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कैसे मिलेगा समय पर न्याय? देश में 10 लाख की आबादी पर केवल 15 जज; रिपोर्ट में दावा

देश की अदालतों पर काम का बोझ दिनों दिन बढ़ता ही जा रही है। हालिया इंडिया जस्टिस रिपोर्ट भी इसकी तस्दीक करती है, जिसमें दावा किया गया है कि देशभर में प्रति दस लाख की आबादी पर निर्धारित मानक से कम ⅓ जज हैं।

Pramod Praveen भाषा, नई दिल्लीTue, 15 April 2025 10:55 PM
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कैसे मिलेगा समय पर न्याय? देश में 10 लाख की आबादी पर केवल 15 जज; रिपोर्ट में दावा

देश में प्रति दस लाख आबादी पर केवल 15 न्यायाधीश हैं, जो विधि आयोग की प्रति दस लाख की आबादी पर 50 न्यायाधीशों की सिफारिश से बहुत दूर है। मंगलवार को जारी ‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ 2025 में यह जानकारी सामने आई है। इसके ठीक विपरीत, जनवरी 2024 की न्यूयॉर्क टाइम्स समाचार पत्र की खबर के अनुसार, अमेरिका में प्रति 10 लाख की जनसंख्या पर 150 न्यायाधीश हैं। वहीं अक्टूबर 2024 की यूरोप परिषद की रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में यूरोप में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर औसतन 220 न्यायाधीश हैं।

‘इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ के मुताबिक, “1.4 अरब लोगों के लिए भारत में 21,285 न्यायाधीश हैं या प्रति दस लाख की आबादी पर लगभग 15 न्यायाधीश हैं। यह 1987 के विधि आयोग की प्रति दस लाख की आबादी पर 50 न्यायाधीशों की सिफारिश से काफी कम है।” इस रिपोर्ट में देश में न्याय प्रदान करने के मामले में राज्यों की स्थिति की जानकारी दी गयी है।

हाई कोर्ट्स में 33 फीसदी पद खाली

रिपोर्ट के मुताबिक, उच्च न्यायालयों में रिक्तियां कुल स्वीकृत पदों की 33 प्रतिशत हैं। रिपोर्ट में 2025 में 21 प्रतिशत रिक्तियों का दावा किया गया, जो मौजूदा न्यायाधीशों के लिए अधिक कार्यभार को दर्शाता है। रिपोर्ट में बताया गया, “राष्ट्रीय स्तर पर जिला न्यायालयों में प्रति न्यायाधीश औसत कार्यभार 2,200 मामले है। इलाहाबाद और मध्यप्रदेश उच्च न्यायालयों में प्रति न्यायाधीश मुकदमों का बोझ 15,000 है।” रिपोर्ट के मुताबिक, जिला न्यायपालिका में महिला न्यायाधीशों की कुल हिस्सेदारी 2017 में 30 प्रतिशत से बढ़कर 38.3 प्रतिशत हो गई है और 2025 में उच्च न्यायालयों में यह 11.4 प्रतिशत से बढ़कर 14 प्रतिशत हो गई है।

25 हाई कोर्ट में सिर्फ एक महिला चीफ जस्टिस

रिपोर्ट में बताया गया, “उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय (छह प्रतिशत) की तुलना में जिला न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों की हिस्सेदारी अधिक है। वर्तमान में, 25 उच्च न्यायालयों में केवल एक महिला मुख्य न्यायाधीश हैं।” रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली की जिला अदालतें देश में सबसे कम रिक्तियों वाली न्यायिक शाखाओं में से हैं, जहां 11 प्रतिशत रिक्तियां हैं और 45 प्रतिशत महिलाएं न्यायाधीश हैं।

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रिपोर्ट में बताया गया कि जिला न्यायपालिका में, केवल पांच प्रतिशत न्यायाधीश अनुसूचित जनजाति (एसटी) से और 14 प्रतिशत अनुसूचित जाति (एससी) से हैं। वर्ष 2018 से नियुक्त उच्च न्यायालय के 698 न्यायाधीशों में से केवल 37 न्यायाधीश एससी और एसटी श्रेणियों से हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, न्यायपालिका में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का कुल प्रतिनिधित्व 25.6 प्रतिशत है।

हर दो में से एक मामला तीन साल से अधिक समय से लंबित

रिपोर्ट में बताया गया कि कानूनी सहायता पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति व्यय 6.46 रुपये प्रति वर्ष है, जबकि न्यायपालिका पर राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति व्यय 182 रुपये है। रिपोर्ट में दावा किया गया कि कोई भी राज्य न्यायपालिका पर अपने कुल वार्षिक व्यय का एक प्रतिशत से अधिक खर्च नहीं करता है। रिपोर्ट में लंबित मामलों को रेखांकित करते हुए बताया गया, “कर्नाटक, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम और त्रिपुरा को छोड़कर सभी उच्च न्यायालयों में हर दो में से एक मामला तीन साल से अधिक समय से लंबित है।”

रिपोर्ट के मुताबिक, “अंडमान एवं निकोबार, अरुणाचल प्रदेश, बिहार, गोवा, झारखंड, महाराष्ट्र, मेघालय, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की जिला अदालतों में 40 प्रतिशत से अधिक मामले तीन साल से अधिक समय से लंबित हैं।”रिपोर्ट में बताया गया कि दिल्ली में हर पांच में से एक मामला पांच साल से अधिक समय से लंबित है और दो प्रतिशत मामले 10 वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं। रिपोर्ट में तत्काल और आधारभूत सुधारों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया तथा रिक्तियों को तत्काल भरने व प्रतिनिधित्व बढ़ाने पर जोर दिया गया।