चाइल्ड पोर्नोग्राफिक डाउनलोड करना, देखना पॉक्सो के तहत है अपराध
प्रभात कुमार नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को महत्वपूर्ण फैसले में कहा है
प्रभात कुमार नई दिल्ली।
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि ‘इंटरनेट पर चाइल्ड बाल पोर्नोग्राफी वीडियो/ तस्वीर डाउनलोड करना और देखना यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) 2012 और सूचना प्रौद्योगिकी कानून के तहत अपराध है। इसके साथ ही, शीर्ष अदालत ने संसद को पॉक्सो कानून में बदलाव लाकर ‘चाइल्ड पोर्नोग्राफी शब्द के इस्तेमाल की जगह ‘बाल यौन शोषण और शोषणकारी सामग्री (सीएसईएएम) करने पर विचार करने का सुझाव दिया।
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की पीठ ने इसके साथ ही, केंद्र सरकार से कहा है कि जब तक कानून में संशोधन नहीं हो जाता है, तब तक अध्यादेश लाकर ‘चाइल्ड पोर्नोग्राफी की जगह ‘बाल यौन शोषण और शोषणकारी सामग्री शब्द इस्तेमाल करने का निर्देश दिया है। पीठ ने मद्रास उच्च न्यायालय के उस फैसले को रद्द करते हुए , यह ऐतिहासिक फैसला दिया है जिसमें कहा गया था कि चाइल्ड पोर्नोग्राफी देखना पॉक्सो के तहत अपराध नहीं है। शीर्ष अदालत ने 200 पन्नों के अपने फैसले में कहा है कि इंटरनेट पर डाउनलोड किए बगैर भी चाइल्ड पोर्नोग्राफी देखना भी पॉक्सो की धारा 15 के तहत ‘ऐसी सामग्री को अपने पास रखने के बराबर माना जाएगा। कानून की धारा 15 चाइल्ड पोर्नोग्राफिक सामग्री को अपने डिवाइस (मोबाइल/ टैब, कंप्यूटर, लैपटॉप व अन्य उपकरण) में संरक्षित करने या उसे अपने पास रखने के अपराध से संबंधित है, जिसका उद्देश्य उसे प्रसारित करना है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उक्त सामग्री को प्रसारित करने के इरादे का अंदाजा, इस बात से लगाया जा सकता है कि संबंधित व्यक्ति सामग्री को डिलीट करने और रिपोर्ट करने में विफल रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ‘बाल यौन शोषण और शोषणकारी सामग्री (सीएसईएएम) बच्चों के मान सम्मान और गरिमा को बहुत कमजोर करता है। पीठ ने कहा है कि सीएसईएम बच्चों को यौन संतुष्टि की वस्तु बना देता है और उनकी मानवता को छीन लेता है और उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। पीठ ने कहा है कि बच्चों को ऐसे माहौल में बड़ा होने का अधिकार है जो उनकी गरिमा का सम्मान करता है और उन्हें नुकसान से बचाता है। पीठ ने फैसले में कहा है कि सीएसईएएम का अस्तित्व और प्रसार सभी बच्चों की गरिमा का अपमान है, न कि सिर्फ सामग्री में दिखाए गए पीड़ितों का। साथ ही कहा है कि यह एक ऐसी संस्कृति को बढ़ावा देता है जिसमें बच्चों को शोषण की वस्तु के रूप में देखा जाता है, न कि उनके अपने अधिकारों और एजेंसी वाले व्यक्तियों के रूप में। पीठ ने इसे अमानवीयकरण को खतरनाक बताते हुए कहा है कि इससे बाल शोषण की व्यापक सामाजिक स्वीकृति हो सकती है, जिससे बच्चों की सुरक्षा और भलाई को और अधिक खतरा हो सकता है। पीठ के कहा है कि बाल यौन शोषण और शोषणकारी सामग्री का अपने पीड़ितों पर प्रभाव विनाशकारी और दूरगामी है, जो उनके मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि इस तरह के जघन्य शोषण के शिकार अक्सर गहरे मनोवैज्ञानिक आघात से गुजरते हैं जो अवसाद, चिंता और अभिघातजन्य तनाव विकार के रूप में प्रकट हो सकता है। सामाजिक कलंक और सम्मान तथा शर्म की गहरी जड़ें जमाए हुए विचारों को रेखांकित करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा है कि पीड़ितों के लिए सामाजिक नतीजे विशेष रूप से गंभीर हैं। कई पीड़ितों को तीव्र सामाजिक कलंक और अलगाव का सामना करना पड़ता है।
शीर्ष अदालत ने 200 पन्नों के अपने फैसले में उदाहरण देकर भी समझाते हुए कहा है कि ‘मान लीजिए कि ‘ए नाम का व्यक्ति नियमित रूप से इंटरनेट पर चाइल्ड पोर्नोग्राफी देखता है, लेकिन कभी भी उसने अपने मोबाइल में डाउनलोड या संरक्षित नहीं करता है। पीठ ने कहा है कि ऐसे में उक्त पोर्न वीडियो को अभी भी ‘ए के कब्जे में माना जाएगा क्योंकि देखते समय वह उक्त सामग्री पर काफी हद तक नियंत्रण रखता है, जिसमें ऐसी सामग्री को साझा करना, हटाना, बड़ा करना, वॉल्यूम बदलना आदि शामिल है, लेकिन इन्हीं तक सीमित नहीं है। इसके अलावा, चूंकि वह स्वयं अपनी इच्छा से ऐसी सामग्री देख रहा है, इसलिए उसे ऐसी सामग्री पर नियंत्रण होने का ज्ञान होना चाहिए।
अज्ञात लिंक पर चाइल्ड पोर्न खुलने पर उसे तुरंत बंद करने पर उक्त सामग्री पर कब्जा नहीं माना जाएगा, लेकिन रिपोर्ट करना जरूरी
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा है कि यदि ‘ए नाम के व्यक्ति को किसी ‘बी नाम के व्यक्ति द्वारा एक अज्ञात लिंक भेजा गया था, जिस पर क्लिक करने पर उसके (ए) फोन पर एक चाइल्ड पोर्नोग्राफिक वीडियो खुल जाता है, तो उसे सामग्री पर नियंत्रण रखने वाला नहीं माना जा सकता क्योंकि, वह इस बात से अनजान था कि उक्त लिंक से क्या खुलेगा। इस प्रकार ए नाम के व्यक्ति को सामग्री पर नियंत्रण रखने वाला नहीं कहा जा सकता। हालांकि, पीठ ने यह भी साफ कर दिया है कि यदि लिंक खुलने के बाद ‘ए नाम का व्यक्ति उचित समय में लिंक बंद करने के बजाय ऐसी सामग्री को देखना जारी रखता है, तो उसे ऐसी सामग्री के कब्जे में माना जाएगा। हालांकि पीठ ने यह भी साफ कर दिया कि सिर्फ लिंक को बंद कर देने से व्यक्ति उत्तरदायी से मुक्त नहीं माना जाएगा। पीठ ने कहा है कि इसके लिए न केवल उक्त व्यक्ति को लिंक बंद करके डिलीट करना होगा बल्कि संबंधित/ निर्दिष्ट अधिकारी को इसकी जानकारी देने के बाद ही उत्तरदायित्व से मुक्त माना जाएगा।
रद्द किया मद्रास उच्च न्यायालय का फैसला, आरोपी पर सत्र न्यायालय में चलेगा मुकदमा
सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाले गैर सरकारी संगठन ‘जस्ट राइट फॉर चिल्ड्रेन एलायंस और ‘बचपन बचाओ आंदोलन की ओर से दाखिल अपीलों का निपटारा करते हुए यह फैसला दिया है। उच्च न्यायालय ने इसी साल 11 जनवरी को फैसला सुनाते हुए कहा था कि ‘अपने मोबाइल फोन पर बच्चों से संबंधित अश्लील सामग्री डाउनलोड करने को पॉक्सो के तहत अपराध मानने से इनकार कर दिया था। साथ ही इस मामले में आरोपी युवक के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया था। जस्टिस जेबी पारदीवाला ने फैसला सुनाते हुए कहा कि ‘उच्च न्यायालय ने मामले में फैसला देते समय गलती की है जो कि निंदनीय है। उच्च न्यायालय ने आरोपी के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द करते हुए कहा कि चाइल्ड पोर्नोग्राफी को डाउनलोड करना और देखना, पॉक्सो के साथ -साथ सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत अपराध नहीं है। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा था कि आजकल बच्चे पोर्नोग्राफी देखने के गंभीर मुद्दे से जूझ रहे हैं और उन्हें दंडित करने के बजाय, समाज को उन्हें शिक्षित करने के लिए ‘पर्याप्त परिपक्व होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी एस. हरीश मामले में आपराधिक कार्यवाही को बहाल करते हुए कहा कि पीठ ने कहा कि सत्र न्यायालय अब मामले को नए सिरे से देखेगा। याचिकाकर्ता संगठनों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता एच एस फुल्का पीठ को बताया था कि उच्च न्यायालय का फैसला पॉक्सो कानून और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के प्रावधानों के खिलाफ है।
पश्चिमी देशों की अवधारण नहीं है यौन शिक्षा- सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि यौन शिक्षा पश्चिमी देशों की अवधारण नहीं है। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में ‘समाज में प्रचलित उस आम धारणा को गलत बताया है जो यह समझता है कि ‘यौन शिक्षा पश्चिमी देशों की अवधारणा है जो पारंपरिक भारतीय मूल्यों के साथ मेल नहीं खाती। शीर्ष अदालत ने भारत में यौन शिक्षा को लेकर फैली गलत धारणाओं के बारे में चर्चा करते हुए यह टिप्पणी की है।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की पीठ ने कहा है कि ‘इस अवधारणा के चलते विभिन्न राज्य सरकारों ने स्कूलों में यौन शिक्षा का विरोध किया है, जिसके परिणामस्वरूप कुछ राज्यों के स्कूलों में इसे (यौन शिक्षा) पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। फैसले में कहा गया है कि ‘इस प्रकार का विरोध व्यापक और प्रभावी यौन स्वास्थ्य कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में बाधा डालता है, जिससे कई किशोर सटीक जानकारी से वंचित रह जाते हैं। यही कारण है कि किशोर और युवा वयस्क इंटरनेट की ओर रुख करते हैं, जहां उन्हें बिना निगरानी और बिना फिल्टर की गई जानकारी तक पहुंच मिलती है, जो अक्सर भ्रामक होती है और अस्वस्थ यौन व्यवहार के बीज बो सकती है। पीठ ने कहा है कि यौन शिक्षा पश्चिमी अवधारणा नहीं। साथ ही कहा है कि यह गलत धारणा है कि यौन शिक्षा युवाओं में अनैतिकता को बढ़ावा देती है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इसके अतिरिक्त, एक गलत धारणा यह भी है कि यौन शिक्षा, सिर्फ प्रजनन के जैविक पहलुओं के बारे में बताती है। पीठ ने कहा है कि प्रभावी यौन शिक्षा में सहमति, स्वस्थ संबंध, लैंगिक समानता और विविधता के प्रति सम्मान सहित कई विषय शामिल हैं। यौन हिंसा को कम करने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए इन मुद्दों को निदान करना बेहद महत्वपूर्ण है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इनमें से कुछ चुनौतियों के बावजूद, भारत में सफल यौन शिक्षा कार्यक्रम हैं। पीठ ने झारखंड सरकार के उड़ान कार्यक्रम का उदाहरण दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस कार्यक्रम की सफलता प्रतिरोध पर काबू पाने और यौन शिक्षा के लिए एक सहायक वातावरण बनाने में सामुदायिक भागीदारी, पारदर्शिता और सरकारी सहायता के महत्व को उजागर करती है। पीठ ने कहा है कि ‘भारत में, यौन शिक्षा के बारे में व्यापक स्तर पर गलत धारणाएं फैली हैं और इसके सीमित कार्यान्वयन और प्रभावशीलता में योगदान करती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि माता-पिता और शिक्षकों सहित कई लोग रूढ़िवादी विचार रखते हैं कि सेक्स पर चर्चा करना अनुचित, अनैतिक या शर्मनाक, सामाजिक कलंक समझते हैं और यौन स्वास्थ्य के बारे में खुलकर बात करने में अनिच्छा पैदा करता है, जिससे किशोरों के बीच ज्ञान का एक महत्वपूर्ण अंतर पैदा होता है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सकारात्मक यौन शिक्षा कामुकता, सहमति और सम्मानजनक संबंधों के बारे में सटीक, आयु-उपयुक्त जानकारी प्रदान करने पर केंद्रित है। पीठ ने कहा है कि शोध से संकेत मिलता है कि व्यापक यौन शिक्षा जोखिम भरे यौन व्यवहारों को काफी कम कर सकती है और लोगों के ज्ञान बढ़ाने के साथ स्वस्थ निर्णय लेने में सक्षम बना सकती है। पीठ ने कहा है कि भारत में किए गए शोध ने व्यापक यौन शिक्षा कार्यक्रमों की आवश्यकता को दर्शाया है। महाराष्ट्र में 900 से अधिक किशोरों पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि प्रजनन और यौन स्वास्थ्य पर वैज्ञानिक साहित्य से अवगत नहीं होने वाले छात्रों में यौन संबंध बनाने की शुरुआत जल्दी करने की संभावना अधिक थी।
इसके अलावा, पीठ ने फैसले में कहा है कि सकारात्मक यौन शिक्षा कामुकता और रिश्तों के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण को बढ़ावा देती है, जो अक्सर बाल पोर्नोग्राफी के उपभोग से जुड़ी विकृत धारणाओं का प्रतिकार कर सकती है। पीठ ने कहा है कि यह दूसरों के लिए अधिक सहानुभूति और सम्मान को बढ़ावा देने में भी मदद कर सकती है, जिससे शोषणकारी व्यवहार में शामिल होने की संभावना कम हो जाती है।
‘बाल यौन शोषण और शोषणकारी सामग्री देखने वाले व्यक्ति में बढ़ सकती है बाल शोषण के कृत्यों में शामिल होने की इच्छा
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जो लोग ऐसी ‘बाल यौन शोषण और शोषणकारी सामग्री सामग्री को देखता है, उनमें बाल शोषण के और अधिक कृत्यों में शामिल होने की इच्छा बढ़ सकती है। पीठ ने कहा है कि ‘बाल यौन शोषण और शोषणकारी सामग्री देखने से व्यक्ति बाल शोषण की भयावहता के प्रति असंवेदनशील हो सकता है, जिससे वे शोषण के अधिक चरम रूपों की तलाश कर सकते हैं या यहां तक कि खुद भी दुर्व्यवहार के कृत्य कर सकते हैं। पीठ ने इसके आधार पर निष्कर्ष निकालते हुए कहा कि ‘बाल यौन शोषण की गंभीरता और दूरगामी परिणामों को देखते हुए, ‘बाल यौन शोषण और शोषणकारी सामग्री बनाना, प्रसार करना और उपभोग करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करना स्पष्ट कानूनी और नैतिक अनिवार्यता है। इसमें सीएसईएएम में शामिल लोगों के लिए न केवल आपराधिक दंड शामिल है, बल्कि शिक्षा और जागरूकता अभियान जैसे निवारक उपाय भी शामिल हैं। पीठ ने कहा है कि कानून मजबूत होने चाहिए और उन्हें सख्ती से लागू किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाया जाए और भविष्य में बच्चों को होने वाले नुकसान से बचाया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ऐसे मामलों में किसी भी तरह की नरमी बरतने से बचना चाहिए।
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