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OPINION: हिंदू कोड बिल तो लाए पर पसमांदा के हितों पर खामोश ही रहे जवाहरलाल नेहरू

  • श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो नेहरू सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा था कि सरकार के पास मुस्लिम समाज में सामाजिक सुधार का साहस ही नहीं है। इसके उलट उस समय के कांग्रेसी अशराफ मुस्लिम नेताओं तथा जमीअत उलेमा-ए-हिन्द से जुड़े मौलानाओं ने मुस्लिम समाज में सुधार और सामाजिक न्याय का पुरजोर विरोध किया।

Surya Prakash लाइव हिन्दुस्तान, नई दिल्लीThu, 14 Nov 2024 04:38 PM
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देश के बंटवारे के बाद नए भारत के निर्माण की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का नेतृत्व जवाहरलाल नेहरू को मिला। इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि उन्होंने उपनिवेशवाद के विरोध को विदेश नीति का आधार बनाया। इसके साथ ही तटस्थ गुटनिरपेक्षता की नीति को वैश्विक स्तर पर स्थापित कर न सिर्फ भारत की एक सुदृढ़ छवि पेश की बल्कि दो भागों में बंटे विश्व को एक नई राह दिखाई। गोवा को विदेशी नियंत्रण से मुक्त करा भारत में विलय करवाना उनकी विदेश नीति की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रही। देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति जनजागरूकता अभियान का महत्वपूर्ण प्रयास, भारत को आधुनिक युग में आगे ले जाने के लिए वैज्ञानिक खोज और तकनीकी विकास के प्रोत्साहन की नीति नेहरू को राष्ट्र निर्माता की श्रेणी में ला खड़ा करती है।

उन्होंने लोकतांत्रिक समाजवाद, एकता और धर्मनिरपेक्षता को बुनियाद बना एक सशक्त एवं सुदृढ़ भारत के निर्माण की ओर मजबूत कदम बढ़ाया। लेकिन अपने 16 वर्षों से भी लंबे प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान मुस्लिम समाज में सामाजिक सुधार, सामाजिक न्याय आदि के प्रश्न पर वह लगभग निष्क्रिय ही रहे। ऐसा नहीं कि इस ओर उनका ध्यान आकृष्ट नहीं करवाया गया था। प्रथम पसमांदा आंदोलन के मजबूत सिपाही और स्वतंत्रता सेनानी अब्दुल कय्यूम अंसारी ने नेहरू को इस विषय पर कई एक पत्र भी लिखे थे। इसका जिक्र अली अनवर ने अपनी पुस्तक मसावाज की जंग में किया है। यही नहीं उनकी सरकार ने मुस्लिम व्यक्तिगत कानूनों में भी सुधार की दिशा मे कोई कदम उठाना उचित नहीं समझा।

हालांकि जेबी कृपलानी ने हिन्दु विवाह अधिनियम के समय कहा था कि सरकार को मुसलमानो के लिए भी एकल विवाह की व्यवस्था करनी चाहिए। उनका यह भी कहना था कि इसके लिए मुस्लिम समाज तैयार है और यदि कहीं कोई कमी है तो उस पर विचार विमर्श किया जा सकता है। शायद उनका इशारा आसिम बिहारी के सामाजिक आन्दोलन की तरफ रहा हो। गौरतलब है कि उस समय तक आसिम बिहारी ने प्रौढ़ शिक्षा, महिला शिक्षा और मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय के लिए विशेष अभियान चला कर पसमांदा मुस्लिम समाज को काफी हद तक जागरूक कर दिया था। इसी कड़ी में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि सिर्फ हिन्दुओ में ही सुधार की बात क्यों की जा रही है? क्या मुसलमान इस देश के नागरिक नही हैं? उनमें वंचित और महिलाएं नहीं है? उनके समाज मे सुधार की आवश्यकता नही है? इसे लेकर उन्होंने पहले सरकार पटेल को पत्र लिखा था और फिर नेहरू को भी लिखा।

इसके अतिरिक्त श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो नेहरू सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा था कि सरकार के पास मुस्लिम समाज में सामाजिक सुधार का साहस ही नहीं है। इसके उलट उस समय के कांग्रेसी अशराफ मुस्लिम नेताओं तथा जमीअत उलेमा-ए-हिन्द से जुड़े मौलानाओं ने मुस्लिम समाज में सुधार और सामाजिक न्याय का पुरजोर विरोध किया। ये लगातार आज की तरह ही दोहराते रहे कि मुस्लिम समाज शरिया कानून से चलता है और इस्लाम में ऊंच-नीच नहीं है। इनमें प्रमुख रूप से मौलाना आजाद, जाकिर हुसैन, रफी अहमद किदवई, सैयद महमूद, तजम्मुल हुसैन, मौलाना हिफ़्जुर्रहमान, पूर्व मुस्लिम लीगी बेगम कुदसिया एजाज रसूल आदी प्रमुख थे। बेगम एजाज रसूल ने शरीयत कानून की प्रशंसा में कहा था कि मुसलमानो को इस बात पर गर्व है कि शरियत कानून महिलाओ को महान अधिकार देता है।

हालांकि सरदार पटेल, भीम राव अम्बेडकर, जेबी कृपलानी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, राजेन्द्र प्रसाद, सी राज गोपालाचारी आदी अन्य नेता मुस्लिम समाज में सामाजिक सुधार की आवश्यकता पर बल दे रहे थे। इस बीच अशराफ मुस्लिम सांसदों ने हिन्दू समाज में सुधार करने और मुस्लिम समाज में सुधार नहीं करने के लिए नेहरू की भूरी भूरी प्रशंसा किया। यह एक विडंबना ही है कि जहां आधुनिक दुनिया सुधारों की सराहना कर रही थी, वहीं उस समय के अशराफ नेता और बुद्धिजीवी सुधार नहीं करने को बड़ा प्रशंसनीय कार्य बता रहे थे। इस पूरे प्रकरण पर नेहरू सरकार मूक दर्शक बनी रही। हिंदू समाज के व्यक्तिगत कानून सुधारों पर बहस के दौरान मुसलमानो को एक अलग श्रेणी के रूप में कांग्रेस के व्यवहार ने मुस्लिम सांप्रदायिकता को बल प्रदान करते हुए मुस्लिम सामाजिक सुधार के रास्ते को और कठिन कर दिया।

देश के बंटवारे के बाद भारत में रह गए मुस्लिम लीग के अशराफ नेताओं को मौलाना आजाद के प्रभाव में आकर कई जगहों से टिकट दिया गया और उन्हें जितवाया गया। इस तरह मुस्लिम के नाम पर उनका प्रतिनिधित्व उसी दौर से बढ़ता रहा। आर्टिकल 341 का पैरा 3 का प्रेसीडेंशियल ऑडर भी नेहरू के जमाने में आया, जिसके आधार पर मुस्लिम के दलित वर्ग को शेड्यूल कास्ट लिस्ट से बाहर कर दिया गया। नेहरू की इस पर खामोशी ने मुस्लिम समाज के सामाजिक न्याय पर नकारात्मक प्रभाव डाला। उपर्युक्त विवरण प्रतीत होता है कि मुस्लिम मामले में नेहरू सेकुलरिज्म की अपनी अवधारणा के साथ न्याय नहीं कर पाए।

हालांकि जीवन के अंतिम समय में उनके विचार बदले। मई 1964 में दिए अपने अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने विदेशी अशराफ और देशज पसमांदा की स्वीकृति देते हुए कहा था कि भारत में बसनेवाले ज्यादातर मुसलमान हिन्दुओं से परिवर्तित मूल निवासी ही हैं। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी भी और पसमान्दा समाज इसका खामियाजा भुगत चुका था। साक्षात्कार के कुछ ही दिनो बाद नेहरू का देहावसान हो गया। नेहरू एक राष्ट्र निर्माता के रूप में सदैव याद किये जाएंगे, लेकिन एक सेकुलर प्रधानमन्त्री के रूप में मुस्लिम समाज के मामले में सरदार पटेल, जेबी कृपलानी, राजगोपालाचारी, राजेंद्र प्रसाद और आंबेडकर आदि की उपेक्षा के लिए भी उन्हें याद किया जाएगा। तब से जो मुस्लिम समाज में सुधार की धारा रुकी तो वह आज तक अटकी ही है।

(लेखक- डॉ० फैयाज अहमद फैजी, पसमांदा सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक)

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