कौन थे ईरान से भारत आए ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, अजमेर में बन गई जिनकी दरगाह
- ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ईरान से भारत आए थे। उन्होंने भारत में सूफीवादक का विस्तार किया। उनकी शिष्य परंपरा में कई और भी सूफी हुए जिनकी दरगाह दिल्ली और पंजाब में स्थित है।
उत्तर प्रदेश के संभल में मस्जिद में हिंदू मंदिर के दावे के बाद कोर्ट के आदेश पर सर्वे करवाया गया। इस दौरान हिंसा में कई लोगों की मौत हो गई। इसके बाद राजस्थान के अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर भी सवाल उठने लगे। निचली अदालत ने हिंदू पक्ष की एक याचिका स्वीकार कर ली जिसमें दावा किया गया है कि दरगाह की जगह कभी हिंदू मंदिर हुआ करता था। हिंदू सेना के अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने यह याचिका दायर की है।
कौन थे ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती
ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती एक सुन्नी मुस्लिम दार्शनिक, विद्वान और संत थे जो कि फारस यानी वर्तमान के ईरान से भारत आए थे। उन्हें सुल्तान-ए-हिंद और गरीब नवाज के नाम से भी प्रसिद्धि हासिल हुई। अजमेर में उनकी ही खानकाह है। यह इंडो-इस्लामिक वास्तुकला का अद्भुत नमूना है।
मोईनुद्दीन का जन्म 1141 में पर्शिया के सिस्तान में हुआ था जो कि आज के ईरान में अफगानिस्तानी सीमा के पास स्थित है। उन्हें पैगंबर मोहम्मद साहब का वंशज माना जाता है। 14 साल की उम्र में ही वह अनाथ हो गए थे। अचनाक एक दिन उनकी मुलाकात इब्राहिम कंदोजी से हुई जो कि एक फकीर थे। मोईनुद्दीन पर लिखी गई किताब मेहरू जफर के मुताबिक मोईनुद्दीन ने जब कंदाजी से पूछा कि जीवन में अकेलेपन, मौत और तबाही के अलावा भी कुछ और है। उन्होंने जवाब दिया कि हर इंसान को सच की तलाश करने की कोशिश करनी चाहिए।
कहा जाता है कि इसके बाद ही वह सच की तलाश में निकल पड़े। 20 साल की उम्र में वह दर्शन, व्याकरण और अध्यात्म का अध्ययन करने बुखारा और समरकंद चले गए। इसके बाद अफगानिस्तान के हेरात में उनकी मुलाकात ख्वाजा उस्मान हरूनी से हुई। उनके ही पास रहकर उन्होंने अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने यहीं से चिश्ती सिलसिले की शुरुआत की। अफगानिस्तान में कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी उनके पहले अनुयायी बने। कुतुबुद्दीन के साथ वह मुल्तान गए और यहां पांच साल तक रुके। इस दौरान वह हिंदु विद्वानों से मिले और संस्कृत की भी शिक्षा ली। इसके बाद लाहौर में अली हुजवीरी की दरगाह पर पहुंचे।
लाहौर से ही मोईनुद्दीन दिल्ली और फिर अजमेर आ गए। उस समय अजमेर चौहान साम्राज्य की राजधानी थी। उस समय उनकी उम्र करीब 50 की रही होगी। पृथ्वीराज तृतीय का शासन था और उनका राज्य फल फूल रहा ता। तभी मोहम्मद गोरी ने आक्रमण किया। तराइन में दूसरे युद्ध में 1192 में पृथ्वीराज की हार हुई। इसके बाद मोहम्मद गोरी की सेना ने कत्लेआम शुरू कर दिया।
अजमेर की हालत देखकर मोईनुद्दीन चिश्ती ने लोगों की सेवा के लिए यहीं ठिकाना बनाने का फैसला कर लिया। यहां उनकी मुलाकात बीबी उम्मातुल्ला से हुई। उन्होंने यहीं मिट्टी का एक घर बनाया और लोगों की सेवा करने लगे। धीरे-धीरे यह गरीबों, असहायों और अनाथों कासहारा हो गया। लोग यहां शांति की तलाश में भी आने लगे। जफर के मुताबिक यहीं से उन्हें गरीब नवाज की संज्ञा मिली।
यहां रोज ही लंगर चलता था जो कि सभी के लिए खुला रहता था। बिना धर्म के भेदभाव के सबका यहां स्वागत किया जाता था। वह यहां हिंदू संतों से भी मिले। हालांकि मोईनुद्दीन चिश्ती एकात्मवाद का प्रचार करते थे। वह बराबरी, आलौकिक प्रेम और मानवता की बात करते थे। चिश्ती सिलसिला 10वीं शताब्दी में हेरात के पास ही शुरू हुआ था। मोईनुद्दीन और उनके शिष्यों ने इसे विस्तार दिया। कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी इल्तुतमिश के गुरु थे। काकी के नाम पर ही कुतुब मीनार बनी। उनकी दरगाह मेहरौली में है।
काकी के शिष्य बाबा फरीद पंजदाब की तरफ गए। निजामुद्दीन औलिया भी इसी परंपरा के सूफी संत थे। उनकी दरगाह दिल्ली में है। मुगल शासकों में अकबार पर भी उनका प्रभाव था। अकबर ने उनकी दरगाहों का सुंदरीकरण करवाया। इसके बाद यहां बड़ी संख्या में लोग आने लगे। मुगल काल में ही अजमेर की दरगाह काफी प्रसिद्ध हो गई। उनकी दरगाह पर तिजारत करने मोहम्मद बिन तुगलक, हुमायू, शेरशाह सूरी, अकबर और दाराशिकोह से लेकर औरंगजेब तक पहुंचते थे।