मॉक ड्रिल सुनकर पुरानी यादें हो गई ताजा
- हर नमाज के बाद झोली फैलाकर पाकिस्तान को कोसती थी मां: फिरोज बख्त अहमद

राजधानी में मॉक ड्रिल को लेकर कुछ लोगों में जहां उत्सुकता है वहीं कुछ लोगों के जेहन में अतीत की यादें ताजा हो गई हैं। अपने को सनातनी मुस्लिम कहने वाले पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान के निवासी और मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के पूर्व चांसलर फिरोज बख्त अहमद का कहना है कि सन 1965 के युद्ध में वे मात्र पांच वर्ष के थे और और जब व 1971 के युद्ध में राजधानी में भी बंकर बनाए गए थे। 1971 में आतंक या भय उतना नहीं था जितना 1965 में था। उन्होंने बताया कि मैं छोटा था लेकिन ब्लैक आउट तब भी होता था।
उसका अलग अलग समय था। कभी शाम 7 बजे से 10 बजे तक कभी उसे बढ़ाकर ढाई बजे रात तक कर दिया जाता था, जिसके लिए सायरन बजता था और हम सब अपने घरों व कार्यालयों की बत्तियां और मोम बत्तियां गुल कर देते थे। दिल्ली में रात के समय ब्लैकआउट लागू किया जाता था ताकि पाकिस्तानी वायुसेना के विमानों को शहर का स्थान न पता चले। मुझे याद है कि मेरी मां, नाज़ुक जहां बेगम, झोलियां फैला कर पाकिस्तान को हर नमाज के बाद कोसती थीं कि वह नेस्तनाबूद हो जाए! बख़्त ने बताया कि सड़कें और इमारतें अंधेरे में रखी जाती थीं, और केवल आवश्यक सार्वजनिक रोशनी का उपयोग होता था। शहर में हवाई हमले की चेतावनी के लिए सायरन लगाए गए थे। हमले की आशंका होने पर लोग बंकरों या सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए तैयार रहते थे। यह अलग बात है कि पाकिस्तानी फाइटर जैट इतने सक्षम थे ही नहीं कि दिल्ली तक आएं, मगर पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी ने तैयारी पूरी का रखी थी। संवेदनशील क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को हवाई हमले के दौरान बत्ती बंद करने और सुरक्षित स्थानों पर जाने का प्रशिक्षण दिया गया था। राजधानी में उर्दू का दैनिक अखबार अल-जमीयत था और उसमें यह खबर आई थी कि पुरानी दिल्ली के एंग्लो अरेबिक स्कूल और पास के एक कॉरपोरेशन स्टेडियम में बंकर खोदे गए हैं। इस सूचना से लोगों के बीच दहशत का माहौल था। यह इसलिए था कि यदि कहीं किसी तरह का हवाई हमला होता है तो लोग बंकर में छिप सकते हैं, मगर फसादी पाकिस्तान को जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा। ------------ पार्क में बने थे बंकर, छिपने की दी गई थी ट्रेनिंग भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहे तनाव के बीच 68 वर्षीय गुलशन कुमार 1971 के दिनों की याद करने लगते हैं। पुरानी दिल्ली के तिलक बाजार इलाके में रहने वाले गुलशन कुमार पेशे से सरकारी ठेकेदार हैं। वह बताते हैं कि उनका परिवार 1947 में पेशावर से तिलक बाजार में आकर रहने लगा। 1971 दिसंबर में करीब 14 साल के थे। इस बीच भारत-पाक के बीच तनाव चरम सीमा पर पहुंच गया था और लड़ाई कभी भी छिड़ सकती थी। वह बताते हैं कि युद्ध की तैयारियों के लिए प्रशासन द्वारा पुरानी दिल्ली के सुशीला मेहता पार्क और कम्पनी बाग में बंकर बनाए गये थे। यहीं पर सभी को छिपने की ट्रेनिंग भी दी गई थी। इसके अलावा लोगों को मॉक ड्रिल के माध्यम से प्रशिक्षण भी दिया जा रहा था। खासतौर पर बम बारी होने पर बम को निष्क्रिय कैसे करना है और हमले के दौरान क्या करना है। गुलशन कुमार कहते हैं कि इन सबका प्रभाव दिनचर्या पर भी पड़ रहा था। एक तरह से अजीब से डर का माहौल था। शाम होने से पहले सारा काम खत्म कर घर में अंधेरा करना होता था। इसके अलावा हर मोहल्ले में रात को चौकीदारी करने के लिए एक दल घूमता था। चौकीदारी टीम के समक्ष यह सुनिश्चित करते थे कि कहीं कोई अजनबी तो नहीं घूम रहा या फिर किसी घर से प्रकाश तो नहीं आ रहा है। गुलशन कुमार कहते हैं कि मोहल्ले की समिति दूसरे मोहल्ले की समिति से सम्पर्क में रहती थी। इसके साथ ही यह सुनिश्चित किया गया था कि कहीं कोई पाकिस्तानी नागरिक तो नहीं है। वह कहते हैं कि हिंदू-मुस्लिम मिश्रित आबादी होने के बाद भी सामाजिक सद्भाव था और देश के लिए सभी मिलजुल कर खड़े थे। वह कहते हैं कि पुरानी दिल्ली में बाजार खुलते थे लेकिन शाम होने से पहले बंद करना अनिवार्य था। -------------- चूल्हा ढककर दिन छिपने से पहले बनाते थे भोजन 63 वर्षीय संतोष शर्मा को 1971 में भारत और बांग्लादेश की जंग हर वाकया आज तक याद है। संतोष दिल्ली में लाजपत नगर के पास स्थित गढ़ी गांव की रहने वाली हैं। वे बताती हैं कि तब उनके गांव के आसपास दूर-दूर तक आबादी नहीं हुआ करती थी। पूरा इलाका छोटी-छोटी पहाड़ियों और पेड़ों से घिरा हुआ था। सुरक्षाबलों से जुड़े कुछ लोग गांव के लोगों को समझाने आते थे। वे बताते थे कि अगर ऊपर से कोई हवाई जहाज गुजरता है तो क्या करना है। गांव के पास में ही छिपने के लिए बड़े-बड़े गड्ढे भी खोदे गए थे। संतोष ने बताया कि उस दौरान दिन छिपने से पहले ही भोजन बना लिया था जाता था ताकि दुश्मनों के जहाजों को ऊपर से अंधेरे में जलता चूल्हा दिखाई न दे। साथ ही, शाम के वक्त चूल्हे को ढककर भोजना पकाया जाता था ताकि धुआं भी न नजर ना आए। शाम होते दूर से सायरन बजने की आवाज आती थी। यमुना के पास दिखती थी रोशनी : दिल्ली के कई बुजुर्गों ने बताया कि उस वक्त दुश्मनों को चकमा देने के लिए रात में यमुना नदी के नजदीक लकड़ियां जला दी जाती थीं। ऐसा इसलिए किया जाता था कि अगर दुश्मनों के जंगी जहाज दिल्ली के आसपास आ भी जाएं तो गलती से खुले इलाके में बम गिरा दें।
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