गाय-बैल आधारित कृषि को बढ़ावा देगा एनआईटी जमशेदपुर
झारखंड में गाय-बैल की संख्या में 87% की कमी आई है, जिससे आधुनिक खेती की समस्याएं बढ़ रही हैं। एनआईटी जमशेदपुर ने भारतीय ज्ञान प्रणाली केंद्र के तहत पारंपरिक कृषि को बढ़ावा देने की पहल की है। विशेषज्ञ...
जमशेदपुर, भादो माझी खेती-किसानी में आज आधुनिक संसाधनों का बढ़ता इस्तेमाल बड़ी समस्या बनती जा रही है। अब हल और बैल की जगह ट्रैक्टर ने ले ली है और गोबर की जगह रासायनिक उत्पादों का इस्तेमाल हो रहा है। पूर्वी सिंहभूम समेत पूरे झारखंड में 20 वर्ष में गाय-बैलों की संख्या में 87% तक की कमी आई है। इसको देखते हुए एनआईटी जमशेदपुर ने गाय-बैल आधारित कृषि को बढ़ावा देने की पहल शुरू की है।
केंद्र सरकार की पहल पर भारतीय परंपरा के संवर्द्धन को एनआईटी जमशेदपुर में भारतीय ज्ञान प्रणाली केंद्र (ऐंटेट फॉर इंडिया नॉलेज सिस्टम) की स्थापना की गई है। इस केंद्र का काम भारतीय परंपरा को जीवंत रखना और इसका प्रचार प्रसार कर प्रासंगिकता को कायम रखना है। इसी के तहत एनआईटी जमशेदपुर की ओर से गाय-बैल आधारित कृषि को लेकर लोगों को जागरूक किया जा रहा है। इसके लिए छात्रों के साथ साथ कोल्हान के किसानों को पारंपरिक तौर तरीकों से खेती को कायम रखने को लेकर अपील की जा रही है। इसके लिए प्राचीन भारतीय विज्ञान व प्रौद्योगिकी पर परिचर्चाओं का आयोजन किया जा रहा है। कृषि विशेषज्ञ एवं प्रशिक्षक केईएन राघवन एनआईटी जमशेदपुर आए हैं। वे गाय से लेकर बैल और गोबर से लेकर गोमूत्र तक की कृषि में पारंपरिक उपयोगिता के बारे में प्रशिक्षण दे रहे हैं। राघवन कहते हैं कि हमारी पारंपरिक शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक शिक्षण व्यवस्था ने नष्ट कर दिया था, इसलिए अब फिर से प्राचीन भारतीय विज्ञान व प्रौद्योगिकी का प्रचार-प्रसार शुरू किया गया है। राघवन के मुताबिक, कार्बन उत्सर्जन और रसायनों के दुष्प्रभाव से बचने को हमारी गाय-बैल आधारित कृषि ही सर्वाधिक उपयोगी है। इसलिए एनआईटी जैसे संस्थान और सरकार इसे बढ़ावा दे रही है। एनआईटी के उपनिदेशक प्रो. राम विनॉय शर्मा ने कहा कि पारंपरिक कृषि व्यवस्था ग्रामीण विकास और गांवों को आत्मनिर्भर बनाने में अहम भूमिका निभा सकती है। एनआईटी में राघवन ने जैविक खाद और अन्य जैविक तकनीकों के माध्यम से जैविक खेती को समझाया और प्रदर्शित किया, जो कम लागत में मानव स्वास्थ्य पर बेहतर प्रभाव डालती है।
आदिवासी गांवों में भी अब किसानों के घर नहीं मिलते बैल
कृषि कार्य खासकर खेतों को जोतने के लिए हल और बैल अब खोजे नहीं मिलते। झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के पोटका प्रखंड के धिरोल गांव निवासी बलराम सोरेन बताते हैं कि पूरे जिले में अब कृषि कार्य में ट्रैक्टर का इस्तेमाल आम हो गया है। गांव में 1200 रुपये प्रति घंटे के हिसाब से ट्रैक्टर से खेत जोते जाते हैं। सोरेन बताते हैं कि किसानों को साल भर बैल पालने की लागत अधिक मालूम पड़ती है। इसलिए बैल अब आदिवासी किसानों के घर नहीं मिलते।
गाय बैलों की संख्या में आई बड़ी कमी
पशुपालन विभाग के सर्वे के मुताबिक, राज्य में गायों और बैलों की संख्या में बड़ी कमी आई है। सर्वे के मुताबिक, राज्य में 2007 में कुल 87.81 लाख गाय-बैल थे। इसमें 24.66 दुधारू पशु थे। 2012 में हुई गणना में यह संख्या 87.30 लाख हो गई। वहीं, अंतिम गणना में संख्या 11.86 लाख ही रह गई है। दुधारू पशुओं की संख्या भी अब महज 3.41 लाख है। इसलिए पशुओं के इस्तेमाल पर फिर से जोर देने की जरूरत महसूस की गई है।
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