आखिर भाजपा की इस जीत के कारण क्या
खैर उपचुनाव--समीक्षात्मक स्टोरी-- आखिर भाजपा की इस जीत के कारण क्या सब हेड... लोकसभा
--समीक्षात्मक स्टोरी-- आखिर भाजपा की इस जीत के कारण क्या
सब हेड...
लोकसभा चुनाव में खैर क्षेत्र से मिली हार के छह माह बाद ही भाजपा ने चुनाव प्रबंधन से उलटा परिणाम
--प्वाइंटर--
-प्रत्याशी चयन से लेकर आक्रामक चुनाव प्रचार और प्रबंधन पर हुआ कड़ा होमवर्क
-संघ और संगठन ने मिलकर जाटों का बिखराव रोकने को लगाया एड़ी चोटी का जोर
-बसपा-असपा के बीच फंसे अनुसूचित वोटों के बिखराव का भी भाजपा को मिला लाभ
--ये है मतदान प्रतिशत में अंतर--
-60.10 प्रतिशत मतदान 2022 विधानसभा चुनाव में
-55.39 प्रतिशत मतदान 2024 लोकसभा चुनाव में
--पिछले दो चुनाव का परिणाम में अंतर--
-2022 विस चुनाव-भाजपा को 138517 मत मिले, दूसरे स्थान पर बसपा को 64996 मत मिले। 73521 जीत का अंतर।
-2024 लोस चुनाव-खैर सीट पर सपा को 95391 मत मिले, दूसरे स्थान पर भाजपा को 93900 मत मिले। 1491 जीत का अंतर।
अलीगढ़, अभिषेक शर्मा। इसे कहते हैं सियासी दंगल का दाव। छह माह पहले जिस खैर क्षेत्र से भाजपा लोकसभा चुनाव में हारी, उस क्षेत्र में छह माह बाद यानि उपचुनाव में परिणाम ही उलट दिया। इसे चुनाव प्रबंधन ही कहा जाएगा। क्योंकि खैर सीट पर लगातार दो बार से भाजपा का कब्जा है। बावजूद इसके कभी खैर पर न जीतने वाली सपा से कांटे के मुकाबले में लोकसभा में हारना चिंता का विषय बना। फिर मंथन हुआ और जीत का प्रबंधन तय किया गया। हालांकि अंतरकलह आड़े आई। मगर एकतरफा जीत दर्ज की। आइये जानते हैं उपचुनाव में जीतने के लिए भाजपा ने क्या-क्या किया और सुरेंद्र दिलेर की जीत के क्या प्रमुख कारण रहे...
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प्रत्याशी चयन और सहानुभूति फैक्टर
उपचुनाव में जीतने के लिए सबसे पहले प्रत्याशी चयन का सवाल आया। कहने को संगठन की अपनी तैयारी चल रही थी। तमाम दावेदार प्रयासरत थे। सबकी अपनी अपनी खेमेबंदी थी। मगर हाथरस सांसद स्व.राजवीर सिंह दिलेर का उनकी टिकट कटने के कुछ दिन बाद देहांत हो गया। दिलेर परिवार की राजनीतिक विरासत संभालने के लिए उनके पुत्र सुरेंद्र दिलेर ने टिकट आवेदन किया। निर्विवाद और युवा चेहरे के तौर पर दिलेर को सही माना गया। चूंकि खैर सीट अनूप वाल्मीकि के इस्तीफे से रिक्त हुई थी। इसलिए वाल्मीकि समाज से प्रत्याशी को ही सही विकल्प माना गया। साथ में पिता के देहांत के बाद सुरेंद्र को टिकट मिलना सहानुभूति के तौर पर देखा गया। क्षेत्र में यहां तक कहा गया कि दादा-पिता के देहांत के बाद तीसरी पीढ़ी आई है, भाई जिता दो और ये सहानुभूति फैक्टर कारगर हुआ।
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नहीं दिखा जाटलैंड के जाटों में बिखराव
जाट बाहुल्य खैर क्षेत्र की सियासत हमेशा से जाटों के ईद-गिर्द घूमती रही है। लोकसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी के सामने सपा से जिले के जाट नेता प्रत्याशी थे। भाजपा प्रत्याशी से नाराजगी भी एक बड़ा कारण थी और जाटों में बिखराव भाजपा की हार का कारण बना। मगर इस बार ऐसा नहीं दिखा। कहने को सपा ने उपचुनाव में जिले के कद्दावर जाट परिवार की पुत्रवधु को मैदान में उतारा। मगर परिणाम पर गौर करें तो टप्पल के सालपुर, बालमपुर, खैर के अहरौला क्षेत्र को छोड़ दें तो जाट बाहुल्य बूथों पर सपा नहीं जीती। हां, कुछ बूथों पर कांटे के मुकाबले में रही। क्योंकि रालोद भाजपा के साथ है। क्षेत्र के ज्यादातार जाट चेहरे भाजपा के साथ दिखे। इससे साफ है कि जाटों में बिखराव नहीं हुआ। ये भी भाजपा के चुनाव मैनेजमेंट का प्रमुख कारण है।
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सीएम का आक्रामक प्रचार और अंतरकलह पर नसीहत
इस सीट को लेकर मुख्यमंत्री चुनाव की घोषणा के पहले से ही बेहद सक्रिय थे। वे इस छह माह में एक बार चुनाव से पहले और दो बार चुनाव प्रचार के लिए खैर पहुंचे। उनके भाषणों में प्रचार बेहद आक्रामक रहा। कटेंगे तो बंटेंगे नारे पर भी बोले। विकास योजनाएं भी गिनाईं। मुस्लिमों के प्रति रुख स्पष्ट किया। संगठन व सरकार से जुड़े जाट नेताओं को पूरे चुनाव में लगाया। जब अंतरकलह की बात सामने आई तो चुनाव प्रचार के दौरान पहली रैली में तल्ख लहजे में नसीहत तक दे गए। संघ भी अंदरखाने काम पर लगा रहा। संघ के इशारे पर संगठन भी पूरा जोर लगाए रहा। जिले के विधायकों और जिला प्रभारी मंत्री ने सीएम के इशारे के बाद खैर में ही कैंप किया। पूरा चुनाव मैनेजमेंट देखा, जो जीत का एक प्रमुख कारण बना।
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कम मतदान प्रतिशत में बिखराव भी सहायक
इस सीट पर पिछले कई विधानसभा चुनाव के परिणामों पर गौर करें तो अनुसूचितों के सहारे बसपा निकटतम प्रतिद्वंद्वी और कड़ी टक्कर देने वाली पार्टी रही है। यही वजह रही कि इस बार सपा से चुनाव लड़ीं चारू पिछले चुनाव में बसपा से भाजपा के सामने दूसरे स्थान पर रहीं। अबकी मतदान प्रतिशत भी कम रहा। जिसने कुछ चिंताएं बढ़ाईं। मगर सियासी पंडित पहले ही दिन से अनुसूचित वर्ग में बिखराव का अनुमान लगा रहे थे। परिणाम ने इस अनुमान पर मुहर लगा दी। पिछले चुनाव में साठ हजार के पार रही बसपा बीस हजार पर भी नहीं पहुंची। असपा ने बसपा को झटका दिया और अनुसूचित वोट सभी दलों में बंट गया। यह भाजपा के लिए लाभकारी रहा।
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सपा-कांग्रेस में इस सीट पर नहीं दिखी एकजुटता
कहने को देश में इंडिया और प्रदेश में पीडीए गठबंधन एनडीए के सामने लड़ रहा है। उस गठबंधन के तहत सीट सपा के खाते में गई। कांग्रेस का समर्थन रहा। मगर चुनाव प्रचार में कांग्रेस की सक्रियता कम दिखी। स्थानीय नेताओं से लेकर प्रदेश स्तर तक से नेताओं की सक्रियता नहीं दिखी। सपा में भी कुछ नेताओं की दूरी चुनाव प्रचार में दिखी। इसकी चर्चाएं पहले ही दिन से थीं। चुनाव प्रबंधन में पार्टी और प्रत्याशी के बीच समन्वय की खबरें भी समय समय पर आईं। जो भाजपा के लिए लाभकारी रहीं।
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