भी कोई सुविधा नहीं देती है। कलाकारों के लिए शासन को कुछ विशेष सुविधा देनी चाहिए।’

-अर्चना शुक्ला

‘12-कला संस्थानों में अब पहले जैसी रौनक नहीं दिखती है। यहां नए कलाकारों के लिए सस्ती दरों पर रिहर्सल हॉल मिलना चाहिए। कलाकारों के लिए मूलभूत सुविधाओं पर काम होना चाहिए। कैंटीन तक की व्यवस्था नहीं है।’

-संदीप यादव

‘आज एक तो शहर में रंगकर्मियों के लिए काम नहीं है। दूसरा अब कलाकारों में पहले जैसी बनती भी नहीं है। शहर के रंगकर्मी बाहर जाकर कोई भी संघर्ष कर लेंगे, लेकिन यहां एकता नहीं दिखती है। साथ ही यहां प्रेक्षागृहों का आभाव है।’

-नीरज शब्द

‘टिकट के दाम देखकर ऑडिटोरियम का किराया बढ़ाया जाता है, ऐसा क्यों? यह केवल लखनऊ में है, बाकी किसी अन्य जगह टिकट का किराया कितना भी हो ऑडिटोरियम बुकिंग दर पर असर नहीं करता है। यह गलत है, बढ़ते किराया पर रोक लगनी चाहिए।’

-संगम बहुगुणा

‘मैंने 1959 से आकाशवाणी से कराकारी शुरू किया था। आज रंगमंच पर कलाकारों को पूरा अवसर नहीं मिलता है। उनकी प्रतिभा निखरने के बजाए दब रही है। नए कलाकारों को प्रशिक्षित कर मौके देने की जरूरत है।’

-प्रेम श्रीवास्तव

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