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बोले पलामू: दोना और पत्तल बेच करते हैं रोटी का जुगाड़, मदद की दरकार

मेदिनीनगर, अखिलेश। पलास, लाह, महुआ, साल पत्ता, महुलान पत्ता, तेंदू पत्ता आंवला, हरे, बहेरा

Newswrap हिन्दुस्तान, पलामूSun, 23 Feb 2025 06:46 PM
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बोले पलामू: दोना और पत्तल बेच करते हैं रोटी का जुगाड़, मदद की दरकार

मेदिनीनगर, अखिलेश। पलास, लाह, महुआ, साल पत्ता, महुलान पत्ता, तेंदू पत्ता आंवला, हरे, बहेरा आदि लघु वनोपज पलामू की पहचान हैं। पलामू प्रमंडल की लाखों की आबादी अपने जीविकोपार्जन के लिए पूरी तरह से वन संपदा पर निर्भर है। इसके बाद भी इनके शिक्षा, स्वास्थ्य, विकास के मामले में प्रशासनिक उदासीनता से इन्हें भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। हिन्दुस्तान के बोले पलामू अभियान के तहत डालटनगंज रेलवे स्टेशन के पास दोना, पत्तल तथा दातुन बेचनेवालों ने अपना दर्द बयां किया।

मेदिनीनगर सहित जिले के प्रमुख कस्बों में सपरिवार घूम-घूमकर दोना-पत्तल व दातुन बेचते वनवासी सहजता से देखे जा सकते हैं। इनमें पलामू के साथ सीमावर्ती लातेहार व गढ़वा जिले के लोग भी बहुतायत में रहते हैं।

रेलवे स्टेशन परिसर, बस स्टैंड सहित अन्य सार्वजनिक पार्क आदि तो मानो इनका स्थाई ठिकाना ही बन गया है। कई दशक से जंगल से पत्ते व दातुन तोड़कर शहर में बेचकर उसी से किसी प्रकार खुद के साथ अपने बच्चों का भरन-पोषण करना इनकी नियति बन चुकी है। किंतु वनवासियों के उत्थान के लिए शासन स्तर पर चलाई जा रहीं तमाम कल्याणकारी योजनाओं के बाद भी इन पर किसी का भी ध्यान न जाना शासन तंत्र की मंशा पर सवालिया निशान लगा रहा है। इनके शिक्षा व स्वास्थ्य की घोर अनदेखी किये जाने से ये परिवार आज भी मुख्यधारा से खुद को कटा हुआ महसूस करते हैं।

डालटनगंज रेलवे स्टेशन पर जब इनसे समस्याओं के बाबत कुरेदा गया इनमें से अधिकांश महिलाएं सर्दी-खांसी, बुखार आदि से ग्रसित नजर आईं। दवा क्यों नहीं करा रही हैं। पूछने पर साफ किया कि दोना-पत्तल बेचने से बमुश्किल इतना भी नहीं मिल पाता है कि परिवार के सभी सदस्य दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर सकें। ऐसे में वे दवा कहां से कराएं। कभी-कभी स्टेशन परिसर में कोई खाद्य पदार्थ लेकर आने वाले समाजसेवी या स्वयं सेवी संस्थान के लोग ही उनकी गंभीर हालत देख बाजार से एक-दो दिन की दवा दे देते हैं। इससे उन्हें कुछ दिन तो आराम अवश्य मिलता है। किंतु बीमारी पूरी तरह ठीक नहीं होने के कारण फिर से उनकी यही स्थिति हो जाती है। पर्याप्त इलाज के अभाव में धीरे-धीरे मामूली बीमारी भी असाध्य बन जाती है।

दोना-पत्तल के कारोबार से इतनी आय नहीं होती है कि वे बेहतर इलाज के लिए शहर के बड़े अस्पताल अथवा महानगर में जाकर अपना उपचार करा सकें। ऐसे ही बीमारी को झेलते हुए उनके कई साथी तो परलोक सिधार चुके हैं। इसके बाद भी जीवन निर्वाह का कोई और साधन नहीं होने के कारण इस पेशे से जुड़े रहना उनकी मजबूरी है। ऐसा नहीं है कि स्टेशन, बस स्टैंड अथवा सार्वजनिक पार्कों की तरफ स्वास्थ्य विभाग अथवा जिला प्रशासन के जिम्मेदार अधिकारियों की आवाजाही नहीं होती है। कई बार तो अधिकारियों के आने के समय ही गंभीर अवस्था में वे पड़े रहते हैं। इसके बाद भी बगैर कोई ध्यान दिये सभी अपनी राहत चलते बनते हैं। कभी स्वास्थ्य विभाग की टीम उनकी सुध लेने आई है। इसके जबाब में महिलाओं ने सीधा इंकार किया। ज्यादा की नहीं हसरत है हमें, थोड़े में गुजारा होता है गीत की पंक्तियों को साकार करते हुए उन्होंने कहा कि परिवार के कुछ सदस्य हमेशा जंगल में ही रहते हैं।

दिनभर पत्ते व दातुन तोड़ने के बाद वे शाम को यहां लाकर पहुंचा देते हैं। जहां पर बैठकर परिवार के अन्य सदस्य दातुन का बंडल व दोना-पत्तल तैयार करते हैं और उसके बाद उसे शहर व जिले के विभिन्न कस्बों में ले जाकर बेचते हैं। इसी से उनकी दाल-रोटी किसी प्रकार चल रही है। शाम को पुन: वे यहीं आकर आराम करते हैं। टर्न के अनुसार परिवार के सदस्यों का घर आना-जाना जारी रहता है। उनकी कई पीढ़ी इसी पेशे से जुड़ी रही है। धनाभाव के कारण बच्चों की शिक्षा की तरफ कोई ध्यान न दे पाने के कारण बड़े होकर उनके बच्चे भी इसी पेशा को अपना व्यवसाय समझ सहजता से अपना लेते हैं। भले ही इस पेशे से जुड़े रहना उनके लिए कितना भी कष्टदायक क्यों न हो। वैकल्पिक व्यवस्था के अभाव में इसे अपनाये रखना नियति बन चुकी है।

घटते सघन वन क्षेत्र से बढ़ रही परेशानी

महिलाओं ने कहा कि दिन-प्रतिदिन घटते वन क्षेत्र के कारण अब उन्हें पत्ता व दातुन के लिए काफी भटकना पड़ रहा है। पहले कस्बे के ईद-गिर्द ही आसानी से पत्ते व दातुन मिल जाते थे। किंतु बढ़ती आबादी व अन्य कारणों से पत्ता संग्रह के लिए उन्हें घंटों पैदल चलकर सघन वन क्षेत्र में जाना पड़ता है। इसके साथ ही आसपास के अन्य लोगों के भी इस पेशे से जुड़ जाने के कारण आय भी दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। इसके बाद भी शासन स्तर पर उन्हें किसी प्रकार की मदद नहीं मिल रही है। लगता है कुछ दिनों में यह व्यवसाय लुप्त हो जाएगा।

सखुआ का पेड़ ही एकमात्र सहारा

दोना-पत्तल के लिए महलान तो अब देखने को भी नहीं मिलता है। करंज आदि उपयोगी वृक्षों की संख्या भी लगातार घटती जा रही है। ऐसे में जंगल में विद्यमान सखुआ का पेड़ ही इस समय उनके जीविकोपार्जन का प्रमुख सहारा बना हुआ है। सखुए के पत्तों से दोना-पत्तल व इसकी टहनियों का दातुन बेचकर ही वे अपने परिवार का किसी प्रकार निर्वाह कर रहे हैं। सखुए के पेड़ पर बढ़ते दबाव के कारण इनकी संख्या भी निरंतर घट रही है। सरकार की ओर से भी ऐसे वृक्षों को को बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। ऐसे में दोना-पत्तल बनाने वालों की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है।

कोई प्रशिक्षण या प्रोत्साहन

पीढ़ी दर पीढ़ी वनों में रहने वाले आदिवासी समाज के लोग दोना-पत्तल के कारोबार से जुड़े हैं। कहने को तो दोना-पत्तल के कारोबार को सहेजने के लिए सरकार स्तर पर कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। किंतु धरातल पर कार्य नहीं होने से पेशे से वास्तविक रूप में जुड़े लोगों को कोई लाभ मिलता नजर नहीं मिल रहा है। इन्हें न तो किसी प्रकार का कोई प्रशिक्षण दिया जा रहा है। और न ही प्रोत्साहन। इसके कारण वे अभी भी परंपरागत तौर-तरीकों पर ही निर्भर हैं। इससे इनका कारोबार बढ़ नहीं पाता है।

डिस्पोजल पत्तल ने बढ़ाया संकट

डिस्पोजल दोना-पत्तल के बढ़ते कारोबार ने दोना-पत्तल बनाने वालों का संकट और बढ़ा दिया है। बाजार में प्लास्टिक उत्पादों पर प्रतिबंध के बाद भी सस्ते दर पर इनकी सहज उपलब्धता से पेड़ों के पत्ते से बने दोना-पत्तल की मांग काफी कम हो गई है। इससे इनके काम का दायरा लगातार सिकुड़ रहा है। दिनभर मेहनत करने के बाद भी इनका सामान बचा रह जाता है। पड़े रहने के कारण कुछ दिनों में ही पत्ते सूख जाते हैं। इससे उनकी परेशानी बढ़ जाती है।

कोई नहीं लेता हमारी सुध

शहर में दोना-पत्तल बेचने वाले लगभग सभी लोग किसी न किसी बीमारी से ग्रसित हैं। पैसे के अभाव में इलाज नहीं करा पाते हैं। कई दिन तो वे निकल भी नहीं पाते। -कमेश

समुचित दवा-इलाज के अभाव में कई लोग कम समय में ही परलोक सिधार गये हैं। अभाव व अव्यवस्था के बीच किसी प्रकार अपनी जिंदगी को ढो रहे हैं। -बसंती

चुनाव के समय तो नेता लोग उनके लिए भी काम करने का वादा करते हैं। वे लोग आशा में वोट भी देते हैं। किंतु चुनाव बीतने के बाद उनके बारे में कोई नहीं सोचता। -पानपती

दोना-पत्तल व शहर में दातुन बेचते-बेचते ही पुरखे इस दुनिया से चले गये हैं। शहर में रहने का उनका निश्चित ठौर भी सभी को पता है। किंतु कोई सुध नहीं ली गयी। -कुसुमी

काम नहीं चलने के कारण कई बार भूखे ही स्टेशन पर सो जाते हैं। सप्ताह में एक-आध दिन कोई आकर उन्हें खाने के लिए कुछ दे देता है। उसी से जीवन चलता है। -एतवरिया

आये दिन अधिकारियों का स्टेशन पर आना-जाना लगा रहता है। ऐसे में आरपीएफ वाले गरीबों का बोरिया-बिस्तर हटा देते हैं। उनके जाने के बाद ही वापस आ पाते हैं। -प्रेमशीला

कई बार तो अस्पताल जाने के बाद भी समुचित इलाज नहीं हो पाता है। एक तो पैसे का अभाव, ऊपर से किस डाक्टर को दिखाना है। इसकी भी जानकारी नहीं है। -पार्वती

भले ही सैकड़ों लोग दोना-पत्तल के काम से जुड़े हैं। लेकिन उनका कोई संगठन नहीं है। इससे आवश्यकता पड़ने पर वे संगठित होकर आवाज नहीं उठा पाते हैं। -संगीता

अक्सर सुनते हैं कि शहर में कई शिविर लगा है। जहां गरीबों का मुफ्त इलाज किया जा रहा है। किंतु आज तक उनका किसी भी शिविर में कोई इलाज नहीं हुआ है। -बिफनी

एक-दो बार कोई साहब लोग स्टेशन पर अवश्य आए हैं। उन्होंने उनका हालचाल भी पूछा। उन्हें लगा कि जरूर उनके बारे में सरकार कोई काम करेगी। किंतु कुछ नहीं हुआ। -शकुंती

स्टेशन पर रहते-रहते उनका जीवन बीत गया। यहां आने-वाले यात्री भले ही कभी उनकी कुछ मदद कर दिये हों। किंतु याद नहीं कि कभी सरकार से कुछ मिला है। -यशोदा

कैंप में अक्सर बड़े लोगों का ही इलाज होता है। यदि उनके लिए भी समय पर जांच कर दवा दे दिया जाए तो उनमें कई लोगों की असमय जान जाने से बच सकेगा।-सहुद्री

इनकी भी सुनिए

नगर निगम क्षेत्र में दोना, पत्तल, दातुन आदि लघु वनोपज बेचने वालों को भी स्ट्रीट वेंडर माना जाता है। कभी-कभी स्वास्थ्य शिविर भी लगाया जाता है। रात के समय सोने के लिए उन्हे आश्रयगृह भी उपलब्ध कराया जाता है ताकि उन्हें थोड़ी राहत मिल सके।

विश्वजीत महतो, सहायक नगर आयुक्त

लघु वनोपज बेचने वाले पूरे शहरवासियों की दोना, पत्तल, दातुन की जरूरत को पूरा करते हैं। परंतु दशकों से वे लोग स्टेशन के पास और आंबेडकर पार्क के पास सड़क पर बैठकर वनोपज बेचकर अपने लिए रोटी का जुगाड़ करते हैं। उन्हें सरकारी मदद की जरूरत है।

सतीश कुमार, सामाजिक कार्यकर्ता

शिकायतें

1. दोना-पत्तल बेचने वाले के इलाज के लिए शासन स्तर पर कोई प्रबंध नहीं है। इससे वे अक्सर बीमार रहते हैं।

2. वन संपदाओं के संरक्षण पर समुचित ध्यान न दिया जाना। जिससे वनोपज लगातार कम हो रहे हैं।

3. परंपरागत रूप से वनोपज से जुड़े लोगों के प्रशिक्षण का कोई प्रबंध नहीं किया जाना। जिससे पेशे को गति नहीं मिलती है।

4. स्वास्थ्य के प्रति समुचित जागरूकता का अभाव। बचाव के प्रति भी सजग नहीं।

सुझाव

1. नियमित रूप से ऐसे लोगों को चिन्हित कर उनके दवा-इलाज का समुचित प्रबंध किया जाना। जिससेवे फिट रह सकें।

2. वन संपदाओं के संरक्षण का समुचित प्रबंध किया जाना। जिससे वनोपज अधिक होने से राहत मिल सके।

3. परंपरागत रूप से वनोपज पर आधारित पेशे से जुड़े लोगों को माकूल प्रशिक्षण दिया जाए। ताकि वे दक्ष हो सकें।

4. स्वास्थ्य शिविर लगाने के साथ ही जागरूकता अभियान भी संचालित किया जाए।

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