जरी से दिलाई दुनिया में पहचान पर कारीगरों के टूट रहे अरमान
Bareily News - बरेली की जरी-जरदोजी उद्योग 500 साल पुरानी है, लेकिन आज यह संकट में है। छह लाख परिवारों की आजीविका पर संकट है, क्योंकि नए पीढ़ी के लोग इस काम को छोड़ रहे हैं। कारीगरों की आमदनी बहुत कम है और बिचौलियों...
शहर बरेली 500 साल से भी पुराना है। दिल्ली-लखनऊ के बीचो-बीच बसे इस शहर की पहचान देश दुनिया में जरी जरदोजी से भी है, लेकिन अब यदि नीति-नियंताओं ने ध्यान नहीं दिया तो छह लाख परिवारों का पालन-पोषण करने वाला यह कारोबार चंद व्यापारिक घरानों और कारीगरों के परिवारों तक सिमट कर रह जायेगा। सलमा सितारों से तैयार जरी परिधान की कीमत जितनी ज्यादा है कारीगर उतने ही तंगहाल हैं। हालात यह है कि घर चलाने के लिए कई हुनरमंद अब इस काम को छोड़कर ई-रिक्शा चलाने को मजबूर हैं। बरेली को कोई झुमका सिटी कहता है तो कोई सुरमे का शहर। मगर, हकीकत तो यह है कि बरसों-बरस से इस शहर का सबसे बड़ा कारोबार जरी-जरदोजी ही रहा है। पुराने शहर की तंग गलियों में चले जाइए या फिर फरीदापुर के छोटे-छोटे घरों में घूम लीजिए, शहर से लेकर गांवों तक दस्तकारी का यह काम तकरीबन छह लाख लोगों को रोजगार देता रहा है। हालांकि सरकारी कागजों में यह आंकड़ा करीब 1.70 लाख का है।
कारीगर कहीं छोटे तो कहीं बड़े कपड़ों पर रंगीले धागे, सितारे, नग, शीशे जड़ते हाथ अपनी किस्मत को लिखने की कोशिश करते रहे हैं। यह दूसरी बात है कि उनकी किस्मत को कभी नोटबंदी तो कभी जीएसटी और कभी कोरोना की नजर लगती रही है। 'हिन्दुस्तान' के साथ चर्चा करते हुए जरी के कारीगर और कारोबारी कहते भी हैं कि जरी की रंगत फीकी पड़ रही है। अड्डे सूने हो रहे हैं। आर्थिक दुश्वारियों के कारण नई पीढ़ी इससे दूर भाग रही है। सर्द दिनों में भी पीलीभीत रोड पर स्थित जरी के अड्डे पर कारीगर पूरी मेहनत के साथ अपने काम में जुटे हैं। आंखों और हाथों की जुगलबंदी से निकली खूबसूरती कपड़े पर साफ नजर आती है। पर यह खूबसूरती कारीगरों के चेहरे की चमक नहीं बढ़ा पाती। कारण है, इस कारोबार से जुड़ी दुश्वारियां, जिनके समाधान के दावे होते हैं मगर समाधान नहीं होता।
लोग आगे बढ़ रहे हम पीछे
कारखाने पर काम कर रहे जीशान कामकाज की स्थिति को कुछ इस तरह कहते हैं। बोले, 20 वर्ष से यह काम कर रहे। लोग आगे बढ़ते हैं मगर हम लोग पीछे हो रहे। काम लगातार डाउन हो रहा। जैनुल कहते हैं कि जरी-जरदोजी हमारे परिवार में 18 वर्ष से होता आ रहा है। एक दौर में इस काम की अलग ही रौनक थी। बड़ी आसानी से पूरे परिवार का पालन-पोषण हो जाता था। नोटबंदी के समय जरी के काम पर बड़ी चोट पड़ी थी। जैनुल के काम से वाहिद भी सहमत हैं। कहते हैं कि इस काम में मेहनत ज्यादा और कमाई कम है। हमारी अगली पीढ़ी इसको नहीं करेगी। कारीगरों का कहना है कि जब तक इस काम से बिचौलिये दूर नहीं होंगे और सरकार जमीन पर उतरकर हम लोगों की मदद नहीं करेगी, तब तक कुछ बदलने वाला नहीं है।
शिकायतें:
1. जरी नगरी होने के बाद भी बरेली में जरी का एक्सपोर्ट हाउस नहीं है। इस कारण ज्यादातर लोगों को एक्सपोर्ट की जानकारी नहीं है।
2. जमीन खरीदने, बिल्डिंग बनाने और बिक्री के लिए सरकारी सहयोग की कमी है। यूपीसीडा से जमीन लेने को कहा जाता। वहां पहले ही जमीन नहीं है।
3. अब ऑनलाइन मार्केटिंग बहुत जरूरी है मगर इसके लिए केवल एक लाख रुपये की सपोर्ट है। कारोबारियों का बड़ा बजट खप रहा।
4. जरी कारीगरों का शैक्षिक रूप से कमजोर होना इस उद्योग पर भारी पड़ रहा है। कारीगरों की सेहत का भी ध्यान नहीं रखा जाता।
5. पूरे कारोबार में बिचौलिए हावी हैं। काम के बदले में रोज के मेहनताना का आधा पैसा बिचौलिए खा जाते हैं।
सुझाव:
1. दिल्ली-मुंबई की तरह बरेली में एक्सपोर्ट हाउस खुले। इससे बड़ी कंपनियों के ऑर्डर बढ़ेंगे और सीधा लाभ कारोबारी और कारीगर को होगा।
2. बीडीए से जमीन लेने पर भी सब्सिडी का लाभ मिलना चाहिए। इन्वेस्ट यूपी योजना में जरी के लिए अलग से प्रावधान होना चाहिए।
3. इंस्टाग्राम, फेसबुक आदि सोशल साइट्स पर मार्केटिंग करने की ट्रेनिंग दी जाए। साथ ही इसके ऊपर के खर्च का भी वहन किया जाए।
4. बरेली जैसी जरी नगरी में जरी कारीगरों की सेहत, शिक्षा के बारे में निरंतर काम होना चाहिए। इसमें एनजीओ को भी आगे आना चाहिए।
5. बिचौलियों की भूमिका पर अंकुश लगे। कारीगरों को भी जागरूक करना होगा। वर्कशॉप की जाएं।
तंगहाली में हैं आधे से अधिक कारीगर
जरी जरदोजी की चमक और इससे तैयार परिधान की कीमत जितनी अधिक होती है, उससे काफी कम है कारीगरों की आमदनी। मुनाफे का ज्यादातर हिस्सा एक्सपोर्टर, बड़े कारोबारी और ठेकेदार ले लेते हैं। कारीगरों के हाथ आता है तो महज चंद रुपये, जिससे परिवार चलाना मुश्किल हो जाता है।
एक सर्वेक्षण के अनुसार जरी जरदोजी से जुड़े 52 फीसदी कारीगरों की औसत पारिवारिक मासिक आय 5,000 से 10,000 रुपये के बीच होती है। इसके कारण इनका जीवन तंगहाली से गुजरता है। कारचोबी का काम करने के एवज में ठेकेदार द्वारा तय की गई रकम भी इन्हें समय पर नहीं मिलता। पांच साल पहले हुए सर्वेक्षण के अनुसार कारचोबी के इस काम से जुड़े 18.7% कारीगरों की मासिक आय 10,001 रुपये से 15,000 रुपये के बीच है। वहीं, 13.3% कारीगर 15,001 से 20,000 रुपये तक महीने में कमाते हैं। महज 8% ही 20 हजार से अधिक कमा पाते हैं।
हैंडमेड काम के लिए मिले सरकारी मदद, लाएं योजना
जरी के एक्सपोर्ट से जुड़े और राजगढ़िया एक्सपोर्ट के फाउंडर संदीप राजगढ़िया सुदीप राजगढ़िया कहते हैं, पूरी दुनिया में दुबई जरी का सेल्स प्वाइंट है। हम बरेली को भी उसी तरह से विकसित कर सकते हैं। यहां करीब 6 लाख कारीगर इस काम से जुड़े हैं। सबसे पहले जरूरत एक्सपोर्ट हाउस बनाने की है। जरी का काम हैंडमेड होता है। इन्वेस्ट यूपी में मशीनों पर फोकस किया गया है। इसलिए हैंडमेड काम के लिए अलग पॉलिसी लानी होगी। जमीन की सब्सिडी से लेकर मार्केटिंग सपोर्ट तक के बारे में सरकार को ध्यान देने की आवश्यकता है।
कारीगरों को मिले बाजार के हिसाब से प्रशिक्षण
जरी कारोबारी तमालिका शर्मा कहती हैं, जरी का अधिकतर काम अशिक्षित और असंगठित क्षेत्र के जरिए होता है। कई बार हम लोगों के पास बड़े ऑर्डर आते हैं मगर उनको बेहतर तरीके से करने के लिए कुशल कारीगरों की कमी होती है। यदि इन कारीगरों को ट्रेनिंग कराई जाए तो इंटरनेशनल मार्केट की डिमांड के अनुरूप काम कर सकेंगे, इससे इनका मेहनताना भी बढ़ेगा। छोटे-छोटे कारोबारियों को अपने बिजनेस को आगे बढ़ाने के लिए ऑनलाइन मार्केटिंग सीखनी होगी।
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