बोले बस्ती : सुई और धागे के बीच गुजरा जीवन, बच्चों को नहीं बनाना चाहते दर्जी
Basti News - बस्ती में सिलाई कारीगरों की स्थिति संकट में है। रेडीमेड कपड़ों के बढ़ते चलन ने पारंपरिक दर्जी के काम को प्रभावित किया है। युवा इस पेशे में नहीं आना चाहते हैं, जिससे कारीगरों की संख्या कम हो रही है।...
Basti News : एक समय था जब कपड़ा खरीद कर लोग सिलवाने के लिए दर्जी के पास जाते थे। समाज के एक बड़े वर्ग के लिए यही रोजी-रोटी का जरिया था। वक्त और फैशन के मायने बदले तो रेडीमेड कपड़ों के बड़े-बड़े शोरूम खुल गए। इस क्षेत्र में नामी कंपनियों का दखल बढ़ा तो इसका असर सिलाई कारीगरों पर पड़ा। इनमें तो कुछ ऐसे सिलाई कारीगर हैं, जिन्होंने जिम्मेदारियों की ‘तुरपाई करने में जीवन के तीन से चार दशक गुजार दिए, लेकिन अब भविष्य को लेकर नाउम्मीद हैं। अपनी जिंदगी तो वह किसी तरह गुजार रहे हैं, लेकिन अपने बच्चों को इस पेशे में नहीं उतारना चाहते हैं। ‘हिन्दुस्तान‘ से बातचीत में सिलाई कारीगरों ने अपना दर्द साझा किया। दर्जी का काम कभी पुश्तैनी माना जाता था, लेकिन रोजगार की कमी के कारण अब हर वर्ग के लोग इस पेशे में शामिल होने लगे हैं। एक अनुमान के अनुसार पूरे जिले में 10 हजार से ज्यादा लोग इस पेशे से जुड़े हुए हैं। शहर से लेकर गांव तक हर बाजार, गली, चौराहे पर दर्जी की दुकान मिल जाएगी। सिलाई करने वाले दर्जी अब टेलर मास्टर के नाम से जाने जाते हैं। बुजुर्ग टेलर मास्टर शहाबुद्दीन बताते हैं कि जब यह पुश्तैनी काम था, तब इसे सीखने में वर्षों लग जाते थे। काम में हुनर नजर आता था। सबसे हुनरमंद कारीगर की शोहरत दूर-दूर तक होती थी। जो कारीगर मशहूर हो जाता था, उसके पास काम की कमी नहीं रहती थी। रेडीमेड बाजार ने सिलाई करने वालों की कमर तोड़ दी है। लोगों के पास समय की कमी है। दर्जी के यहां सिलाई में जहां चार से पांच दिन लग जाता है, वहीं रेडीमेड कपड़ों की दुकान पर ग्राहक तत्काल मनपसंद कपड़ा खरीद सकता है। युवाओं में रेडीमेड कपड़ों के प्रति बढ़ती रुझान के कारण सिलाई का कारोबार प्रभावित हुआ है।
राजकीय आईटीआई में चलता है फैशन डिजाइनिंग का कोर्स
राजकीय आईटीआई बस्ती में फैशन डिजाइनिंग का कोर्स चलता है। यहां महिलाएं व युवतियां फैशन डिजाइनिंग सीख रही हैं। शहरों में बुटीक कल्चर शुरू होने से महिलाओं के फैशन वाले कपड़ों की सिलाई का क्रेज बढ़ा है। बेरोजगार महिलाएं इस क्षेत्र में काफी संख्या में आ रही हैं। कुछ प्राइवेट तौर पर काम सीखती हैं तो कुछ राजकीय आईटीआई से कोर्स पूरा कर रही हैं। महिलाओं ने सिलाई सीख कर अपना काम शुरू कर दिया है। जिनके पास संसाधन की कमी है, वह घर में ही सिलाई कर रही हैं। यहां से काम सीख कर गांवों में भी महिलाओं ने इसे रोटी-रोजी का जरिया बना लिया है। फैशन डिजाइनिंग का कोर्स पूरा कर चुकी महिलाएं नए फैशन के कपड़े सिलती हंै जिससे उन्हें मुंहमांगी मजदूरी मिल जाती है। संसाधन के अभाव में यह व्यापार का रूप नहीं ले पा रहा है।
नामी टेलरों के यहां लगती थी कतार
दो दशक पहले हर गांव में कार्यक्रमों के दौरान दर्जी घर पर आते थे और कपड़ों की माप लेते थे। अब व्यवस्था बदल गई है। दर्जी फूलचंद बताते हैं कि शादी-विवाहों में दर्जी घर पर ही आकर कुर्ता पैजामा, सदरी, कमीज की माप लेते थे। महिलाओं के पुराने ब्लाउज से ही माप लेकर सिलाई करते थे। लोगों को नामी टेलरों के यहां कपड़े सिलवाने के लिए महीनों का वक्त देना पड़ता था। आज महिलाएं ब्लाउज, लहंगा, सलवार सूट आदि घर में सिलकर परिवार चलाने में सहयोग करती हैं।
कार्यस्थल पर रहता है सुविधाओं का अभाव
शहरों में सिलाई का काम करने वाले कारीगरों की हालत काफी बदतर है। कार्यस्थल पर सुविधाओं का अभाव है। टेलरिंग करने वालों के शो रूम जहां मुख्य बाजार में होते हैं, वहीं कपड़ों की सिलाई के लिए किसी गली कूचे में वर्कशॉप खोल दिया जाता है। बड़े हालनुमा वर्कशॉप में जाड़ा, गर्मी और बरसात के सीजन में कारीगरों को काम करना पड़ता है। सुविधा के नाम पर यहां पंखे के अलावा कुछ नहीं होता है। कुछ तो ऐसे हैं जहां न तो शौचालय है और न ही पीने के पानी का प्रबंधन किया जाता है। कारीगर को मिलने वाली मजदूरी में ही खाना, पानी व चाय का प्रबंध करना पड़ता है। किसी विभाग की ओर से कारीगरों के कार्य स्थल की कभी जांच तक नहीं की जाती है। कारीगर पूरे दिन इसी विपरीत हालात में जब काम करता है, तब शाम तक जाकर उसके घर में चूल्हा जलने की संभावना बन पाती है।
नई पीढ़ी कर रही काम से किनारा
टेलर इमरान बताते हैं कि पिछले 35 वर्षों से सिलाई कर रहे हैं। पहले दुकानों पर अधिकांश लोग सिलाई के लिए कपड़े लेकर आते थे। बाजार में खूब प्रतिस्पर्धा थी। पहले दुकान पर सात-आठ कर्मचारी थे। अब सिर्फ गिने-चुने कारीगरों से ही काम लिया जा रहा है। कारीगरों की संख्या कम होने से इस काम पर असर पड़ा है। अब लोग रेडीमेड गारमेंट्स की तरफ ज्यादा आकर्षित हो रहे हैं। नई पीढ़ी इस पेशे में आना नहीं चाहती। हालांकि अभी भी पुराने लोग टेलरों के पास से ही कपड़े सिलवाना अधिक पंसद करते हैं। इसलिए जिन लोगों के पास ऐसे ग्राहकों की संख्या ठीक-ठाक है तो उनका कारोबार बेहतर है।
ज्यादातर दर्जी भूमिहीन, घर खर्च भी निकालना मुश्किल
सिलाई के कारोबार से जुड़े कारीगरों को अगर सरकारी सुविधाओं का लाभ मिले तो उनके जीवन में काफी हद तक सुधार हो सकता है। गांव से जुड़े अधिकांश कारीगरों के पास जहां अंत्योदय राशन कार्ड, आयुष्मान भारत कार्ड मौजूद है, वहीं शहरी कारीगरों के पास इनका अभाव है।
अधिकांश कारीगरों के पास आवास की सुविधा नहीं है। वह पुश्तैनी जर्जर मकान या किराये के मकान में रहते हैं। कारीगरों का कहना है कि आवास पाने की प्रक्रिया काफी जटिल है। आय प्रमाण-पत्र बनवाने से लेकर हर कागज को तैयार कराने में कदम-कदम पर पैसा खर्च होता है। अभावों में जूझ रहे कारीगर इसे बनवाने से हार जाते हैं। इसके अलावा काफी संख्या ऐसे कारीगरों की है,जो भूमिहीन हैं। सरकार की गाइड लाइन के अनुसार इन्हें आवास की सुविधा नहीं मिल सकती है।
बैंक लोन नहीं मिलने से करते हैं हालात से समझौता
कारीगर श्याम बिहारी का कहना है कि सरकारी योजनाओं का लाभ मिलने से आर्थिक संकट से लड़ा जा सकता है। अपना कारोबार बढ़ाने के लिए बैंक से कर्ज लेना हो तो कर्मचारी इतना दौड़ाते हैं कि परेशान होकर अपने हालात से समझौता करना ही बेहतर समझते हैं। कारीगरों ने बताया कि हमारे काम को देखते हुए सरकारी योजनाओं का लाभ दिलवाना चाहिए जिससे सरल तरीके से इस पेशे से जुड़े लोगों के परिवार को भी आजीविका चलाने में दुश्वारियां न हों। अपनी दुकान चलाने वाले सिलाई कारीगर सर्वजीत बताते हैं कि मंदी के महीनों में घर का जरूरी खर्चा भी नहीं निकलता है। कारीगरों ने बताया कि मास्टरों की दुकानों पर काम नहीं रहता है। उनसे एडवांस लेने के बावजूद जरूरत का सामान घर में पूरा नहीं कर पाते हैं। इससे बचने के लिए दूसरे राज्यों और बड़े शहरों में जाकर काम करते हैं।
शिकायतें
-रेडीमेड गारमेंट के बढ़ते कारोबार से गांव से शहर तक दर्जी कारीगरों को नुकसान हो रहा है।
-दर्जी के परंपरागत कारोबार को बढ़ावा देने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है।
-दर्जियों को न तो प्रशिक्षण व प्रमाण-पत्र ही मिल रहा है और न है अनुदान की ही व्यवस्था है।
-दर्जी कारीगरों को आयुष्मान कार्ड का लाभ नहीं मिल रहा है।
-पीएम कौशल विकास योजना में शामिल होते हुए भी सिलाई सीखने का कोई क्रेज नहीं है।
सुझाव
-दर्जी कारीगरों को भी राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं से जोड़ा जाना चाहिए।
-सिलाई से जुड़े लोगों को कैशलेस व आयुष्मान योजना की सुविधा मिलनी चाहिए।
-दर्जी कारीगर कुशल श्रमिक की श्रेणी में आते हैं, इन्हें श्रम विभाग से लाभ मिले।
-परंपरागत कारोबार को बढ़ावा देने के लिए दर्जी कारीगरों को अनुदान देना चाहिए।
-दर्जी कारीगरों की बेटियों की पढ़ाई-लिखाई और विवाह के लिए भी अनुदान मिले।
हमारी भी सुनें
महंगाई काफी बढ़ गई है। जितनी मजदूरी मिलती है, उसमें परिवार का गुजारा करना मुश्किल हो जाता है। दवा इलाज में काफी पैसा खर्च हो जाता है।
मेहंदी हसन
कई दशक से सिलाई कारीगर का काम करते चले आ रहे हैं। पहले की अपेक्षा मजदूरी जरूर बढ़ी है, लेकिन उसकी तुलना में महंगाई कहीं ज्यादा बढ़ गई है।
मुश्ताक
सिलाई कारीगार का कोई भविष्य नहीं रह गया है। कोई अपने बच्चे को सिलाई कारीगर नहीं बनाना चाह रहा है। कारीगर अब बच्चों को दूसरा काम सिखा रहे हैं।
दिनेश कुमार
आज के समय में किसी के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जरूरी होता है। मेहनत के दम पर दो समय पेट तो भर जाता है, लेकिन अन्य जरूरतें नहीं पूरी हो पा रही है।
श्याम बिहारी
सिलाई कारीगरों को काफी विषम हालात में काम करना पड़ता है। सर्दी, गर्मी और बरसात के मौसम में एक ही कमरे में पूरा दिन गुजर जाता है।
इमरान अहमद
पहले जमाने में दर्जी के काम में हुनर था। हाथ से सुई की मदद से कुर्ता आदि सिला जाता था। उस समय उस हुनर की कद्र थी। अब सब काफी बदल गया है।
फूलचंद
पूरे दिन सिलाई के काम में लगे रहने के कारण सिलाई कारीगर अपने परिवार पर ध्यान नहीं दे पाता है। यही कारण है कि उसके बच्चे ठीक से पढ़ाई नहीं कर पाते हैं।
प्रभु दयाल
दो दशक से ज्यादा समय से सिलाई कारीगार का काम करते आ रहे हैं। परिवार की जरूरत पूरा करने के लिए काफी ज्यादा समय तक काम करना पड़ रहा है।
सर्वजीत
सिलाई का काम करने वाले ज्यादातर कारीगर के पास आवास नहीं है। जो कमाई होती है, उसमें बचत करके आवास नहीं बनाया जा सकता है।
रामहित
ज्यादातर कारीगर मजदूरी के लिए दूरदराज के गांव से शहर में आते हैं। लंबी यात्रा करके आने के बाद फौरन काम में लग जाना पड़ता है। आराम का अवसर नहीं मिल पाता है। पारसनाथ
सिलाई कारीगरों के कार्य स्थल पर बुनियादी सुविधाएं नहीं होती हैं। मालिक ने काम के लिए एक कमरा तो दे दिया लेकिन शौचालय तक की सुविधा नहीं होती है।
अकबर अली
सिलाई कारीगरों को पूरे दिन की मेहनत के बाद केवल मजदूरी मिलती है। उन्हें खाना घर से लाना पड़ता है और पानी के लिए आस-पास के हैंडपंप का सहारा लेना पड़ता है। ओमकार
अपने तो किसी तरह से सिलाई का काम करके जीवन निर्वाह हो जा रहा है। इच्छा है कि बच्चे दूसरा काम करें। उन्हें वॉयरिंग, फर्नीचर का काम सिखवा रहे हैं।
सुजीत कुमार
बाजार में रेडीमेड कपड़ों का चलन काफी तेजी से बढ़ा है। सिलाई का काम प्रभावित हो रहा है। धीरे-धीरे अब सिलाई कम हो रही है। कारीगरों पर असर पड़ रहा है।
राम अवतार
सिलाई का काम करने वाले हम लोग कम पढ़े लिखे होने के कारण योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाते हैं। किसी सरकारी इसमें औपचारिकताएं बहुत होती हैं।
रामजी
कारीगरों के भविष्य को संवारने के लिए सरकारी योजना नहीं है। धनाभाव के कारण केवल मजदूरी तक ही सीमित रह जाते हैं। सरकार से मदद मिलनी चाहिए।
आरिफ अंसारी
बोले जिम्मेदार
दर्जी असंगठित क्षेत्र के कर्मकार के रूप में चिह्नित हैं। इन्हें केंद्र सरकार की योजनाओं के तहत आच्छादित किया जाता है। असंगठित क्षेत्र के कर्मकारों के लिए केंद्र ने नि:शुल्क ईश्रम पंजीकरण शुरू किया है। पंजीकरण होने के बाद असंगठित क्षेत्र के दर्जी समुदाय के लोगों को पांच लाख तक कैशलेस चिकित्सा सुविधा मिलेगी। दो लाख रुपये तक दुर्घटना बीमा का लाभ मिलेगा। ई-श्रम कार्ड बनवाने के लिए 16 वर्ष से 60 वर्ष आयु वर्ग के कर्मकार होने चाहिए।
नागेन्द्र त्रिपाठी, श्रम प्रवर्तन अधिकारी, बस्ती
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