सुमधुर भजन संगीत एवं आकर्षित झांकी भी प्रस्तुत
सिमलडूबी पंचायत के मंझलाडीह गांव में चल रही सात दिवसीय श्रीमद्भागवत कथा में धर्मप्राण हरिदास अंकित कृष्ण ने भगवान कपिल देव और सती चरित्र का मधुर वर्णन किया। कथा में शिव और सती के संबंधों, दक्ष के यज्ञ...

बिंदापाथर, प्रतिनिधि। क्षेत्र के सिमलडूबी पंचायत अन्तर्गत मंझलाडीह गांव में चल रहे सात दिवसीय श्रीमद्भागवत कथा के तृतीय रात्री को वृन्दावन धाम के कथावाचक धर्मप्राण हरिदास अंकित कृष्ण के द्वारा श्रीमद्भागवत कथा के अंतर्गत भगवान कपिल देव मुनि का प्रसंग, ध्रुव चरित्र, सती चरित्र, बिदुर संवाद आदि" प्रसंग के बारे में मधुर वर्णन किया। इस चित्ताकर्षक प्रसंग में कथावाचक ने व्याख्यान करते हुए कहा कि ब्रह्मा जी ने दक्ष को समस्त प्रजापतियों का अधिपति बना दिया, तो इससे दक्ष का अभिमान और भी बढ़ गया। उसने पहले वाजपेय यज्ञ किया, फिर ब्रहस्पतिसव नामक महायज्ञ प्रारम्भ किया। उस उत्सव में सारे ब्रह्मर्षि, देवर्षि, पितर, देवता आदि सब-के-सब अपनी-अपनी पत्नियों सहित सज-धज कर जा रहे थे। आकाश मंडल में उन सब को विमानों से जाते हुए सती जी ने देखा। जाते हुए देवतागण उस यज्ञ की चर्चा कर रहे थे। सती जी ने वह सब सुन लिया। वह सब देख-सुन कर उनके मन में भी पिता के घर, उस यज्ञोत्सव में जाने की उत्सुकता जगी तो वे शिवजी से कहने लगीं, ”स्वामी मेरा भी पिता जी के घर जाने का बहुत मन कर रहा है। मैं वहाँ जाऊँगी, अपनी माँ से, बहनों और अन्य प्रियजनों से मिलूँगी। अतः यदि आप चाहें तो हम भी इस यज्ञोत्सव में चलें। आप बड़े करुणामय हैं, आप मेरी इस याचना पर ध्यान दें और मेरी इच्छा पूर्ण करके मुझे अनुगृहीत करें।“ यह सुनकर भी, जब शंकर जी चुप रहे, तो वे कहती हैं, ”उन्होंने आमंत्रण नहीं दिया है, यह तो सच बात है, लेकिन पिता के घर जाने के लिए किसी निमंत्रण की क्या जरूरत है? आंमत्रण की प्रतीक्षा क्यों की जाए?“ शिवजी ने कहा, ”तुम जो कह रही हो कि माँ से मिलना है, सो तो ठीक है। निमंत्रण की जरूरत नहीं, वह भी ठीक है। लेकिन दक्ष के मन में मेरे लिए बड़ा द्वेष हैं।“ देखो, अब तक सती जी को इस बारे में कुछ पता ही नहीं था। शिवजी ने कभी आकर उनको बताया ही नहीं था कि कभी प्रजापतियों के यज्ञ के समय दक्ष ने उनका किस तरह अपमान किया था। अब समय आया है, तो बता रहे हैं और वह भी - मेरा अपमान किया - आदि कुछ नहीं बोलते, बस इतना ही कहते हैं कि दक्ष के मन में मेरे लिए द्वेष है इसलिए जान बूझकर हमें निमंत्रण नहीं भेजा गया है। ऐसी स्थिति में वहाँ जाने से तो अपमान ही होगा। अतः तुम मत जाओ। सति कहती हैं ”आपको नहीं जाना हो तो मत जाइए लेकिन मैं तो जाऊँगी।“शिवजी ने कहा, ”जैसी तुम्हारी इच्छा।“ शिवजी को तो उनमें भी कोई आसक्ति नहीं थी। वे वहाँ रहें या न रहें इससे उन्हें क्या अन्तर पड़ता है? सती कहती है, ”मैं तो जा रही हूँ“ और वे वहाँ से चल पड़ीं। जब नन्दी भगवान ने देखा कि हमारी स्वामिनी अकेली जा रहीं हैं, तो वे भी अन्य साथियों को लेकर उनके साथ चल पड़े। तो ऊपर छाता है, सती जी का तोता है, उनके संगीत के वाद्य आदि हैं और सती जी जा रही हैं। सारे-के-सारे शिवगण भी उनके साथ हैं। उन सबके साथ सती जी यज्ञशाला पहुँचती हैं। वहाँ दक्ष ने तो उनकी बड़ी अवहेलना की। सती के प्रति उनके पिताजी का रुख देखकर, वहाँ उनसे मिलने का किसी और ने साहस नहीं किया और न ही किसी ने उनका आदर सत्कार ही किया। केवल उनकी माँ अवश्य उनसे प्यार से मिलती हैं, दूसरा कोई उनसे बात भी नहीं करता। फिर सती जी ने देखा कि वहाँ यज्ञ मण्डप में सभी देवताओं के लिए स्थान है, लेकिन शिवजीके लिए कोई यज्ञ-भाग नहीं रखा गया है। अब देखो, जब वे पति के पास थीं, तब उनके हृदय में पितृ-प्रेम उमड़ रहा था और अब पिता के पास जाकर वहाँ की स्थिति देखती हैं, तो पति-प्रेम उमड़ आया है। वास्तव में उनका पति प्रेम ही सच्चा था। उन्हें वह बात याद आयी जो शिवजी ने पहले ही कह दी थी। अब पति का ऐसा अपमान देखा तो उन्हें इतना क्रोध आया कि दक्ष को भरी सभा में कहने लगीं - मुझे इस बात पर शर्म आती है कि मैं तुम्हारी पुत्री हूँ और तुम मेरे पिता हो। इस अनुष्ठान को लेकर संपूर्ण क्षेत्र में उत्साह बना हुआ है। कथा के साथ साथ सुमधुर भजन संगीत एवं आकर्षित झांकी भी प्रस्तुत किया गया जिससे उपस्थित श्रोता भावविभोर हो कर कथा स्थल पर भक्ति से झुम उठे।
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