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सुन्नी देश है फिलिस्तीन, फिर क्यों मदद को आगे रहता है शिया बहुल ईरान? समझिए पूरा इतिहास

  • इस समर्थन के पीछे मुख्य कारण इस्लामिक क्रांति, जायोनीवाद का विरोध, पश्चिमी शक्तियों का विरोध, और एकता के रूप में मुस्लिम दुनिया का नेतृत्व करने की आकांक्षा है। विस्तार से समझिए।

Amit Kumar लाइव हिन्दुस्तानTue, 1 Oct 2024 09:20 PM
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ईरान और फिलिस्तीन के संबंधों की कहानी जटिल और ऐतिहासिक है, जिसमें धार्मिक, राजनीतिक, और भू-राजनीतिक पहलू शामिल हैं। ईरान एक प्रमुख शिया मुस्लिम देश है, जबकि फिलिस्तीन में अधिकांश जनसंख्या सुन्नी मुसलमानों की है। इस धार्मिक विभाजन के बावजूद, ईरान ने दशकों से फिलिस्तीन के संघर्ष में सक्रिय रूप से समर्थन किया है। इस समर्थन के पीछे मुख्य कारण इस्लामिक क्रांति, जायोनीवाद का विरोध, पश्चिमी शक्तियों का विरोध, और एकता के रूप में मुस्लिम दुनिया का नेतृत्व करने की आकांक्षा है। फिलिस्तीन और ईरान के बीच दोस्ती को समझने से पहले शिया और सुन्नी को समझना होगा।

शिया और सुन्नी में अंतर: एक ऐतिहासिक और धार्मिक विभाजन

शिया और सुन्नी इस्लाम के दो प्रमुख संप्रदाय हैं। यह विभाजन इस्लाम की शुरुआती राजनीतिक और धार्मिक घटनाओं पर आधारित है, और समय के साथ यह दोनों संप्रदायों के बीच गहरे मतभेद और विवाद का कारण बना है। इस्लाम के दो प्रमुख संप्रदायों के बीच विभाजन की जड़ें पैगंबर मोहम्मद की मृत्यु के बाद के समय से हैं। पैगंबर की मृत्यु के बाद यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि उनके बाद इस्लामिक समुदाय का नेतृत्व कौन करेगा। इस मुद्दे पर सहमति न होने के कारण ही शिया और सुन्नी संप्रदायों का जन्म हुआ।

सुन्नी

नेतृत्व का चयन: सुन्नी मान्यता के अनुसार, पैगंबर मोहम्मद के उत्तराधिकारी का चयन मुस्लिम समुदाय द्वारा सर्वसम्मति से किया जाना चाहिए था। उन्होंने पैगंबर के साथी अबू बकर को पहला खलीफा (राजनीतिक और धार्मिक नेता) चुना।

खलीफा प्रणाली: सुन्नियों का मानना है कि पहला खलीफा अबू बकर से लेकर अन्य खलीफाओं को इस्लामिक समुदाय ने अपने चयन के माध्यम से चुना। उनके लिए राजनीतिक नेतृत्व का चयन इस्लामिक समाज की सहमति पर आधारित था।

सुन्नी नाम का अर्थ: सुन्नी शब्द "अहले-सुन्नत" से आया है, जिसका मतलब "पैगंबर की सुन्नत (रीति-नीति)" का अनुसरण करने वाले हैं। सुन्नी मुसलमान इस्लामिक कानून और परंपराओं का पालन करते हैं जो कुरान और हदीस (पैगंबर की बातें और क्रियाएं) पर आधारित हैं।

शिया

नेतृत्व का चयन: शिया मुसलमानों का मानना है कि पैगंबर मोहम्मद के बाद उनके परिवार के सदस्य को नेतृत्व करना चाहिए था। विशेष रूप से, वे मानते हैं कि पैगंबर के चचेरे भाई और दामाद, अली, को पहला खलीफा बनना चाहिए था।

इमामत प्रणाली: शिया इस्लाम में, इमाम (धार्मिक नेता) केवल पैगंबर के परिवार (अहले-बैत) से चुने जाने चाहिए। शिया मानते हैं कि ये इमाम अल्लाह द्वारा चुने गए होते हैं और वे इस्लाम के सच्चे मार्गदर्शक हैं। अली को पहला इमाम माना जाता है, और उनके वंशजों को इमामत की यह परंपरा जारी रखने वाला माना गया है।

शिया नाम का अर्थ: शिया शब्द "शिया-ए-अली" से निकला है, जिसका अर्थ है "अली के समर्थक"। वे अली और उनके वंशजों को पैगंबर के सच्चे उत्तराधिकारी मानते हैं।

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शिया और सुन्नी के बीच धार्मिक मतभेद क्या है?

1. नेतृत्व और इमामत:

सुन्नी इस्लाम में, कोई केंद्रीय धार्मिक नेतृत्व नहीं है। खलीफाओं और उलेमा (धार्मिक विद्वानों) का महत्व है, लेकिन कोई व्यक्ति धार्मिक अधिकार का केंद्र नहीं होता। शिया इस्लाम में, इमामत को महत्वपूर्ण माना जाता है। इमाम न केवल धार्मिक नेता होते हैं, बल्कि वे आध्यात्मिक और नैतिक मार्गदर्शक भी होते हैं। शिया इमामों को अल्लाह से विशेष ज्ञान और मार्गदर्शन प्राप्त होने का विश्वास रखते हैं।

2. धार्मिक प्रथाएं

सुन्नी मुसलमान पांचों स्तंभों (इमान, नमाज, रोजा, जकात, हज) का पालन करते हैं, जो सभी मुसलमानों के लिए समान हैं। शिया मुसलमान भी इन्हीं पांच स्तंभों का पालन करते हैं, लेकिन वे कुछ अन्य प्रथाओं का पालन करते हैं, जैसे कि आशूरा का त्यौहार, जो कर्बला की लड़ाई में इमाम हुसैन (अली के बेटे) की शहादत की याद में मनाया जाता है।

3. कर्बला की घटना और आशूरा

कर्बला की लड़ाई (680 ईस्वी) शिया समुदाय के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस युद्ध में पैगंबर मोहम्मद के पोते, इमाम हुसैन, को यजीद की सेना द्वारा शहीद किया गया था। यह घटना शिया इस्लाम के लिए एक धार्मिक और भावनात्मक प्रतीक बन गई है। सुन्नी भी इस घटना को महत्व देते हैं, लेकिन उनके लिए यह धार्मिक रूप से उतना केंद्र में नहीं है जितना कि शिया समुदाय के लिए।

4. धार्मिक पुस्तकें और विद्वान

सुन्नी मुसलमानों के लिए हदीस की संग्रहणीय पुस्तकें (जैसे सहीह बुखारी और सहीह मुस्लिम) महत्वपूर्ण हैं। शिया मुसलमानों के लिए भी हदीस महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वे अपनी विशिष्ट हदीस की पुस्तकों का पालन करते हैं, जो उनके इमामों की परंपरा और शिक्षाओं पर आधारित हैं।

शिया और सुन्नी के बीच विवाद के प्रमुख कारण:

1. राजनीतिक प्रभुत्व:

इस्लामिक इतिहास में कई बार शिया और सुन्नी शासकों के बीच संघर्ष हुआ है। खासकर मध्य पूर्व में, ईरान (शिया) और सऊदी अरब (सुन्नी) जैसे देशों के बीच प्रभावशाली क्षेत्रीय प्रभुत्व के कारण शिया-सुन्नी विवाद गहराता गया है।

2. धार्मिक नेतृत्व का सवाल

शिया और सुन्नी के बीच सबसे बड़ा विवाद नेतृत्व को लेकर है। शिया इमामत की मान्यता पर जोर देते हैं, जबकि सुन्नी खलीफाओं की परंपरा को अधिक महत्व देते हैं।

3. आस्था और धार्मिक परंपराएं

दोनों संप्रदायों की धार्मिक परंपराएं और मान्यताएं अलग हैं। विशेष रूप से, आशूरा का शोक, कर्बला का महत्व और इमामों की स्थिति को लेकर मतभेद बने रहते हैं।

4. आधुनिक समय में विवाद

आधुनिक युग में शिया और सुन्नी के बीच विवाद कई देशों में राजनीतिक संघर्षों में भी दिखाई देता है। ईरान और सऊदी अरब जैसे देश शिया-सुन्नी विभाजन के प्रतीक बन गए हैं और यह संघर्ष सीरिया, इराक, लेबनान, और यमन जैसे देशों में भी दिखता है। शिया और सुन्नी संप्रदायों के बीच मतभेद ऐतिहासिक और धार्मिक दोनों हैं, जो पैगंबर मोहम्मद के उत्तराधिकारी के सवाल पर आधारित हैं। यह मतभेद केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक भी हैं। हालांकि, इस्लाम की बुनियादी मान्यताओं में दोनों संप्रदायों में समानता है, लेकिन नेतृत्व, परंपराओं और धार्मिक मान्यताओं में अंतर ने दोनों को अलग-अलग पहचान दी है।

ईरान का इस्लामिक क्रांति से पहले का समय

1979 की इस्लामिक क्रांति से पहले ईरान के संबंध पश्चिमी देशों और इजरायल के साथ अच्छे थे। उस समय ईरान में शाह मोहम्मद रजा पहलवी का शासन था, जो अमेरिका और इजरायल के करीब थे। फिलिस्तीनी मुक्ति आंदोलन के प्रति उनकी नीति उदासीन थी। परंतु, ईरान की इस्लामिक क्रांति ने इस समीकरण को पूरी तरह से बदल दिया।

1979 की इस्लामिक क्रांति और फिलिस्तीन का समर्थन

1979 में ईरान की इस्लामिक क्रांति के बाद, आयतुल्लाह रुहोल्लाह खुमैनी ने फिलिस्तीनी मुद्दे को अपनी प्राथमिकताओं में रखा। खुमैनी ने इजरायल को "इस्लाम का दुश्मन" घोषित किया और 'फिलिस्तीन की स्वतंत्रता' के संघर्ष को धर्म का कर्तव्य बताया। यह क्रांति शिया विचारधारा से प्रेरित थी, लेकिन खुमैनी ने फिलिस्तीनी संघर्ष को शिया-सुन्नी विभाजन से ऊपर रखा। उनके लिए, इजरायल का विरोध और फिलिस्तीनी जनता की मुक्ति इस्लामिक एकता के प्रतीक बन गए।

जायोनीवाद और पश्चिमी प्रभुत्व का विरोध

ईरान का फिलिस्तीन को समर्थन जायोनीवाद के विरोध का हिस्सा है। ईरान इजरायल को एक अवैध और उपनिवेशवादी देश मानता है, जो पश्चिमी शक्तियों, खासकर अमेरिका, के समर्थन से फल-फूल रहा है। ईरान के लिए, इजरायल के साथ संघर्ष सिर्फ एक भौगोलिक या राजनीतिक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह एक वैचारिक संघर्ष भी है जो पश्चिमी प्रभुत्व और साम्राज्यवाद के खिलाफ है। इसलिए, ईरान का फिलिस्तीन के प्रति समर्थन उन ताकतों के खिलाफ लड़ाई का हिस्सा है, जो उनकी नजर में इस्लाम और मध्य पूर्व की संप्रभुता के लिए खतरा हैं।

जायोनीवाद क्या है?

जायोनीवाद (Zionism) यहूदी लोगों के लिए एक राजनीतिक और वैचारिक आंदोलन है, जिसका उद्देश्य यहूदी लोगों के लिए उनके ऐतिहासिक मातृभूमि, फिलिस्तीन (वर्तमान में इजराइल), में एक स्वतंत्र यहूदी राष्ट्र की स्थापना और संरक्षण था। इसका प्रारंभ 19वीं शताब्दी के अंत में यूरोप में हुआ, जब यहूदी लोग नस्लीय भेदभाव और उत्पीड़न का सामना कर रहे थे। थियोडोर हर्ट्जल को आधुनिक जायोनीवाद का संस्थापक माना जाता है। 1948 में इजरायल की स्थापना के साथ, जायोनीवाद का प्रमुख लक्ष्य पूरा हुआ, लेकिन यह आंदोलन आज भी जारी है, जो यहूदी राष्ट्र के संरक्षण और विस्तार पर केंद्रित है।

हमास और हिजबुल्लाह का समर्थन

ईरान ने फिलिस्तीन के कई संगठनों, खासकर हमास को समर्थन दिया है। हमास एक सुन्नी संगठन है, लेकिन इसका मुख्य लक्ष्य फिलिस्तीन की स्वतंत्रता और इजरायल का विरोध है, जो इसे ईरान के साथ जोड़ता है। इसके अलावा, लेबनान में हिजबुल्लाह नामक शिया संगठन, जो ईरान का करीबी सहयोगी है, उसने भी इजरायल के खिलाफ संघर्ष में प्रमुख भूमिका निभाई है। हमास और हिजबुल्लाह के साथ ईरान के घनिष्ठ संबंध दर्शाते हैं कि ईरान शिया और सुन्नी के धार्मिक विभाजन को अपने भू-राजनीतिक उद्देश्यों के तहत सीमित कर देता है।

इस्लामी एकता की राजनीति

ईरान का फिलिस्तीन के प्रति समर्थन इस्लामी दुनिया में उसकी नेतृत्वकारी भूमिका को स्थापित करने का प्रयास भी है। ईरान खुद को पूरे इस्लामी जगत का नेता मानता है, और फिलिस्तीन का समर्थन इस्लामिक एकता को बढ़ावा देने का एक साधन है। फिलिस्तीन मुद्दा पूरे मुस्लिम समुदाय के लिए भावनात्मक और राजनीतिक महत्व रखता है। इस्लामी दुनिया में इजरायल-विरोधी रुख को अपनाकर, ईरान ने कई मुसलमानों के दिलों में जगह बनाई है, चाहे वे सुन्नी हों या शिया। यह नीति ईरान को पूरे इस्लामी जगत में वैधता प्रदान करती है और उसे क्षेत्रीय नेता के रूप में स्थापित करती है।

फिलिस्तीनी नेतृत्व के साथ संबंध

हालांकि, ईरान और फिलिस्तीनी नेतृत्व के बीच संबंध हमेशा सरल नहीं रहे हैं। फिलिस्तीनी लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन (PLO) के यासर अराफात जैसे नेता कभी ईरान के इस्लामिक क्रांति के बाद करीबी सहयोगी थे, लेकिन समय के साथ मतभेद उत्पन्न हुए। फिलिस्तीनी नेतृत्व ने कभी-कभी ईरान के बढ़ते प्रभाव से दूरी बनाने की कोशिश की है, विशेषकर जब अरब देशों और पश्चिमी देशों के साथ शांति प्रक्रिया की दिशा में वार्ता चल रही थी। लेकिन हमास जैसे संगठन, जो फिलिस्तीनी क्षेत्र गाजा पट्टी में अधिक प्रभावी हैं, वे ईरान के समर्थन पर निर्भर रहे हैं।

क्षेत्रीय संघर्ष और वर्तमान स्थिति

ईरान का फिलिस्तीन के प्रति समर्थन आज भी जारी है, लेकिन यह क्षेत्रीय संघर्षों और भू-राजनीतिक समीकरणों से प्रभावित होता रहता है। सीरिया, यमन और इराक में ईरान की भागीदारी ने इसे और अधिक विवादास्पद बना दिया है। कुछ अरब देश, जैसे सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात, जो ईरान के प्रतिद्वंद्वी हैं, वे इजरायल के साथ संबंध सुधार रहे हैं, जिससे फिलिस्तीन के मुद्दे पर विभाजन और बढ़ रहा है। इसके बावजूद, ईरान फिलिस्तीन को अपने रणनीतिक और धार्मिक उद्देश्यों के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा मानता है और इसके लिए समर्थन जारी रखे हुए है।

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