कार्तिक पूर्णिमा पर घर घर में किया गया तुलसी विवाह
कार्तिक पूर्णिमा पर घर-घर तुलसी विवाह का आयोजन किया गया। यह पौराणिक कथा वृंदा और उनके पति जलंधर के प्रेम की है। भगवान विष्णु ने जलंधर का रूप धारण कर वृंदा का संकल्प तोड़ा, जिसके परिणामस्वरूप जलंधर की...
सहार।कार्तिक पूर्णिमा पर घर घर तुलसी विवाह का आयोजन किया गया। इस दौरान तुलसी पूजन किया गया। अपनों के कल्याण की कामना की गई। पौराणिक कथा के अनुसार वृंदा नाम की एक लड़की थी। जिसका विवाह राक्षस कुल में दानव राजा जालंधर से हुआ था। वृंदा एक पतिव्रता स्त्री थी जो अपने पति से बेहद प्रेम करती थी। एक बार देवताओं और दानवों में जब युद्ध छिड़ गया तो जलंधर को भी उस युद्ध में जाना पड़ रहा था। तब वृंदा ने अपने पति से कहा कि मैं युद्ध में आपकी जीत के लिए अनुष्ठान करुंगी और जब तक आप वापस नहीं लौट आते मैं अपना संकल्प नहीं छोडूगीं। इसके बाद जालंधर युद्ध में चला गया। वृंदा के व्रत के प्रभाव से जालंधर देवताओं पर भारी पड़ने लगा था। जब देवताओं को ये समझ आ गया कि जालंधर को हरा पाना काफी मुश्किल है तो वे भगवान विष्णु जी के पास गए। तब भगवान विष्णु ने जालंधर का रूप धरा और वृंदा के महल में पहुंच गए। जैसे ही वृंदा की नजर अपने पति पर पड़ी वे तुरंत ही पूजा से उठ गई और उसने जालंधर का रूप धरे भगवान विष्णु के चरण छू लिए। इस तरह से वृंदा का पूजा से न उठने का संकल्प टूट गया और युद्ध में जालंधर मारा गया। इसके बाद जालंधर का सिर वृंदा के महल में जा गिरा। वृंदा को समझ नहीं आया कि यदि फर्श पर पड़ा सिर मेरे पति का है, तो सामने कौन है? तब भगवान विष्णु अपने वास्तवक रूप में आ गए। वृंदा को अपने साथ हुए इस छल से बहुत ठेस पहुंची और उसने भगवान विष्णु को यह श्राप दे दिया कि आप पत्थर के बन जाओ। कहते हैं वृंदा के श्राप से विष्णु जी तुरंत पत्थर के बन गए। लेकिन भगवान विष्णु के पत्थर के बनते ही हर जगह हाहाकार मच गया। तब लक्ष्मी जी ने वृंदा से विष्णु जी को श्राप से मुक्त करने की प्रार्थना की।
जिसके बाद वृंदा ने भगवान विष्णु का श्राप विमोचन किया और स्वयं अपने पति का कटा हुआ सिर लेकर सती हो गई। कहते हैं जिस जगह पर वृंदा सती हुई थीं उनकी राख से वहां एक पौधा निकला। जिसे भगवान विष्णु ने तुलसी नाम दिया और साथ ही ये भी कहा कि शालिग्राम नाम से मेरा एक रूप इस पत्थर में रहेगा। जिसकी पूजा हमेशा तुलसी जी के साथ ही की जाएगी। साथ ही भगवान ने तुलसी को ये भी वरदान दिया कि मैं बिना तुलसी के भोग तक स्वीकार नहीं करुंगा। कहते हैं तब से ही तुलसी जी की पूजा शुरू हो गई और कार्तिक मास में उनका विवाह शालिग्राम जी के साथ कराया जाने लगा।
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