'बाहर निकलना मुश्किल था, नहीं लड़ पाती चुनाव'; पंचायत स्तर पर आरक्षण के 3 दशक, कितनी सशक्त हुईं महिलाएं
मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले के सालखेड़ा गांव में ग्राम परिषद सदस्य अनीता का सफर सशक्तिकरण का प्रतीक है। अनीता ने कहा, 'पहले इस गांव में महिलाओं को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था।'
महिला आरक्षण बिल संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) से पास हो चुका है। हालांकि, अभी इसे राष्ट्रपति की मंजूरी मिलनी बाकी है। इस बीच, नारी शक्ति वंदन अधिनियम के नाम से पेश विधेयक को लेकर लगातार ये सवाल उठते रहे कि आखिर यह क्यों जरूरी है? इससे पहले पंचायत स्तर पर जो आरक्षण दिया गया, उसने महिलाओं को कितना सशक्त बनाया है? हम आपको ऐसे सवालों का जवाब विस्तार से दे रहे हैं। छत्तीसगढ़ के दुर्ग में रिसामा पंचायत की सरपंच का नाम गीता महानंद है। उन्होंने कहा कि अगर पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए आरक्षण नहीं होता तो वह कभी भी ग्रामीण चुनाव लड़ने के लिए आगे नहीं आतीं। महानंद एक गृहिणी हैं, जो महिलाओं के लिए सीट आरक्षित होने के बाद राजनीति में आईं। उन्होंने कहा कि आरक्षण ने न केवल उन्हें निर्णय लेने के लिए सशक्त बनाया, बल्कि समाज के लिए और अधिक करने के लिए उनके आत्मविश्वास को भी बढ़ाया।
पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण शुरू होने के बाद से तीन दशक बीत चुके हैं। इस दौरान देश ने महिलाओं को जमीनी स्तर पर राजनीतिक क्षेत्र में नेतृत्व करने और उत्कृष्टता हासिल करने के लिए लैंगिक बाधाओं को तोड़ते देखा है। साल 1992 में पी वी नरसिंह राव सरकार ने 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया था, जिसमें पंचायती राज संस्थानों में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करना जरूरी किया गया। उसके तीन दशक से अधिक समय के बाद 128वां संविधान संशोधन विधेयक को राजनीति में लैंगिक समानता हासिल करने की दिशा में एक और महत्वपूर्ण कदम के तौर पर देखा जाता है। इस विधेयक को नारी शक्ति वंदन अधिनियम नाम दिया गया है।
'शुरुआत में विरोध का करना पड़ा सामना'
सरपंच बनने के बाद महानंद ने अपनी पंचायत में स्वच्छता में सुधार के लिए सक्रिय कदम उठाए। उन्होंने कहा, 'हमें अपने स्वच्छता प्रयासों के लिए 20 लाख रुपये का ग्रांट मिला है। हमने सभी संस्थानों में स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया। हमने स्वच्छ भारत पहल के तहत शौचालयों का निर्माण किया और महिलाओं को रोजगार दिया, उन्हें पंचायत निधि से भुगतान किया। हमने स्वच्छता कर भी लगाया।' शुरुआत में उन्हें कुछ विरोध का सामना करना पड़ा, क्योंकि लोगों को नई पहल के बारे में संदेह था। महानंद ने कहा, 'शुरुआत में कुछ असहमतियां थीं। हमने बड़ों को समझाने के लिए बच्चों का सहयोग लिया और वे अब कूड़ा-कचरा के डिस्पोजल के बारे में बात करते हैं। हम फिलहाल लाइब्रेरी बनाने की प्रक्रिया में हैं।'
'महिलाओं को अपने अधिकारों पर देना होगा जोर'
राजनीति में अपनी एंट्री के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा, 'गांव वालों ने सुझाव दिया कि मैं पढ़ी-लिखी हूं, इसलिए मुझे चुनाव लड़ना चाहिए। मैं राजनीति में नई थी और मेरे परिवार में कोई भी इस क्षेत्र में नहीं था। शुरुआत में मेरे पति ने एक सलाहकार के रूप में कार्य किया।' महिला आरक्षण विधेयक के संसद में पारित होने के बारे में महानंद ने कहा, 'यह पहले ही हो जाना चाहिए था। हम समानता की बात करते हैं, लेकिन इसे कब लागू किया जाएगा, इस पर अभी भी कोई स्पष्टता नहीं है।' यह पूछे जाने पर कि कुछ लोगों ने चिंता व्यक्त की है कि विधेयक अपने वर्तमान स्वरूप में राजनीतिक परिवारों की महिलाओं को हावी होने दे सकता है, जिससे उन लोगों के लिए बहुत कम जगह बचेगी जिन्हें वास्तव में अवसर की आवश्यकता है। उन्होंने कहा, 'ऐसा हो सकता है, लेकिन महिलाओं को आगे आना चाहिए और अपने अधिकारों पर जोर देना चाहिए।'
'आरक्षण से मुझे सशक्तिकरण मिला'
राजस्थान के एक दूरदराज के गांव की महिला सरपंच ने कहा, 'आरक्षण के माध्यम से मुझे सशक्तिकरण मिला।' चुनाव मैदान में उतरने पर उन्हें घरेलू दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा। उन्होंने कहा, 'मेरे पति ने मुझे नियंत्रित करने की कोशिश की, लेकिन गांव की महिलाएं मेरे समर्थन में आ गईं। धीरे-धीरे यहां तक कि मेरे अपने परिवार ने भी मेरा सम्मान करना शुरू कर दिया। उन्हें एहसास हुआ कि मैं बस अपने गांव की स्थिति में सुधार करना चाहती हूं।' उन्होंने कहा कि जैसे-जैसे मेरे बच्चे बड़े हुए उन्होंने भी मेरा समर्थन करना शुरू कर दिया। अगर आरक्षण नहीं होता तो मैं कभी भी अपने घर से बाहर निकलने और चुनाव लड़ने के बारे में नहीं सोचती।'
'घर से बाहर नहीं निकलने देते थे पुरुष'
मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले के सालखेड़ा गांव में ग्राम परिषद सदस्य अनीता का सफर सशक्तिकरण का प्रतीक है। अनीता ने कहा, 'इस छोटे से गांव में महिलाओं को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। पुरुष उन्हें बाहर नहीं निकलने देते थे। अगर आरक्षण नहीं होता तो एक महिला के लिए चुनाव लड़ना अविश्वसनीय रूप से कठिन होता। जब मैं सदस्य बनी तो एक NGO (गैर सरकारी संस्था) ने सिखाया कि हमें अपने विचारों को लोगों तक कैसे पहुंचाना है और बदलाव लाना है। मैं अपनी पंचायत में महिलाओं को आगे बढ़ने और अधिक जिम्मेदारियां लेने के लिए प्रोत्साहित करती हूं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि उन्हें बड़ी भूमिका निभानी चाहिए।' जमीनी स्तर के संगठन 'ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया' से जुड़ी सीमा भास्करन ने कहा कि पंचायत में महिला आरक्षण ने महिलाओं के लिए राजनीतिक स्थान खोल दिया है। उन्होंने कहा, 'जिन राज्यों में पंचायती राज में आरक्षण को महिला निर्वाचित प्रतिनिधियों की क्षमता निर्माण के साथ जोड़ा गया है, वहां बदलाव प्रभावशाली रहा है।'