भारतीय जनमानस में आस्था का प्रतीक है कुम्भ : डॉ. विमलेन्दु
कुम्भ पर्व भारत की सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक है। इस पर्व का आयोजन हर बारह वर्षों में होता है, जिसमें तीर्थ यात्री गंगा स्नान एवं संतों से मिलते हैं। कुम्भ का महत्व आध्यात्मिकता, पौराणिक कथाएँ और...
नई दिल्ली। भारतवर्ष सांस्कृतिक बहुलता के लिए प्रसिद्ध है। सांस्कृतिक वैविध्य ही इस देश की आत्मा है। भौगोलिक विविधता के बावजूद भी परस्पर सांस्कृतिक सरोकार इस देश को अक्षुण बनाए हुए है। यहां एक तरफ काशी में शिवरात्रि पर्व, अयोध्या में रामजन्मोत्सव, मथुरा में कृष्णजन्माष्टमी, प्रसिद्ध है। इसी तरह हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जयिनी एवं नासिक में कुम्भ प्रसिद्ध है। कुम्भ शब्द का अर्थ होता है कलश। डॉ. विमलेन्दु कुमार त्रिपाठी बताते हैं कि कुम्भ का सनातन परम्परा में विशेष महत्त्व है। इस कुम्भ पर्व में खगोल- विज्ञान, ज्योतिष, आध्यात्मिक, पौराणिक, सामाजिक, सांस्कृतिक मान्यताओं के साथ आनुष्ठानिक प्रक्रियायें अंगीकृत होती हैं। कुम्भ में पूरे देश से विविध पंथ, सम्प्रदाय, धर्म के साधु-महात्माओं के साथ ही सनातनी लोगों का जनसमुदाय एकत्रित होता है। कुम्भ के विषय में अनेक रोचक एवं वैज्ञानिक प्रसंग पौराणिक ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। एक कथा के अनुसार दैत्यों एवं देवताओं में समुद्र मन्थन से प्राप्त अमृत कुम्भ को केन्द्रित कर है। अमृत कलश की प्राप्ति हेतु देव-दानवों में बारह दिनों तक नैरन्तर्य के साथ युद्ध होता रहा। इस युद्ध में पृथ्वी के जिन चार स्थानों पर कलश से अमृत बूँदे गिरी थीं। वहीं पर कुम्भ का आयोजन होता है। युद्ध शान्त करने के लिए भगवान् विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सभी को अमृतपान करा दिया। इस रूप में देव-दानवों के युद्ध की समाप्ति हुई।
कुम्भ के स्नान से पाप-ताप, दु:ख से निवृत्ति तथा ईश्वर प्राप्ति की योग्यता आती है। एक व्युत्पत्ति के अनुसार, कुं=कुत्सितम्,उम्भति=दूरयति अभिप्राय यह है कि जो कुत्सित, पापमय कुविचार को दूर करे । कुम्भ के विषय में स्कन्दपुराण में मान्यता है कि कुम्भ के स्नान से सहस्रों अश्वमेध -यज्ञों, सैकड़ो वाजपेय -यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से भी अधिक पुण्य अधिगम होता है। कुम्भ के स्नान से मुख्यतया तीर्थ यात्रियों को दो लाभ प्राप्त होते हैं। गंगा स्नान एवं सन्तसमागम।
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च।
लक्षं परिक्रमा पृथ्व्या:कुम्भ स्नानेन तत्फलम्।।
इस वर्ष कुम्भपर्व तीर्थराज प्रयाग में आयोजित हो रहा है।
माघे वृषगते जीवे मकरे चन्द्र भास्करे।
अमायां च तदा- योग:कुम्भाख्यस्तीर्थनायके।।
माघ मास के अमावस्या तिथि को मकर राशि में शशि दिवाकर (चन्द्र -सूर्य) के वृहस्पति के वृष राशि में होने से तीर्थराज प्रयाग में कुम्भ का आयोजन होता है। हरिद्वार, प्रयाग, अवन्तिका एवं नासिक में होने वाले कुम्भ में मुख्य भूमिका देवगुरु बृहस्पति की है। क्योंकि बृहस्पति का एक राशि का भोगकाल एक वर्ष का होता है। इसलिए प्रत्येक स्थल पर बारह वर्ष में कुम्भ -पर्व आता है। प्रयाग के कुम्भ का विशेष महत्त्व प्राप्त होता है। इस क्षेत्र में अनेक देवताओं की उपस्थिति का उल्लेख पौराणिक कथाओं में मिलता है। जैसे-
त्रिवेणीं माधवं सोमं भारद्वाजं च वासुकिम्।
वन्देऽक्षयवटं शेषं प्रयागं तीर्थनायकम्।।
अर्थात् प्रयाग तीर्थ के मुख्य देवता त्रिवेणी, माधव, सोमेश्वर महादेव, भारद्वाज मुनि, वासुकिनाग,अक्षयवट, शेषनाग, आदि उल्लिखित होते हैं। प्रयागतीर्थ के महात्म्य को प्रतिपादित करते हुए कल्पवास को भी प्रमुखता दी जाती है।
वस्तुत:कुम्भ का अमृत जल बारह स्थलों पर गिरा था। परन्तु आठ स्थल देवलोक में होने से वहाँ पर मर्त्यलोक का गमन असम्भव होने से देवलोक के आठस्थलों पर कुम्भ आयोजित नहीं होता है।शेष चार स्थल विशेष पर ही कुम्भ लगता है।
इस वर्ष १३जनवरी से २६ फरवरी तक कुम्भ मेला हो रहा है। जिसमें मुख्यतया
पौषपूर्णिमा-१३ जनवरी २०२५,
मकरसंक्रांति-१४जनवरी २०२५
मौनी अमावस्या २९ जनवरी २०२५
बसन्त पंचमी ३फरवरी २०२५
माघ पूर्णिमा १२फरवरी२०२५
महाशिवरात्रि २६फरवरी २०२५ को मुख्य स्नान विशेष फलप्रद है।
आध्यात्मिक दृष्टि से कुम्भ पर विचार करने से ज्ञात होता है कि कुम्भ को एक रूपक के रूप में चित्रित किया जा सकता है। कुम्भ में एकत्रित तीर्थ यात्री समुदाय समुद्र है। उस समुदाय में विचारों का मन्थन ही समुद्र मन्थन है।उस समुद्र मन्थन में ही भगवान् विष्णु का अवतार धन्वन्तरि है। मानव शरीर में तमोगुण प्रधान इन्द्रियाँ असुर हैं, उन पर नियन्त्रण से जब सत्त्व प्रधान होती हैं तो देवत्व को प्राप्त करती हैं। शरीर के अन्दर तमोगुण एवं सत्वगुण का संघर्ष ही देवासुर संग्राम है। यह संघर्ष बारह वर्षों तक रहता है। इसके अनन्तर ही तमोगुण पर नियंत्रण स्थिति प्राप्त होती है। सम्भवतः इसलिए पुराणों में कुम्भ बारह स्थलों पर होता है। आध्यात्मिक रूप से शरीर के भीतर पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन तथा एक बुद्धि को माना गया है।
आज महाकुम्भ शब्द लोकप्रचलित या व्यवहार में खूब बढ चढकर प्रयुक्त होने लगा है। सम्भवतः भौतिक रूप में सरकार की तैयारियों को यह रेखांकित करने के लिए हो। इसका कोई शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध नहीं है। सरल भाषा में भारतीय आर्ष साहित्य में किन्हीं स्थल पर महाकुम्भ शब्द का प्रयोग या उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। कुम्भ शब्द ही सभी जगह उल्लिखित है। यह पर्व भारतीयों के मानस पटल पर आस्था के साथ ही सनातनी परम्परा को जानने, समझने के साथ ही कुछ क्षण ईश्वर के प्रति आराधना का सुअवसर प्रदान करता है। जिससे भौतिकता की आपाधापी से त्रस्त मानव आधि, व्याधि से मुक्त हो स्वयं को समझ सके। यह पर्व स्वयं को स्वयं में समाहित करने का है।
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