Hindi Newsउत्तर प्रदेश न्यूज़अयोध्याChhath Puja A Celebration of Nature and Community in Ayodhya

घाट सजेवली मनोहर, मईया तोरा भगती अपार, लिहिएं अरग हे मईया,दिहीं आशीष हजार

अयोध्या में छठ पूजा एक प्रमुख लोकपर्व है, जो मुख्य रूप से बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल में मनाया जाता है। यह पर्व सूर्य, उषा और प्रकृति को समर्पित है, जिसमें लोकगीतों के माध्यम से...

Newswrap हिन्दुस्तान, अयोध्याThu, 7 Nov 2024 11:12 PM
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अयोध्या। सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। इस पर्व में पूर्वांचल की संस्कृति झलक है। यह एक ऐसा पर्व है जो वैदिक काल से चला आ रहा है । यह पर्व ऋग्वेद मे सूर्य पूजन, उषा पूजन और आर्य परंपरा के अनुसार मनाया जाता हैं। छठ पूजा सूर्य, उषा, प्रकृति,जल, वायु और उनकी बहन छठी म‌इया को समर्पित है ताकि उन्हें पृथ्वी पर जीवन बहाल करने के लिए आभार ज्ञापन किया जाए। इस पर्व पर गाए जाने वाले लोक गीत भी प्रकृति को समर्पित है। साकेत महाविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रो. डा. अनुराग मिश्र कहते हैं कि किसी भी अन्य पर्व की तुलना में छठ पर्व का आयोजन उसके लोकगीतों में अधिक गहरायी के साथ उभरकर सामने आ जाता है। वास्तव में, अन्यान्य पर्वों की तरह ही छठ पूजा भी प्रकृति के साथ मनुष्य के सहजीवन का एक विराट-व्यापक उत्सव है। छठ पूजा का पूरा विधान, जिसको उसके लोकगीत मार्मिक ढंग से बार-बार व्यंजित करते हैं, व्यक्ति की आत्मिक शुद्धि व अहंकार के विसर्जन के साथ-साथ उसकी सामुदायिक चेतना और पर्यावरणीय चिंताओं से संदर्भित हैं।

‘केलवा के पात, ‘पहिले पहिल हम कइलीं, ‘उगिहें सूरज गोसइयाँ हो आदि लोकगीतों की सीधी व्यंजना है कि छठ इसलिए है कि प्रकृति की निरंतरता बनी रहे और उसका मनुष्यमात्र के साथ यह सहजीवन भी निर्बाध रूप में चलता रहे। सभी भाषाओं के साहित्य में प्रकृति या उसकी शक्तियों को लेकर गम्भीर लेखनकर्म हुआ है लेकिन लोकवृत्त में लोकसृजन के रूप में छठ पर्व की यह जो विशद अभिव्यक्ति है, वह अपने रचाव और प्रभाव दोनों में विलक्षण है। यह संभवतः अकेला ऐसा पर्व है जिसमें एक लोकगीत में माँ संतानप्राप्ति के लिए बेटी की कामना करती है ताकि उसका यह पूजन सरलता से पूरे जीवन चलता रहे। यह एक सामाजिक संदेश तो है ही, हम यह भी देख सकते हैं कि कैसे दर्शन के स्तर पर भी सृजन के प्रतीक के रूप में प्रकृति और स्त्री इन लोकगीतों में एक हो जाते हैं। यह पर्व, व्यष्टि व समष्टि स्तर पर, सभ्यता के विकास के साथ-साथ विस्मृत होती अपनी मूल नैसर्गिक वृत्तियों को फिर-फिर पाने और उसमें अनुकूलित होने का एक लोक-उद्यम है।

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