मधुपुर से लुप्त हो रही बंगला संस्कृति की अमिट छाप
मधुपुर में 1925 से 1972 तक बंगाली समाज का स्वर्ण काल था, लेकिन अब यह समुदाय तेजी से कम होता जा रहा है। भू माफिया और बेरोजगारी के कारण बंगाली बाबू की संख्या घट रही है। यहाँ की बंगाली संस्कृति, जैसे...
मधुपुर और आसपास के इलाकों में कभी बंगाली समाज की तूती बोलती थी। मधुपुर की आबोहवा में बंगला संस्कृति की गहरी छाप है। यहां कई मोहल्लों के नाम बंगाली टच लिए हुए हैं। इन इलाकों में आज भी सामान्य घरों में भोजन के रूप में माछ-भात जरूर बनता है। बाग बगीचे और शिल्प कला की बेहतरीन कारीगरी वाले मकान, तांत की साड़ियां, खुशबूदार संदेश मिठाइयां और बांग्ला कुर्ता- धोती तो आज भी मधुपुर में दिखते हैं। हालांकि इनके सही कद्रदान बंगाली बाबू अब कम पड़ गए हैं। मधुपुर को बंगाली सैलानियों यानी चेंजरों का हिल स्टेशन कहा जाता था। अब यहां गिनती के बंगाली रह गए हैं । डाक, रेलवे ,स्वास्थ्य ,टेलीफोन समेत सरकारी कार्यालयों में अब बहुत कम दिखते हैं दादा। जायकेदार पान , इत्र ,बंगला सिल्क, महंगी सिगरेट और सिगार की दुकानें तो शहर में अभी भी हैं, लेकिन यहां खरीदारी करने वाले बाबू मोशाय की भीड़ नहीं लगती। जात्रा, नाटक और नृत्य- संगीत की मंडलिया भी लुप्त हो रही है। सुबह - सवेरे गिने-चुने घरों में ही हारमोनियम, सितार और तबले की धुन गूंजती है। देखते-देखते बंगाली बाबू बिखरते चले गए। शांति और सद्भाव से जीवन बसर करने वाले समाज की दूरियां बढ़ती बेरोजगारी ,अपराध, रंगदारी और जबरन जमीन कब्जा करने वालों के आतंक के कारण बिखरती चली गई।
मधुपुर में 1925 से 1972 तक बंगालियों का स्वर्ण काल
1925 से 1972 तक का काल मधुपुर में बंगालियों का स्वर्ण काल माना जाता है। समाज में बंगाली बाबू की बड़ी प्रतिष्ठा थी। कोई भी काम हो सामाजिक ,सांस्कृतिक ,धार्मिक या राजनीतिक बंग समाज की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। उनकी भूमिका का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मधुपुर नगरपालिका गठन की रूपरेखा 1908 में प्रबुद्ध बंगाली बाबूओं ने तैयार की थी। मधुपुर शहर के प्रतिष्ठाता के रूप में मोतीलाल मित्रा को जाना जाता है। प्रख्यात शिक्षाविद आशुतोष मुखर्जी का आवास मधुपुर में रहा है। आशुतोष मुखर्जी के पुत्र भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। ऐसे कई विख्यात बंगाली बाबूओं का आवास मधुपुर में रहा है। मधुपुर विधानसभा जहां बंगाली मतदाता कम से कम चुनावी संतुलन बनाने की स्थिति में तो कतई भी नहीं है। वहां से तीन बार डॉक्टर अजीत कुमार बनर्जी विधायक चुने गए थे। 1967, 72, और 77 में लगातार चुनाव जीतने वाले डॉक्टर साहब को लोग आज भी याद करते हैं। ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा ,सेवाभाव में उनका सानी नहीं था। कुशमाहा ,शेखपुरा ,कालीपुर टाऊन,मीनाबाजार ,बावनबीघा ,खलासी मोहल्ला , पोखरिया, सपहा में करीब 6000 बंगाली थे । इस समाज का ताना-बाना 70 के दशक से बिखरना शुरू हुआ। बंगाली बाबू की चाकरी का स्कोप धीरे-धीरे घटता चला गया। उद्योग व्यापार में रुचि नहीं लेने वाले समाज के लोगों के सामने संकट गहरा हो गया, वह घटते चले गए । भू माफिया इनकी दर्जनों कोठियों को हड़प लिए। इनकी जमीन ,कोठी , मकान कब्जा करने वालों का अभियान नाटकीय अंदाज में चलता रहा। नुकसान की भरपाई आज तक नहीं हो पायी ।
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