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Republic Day 2020 Special : संविधान के उद्देश्यों की झलक है प्रस्तावना

Republic Day 2020 Special: प्रस्तावना के शब्द न केवल संविधान को अंगीकार किए जाने के पहले की घटनाओं को समाहित करते हैं, बल्कि इनसे  पिछले 70 वर्षों में देश को मजबूती भी मिली है। इसके महत्व को ऐसे...

Manju Mamgain अनुराग भास्कर, नई दिल्लीSun, 26 Jan 2020 08:28 AM
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Republic Day 2020 Special: प्रस्तावना के शब्द न केवल संविधान को अंगीकार किए जाने के पहले की घटनाओं को समाहित करते हैं, बल्कि इनसे  पिछले 70 वर्षों में देश को मजबूती भी मिली है। इसके महत्व को ऐसे समझा जा सकता है कि अदालतें अक्सर प्रस्तावना के दृष्टिकोण के आधार पर संविधान की व्याख्या करती हैं। पेश है अनुराग भास्कर की रिपोर्ट

विधान की प्रस्तावना में उन लोगों का दृष्टिकोण झलकता है, जिन्होंने संविधान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। संविधान के मसौदे को मंजूरी मिलने के बाद इसे लागू करने से पहले संविधान सभा ने यह सुनिश्चित कर लिया था कि प्रस्तावना में संविधान के प्रावधान पूरी तरह से प्रदर्शित हों। दिसंबर 1946 में पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा संविधान सभा में पेश उद्देशिका प्रस्ताव में प्रस्तावना  की नींव पड़ी थी।

इस प्रस्ताव को लाने का उद्देश्य भारत को स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य घोषित करने के साथ भविष्य में संविधान के मुताबिक शासन की रूपरेखा तय करना था। इसके अन्य उद्देश्यों में  लोगों को सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक न्याय,  अभिव्यक्ति व विचारों की आजादी, अवसरों में समानता, धार्मिक स्वतंत्रता और अन्य चीजें शामिल थीं।
 
प्रस्ताव को स्वीकार करते वक्त एक सदस्य ने कहा था कि समानता इसका मुख्य विषय है। दूसरे सदस्य ने इस प्रस्ताव का जोरदार तरीके से समर्थन करते हुए कहा था कि भारतीय गणतंत्र लोकतांत्रिक होने के साथ समाजवादी भी है। इस प्रस्ताव को ज्यादातर सदस्यों ने पूरे उत्साह के साथ अपना समर्थन दिया था और जनवरी 1947 में इसे स्वीकार कर लिया था।

बाद में नेहरू का मानना था कि उद्देशिका प्रस्ताव को कुछ बदलावों के साथ इसे प्रस्तावना के रूप में अंगीकार किया जा सकता है। डॉ. भीमराव आंबेडर की अध्यक्षता वाली मसौदा समिति का मानना था कि प्रस्तावना को नए राष्ट्र की महत्वपूर्ण विशेषताओं और मूलभूत सामाजिक-राजनीतिक उद्देश्यों तक ही सीमित रखना चाहिए।

प्रस्तावना बनाने के लिए समिति ने उद्देशिका प्रस्ताव में लिखी गई बातों में बदलाव किया। इसमें समिति ने संप्रभु स्वतंत्र गणराज्य की जगह संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य के सूत्र वाक्य को अंगीकार किया। समिति का मानना था कि स्वतंत्र शब्द संप्रभु में अंतर्निहित होता है। इसके अलावा समिति ने भाईचारे से जुड़ा एक नया खंड भी जोड़ा। 

अक्टूबर 1949 में प्रस्तावना का मसौदा (जैसा अभी है) संविधान सभा के सामने पेश किया गया। एक सदस्य ने 'ईश्वर के नाम पर' वाक्य प्रस्तावना की शुरुआत में जोड़ने की मांग की। सभा ने प्रस्तावित संशोधन को एक सिरे से अस्वीकार कर दिया। एक अन्य सदस्य का कहना था कि इस वाक्य को जोड़ने से आस्था की आजादी जैसे मूलभूत अधिकार का उल्लंघन होगा। एक और सदस्य का कहना था कि प्रस्तावना में ईश्वर का नाम जोड़ने से संकीर्ण सांप्रदायिक भावना प्रदर्शित होगी, जो संविधान की मूल भावना के खिलाफ मानी जाएगी। इसके बाद सभा ने प्रस्तावना को ठीक उसी रूप में ही स्वीकारा, जैसा  समिति ने तैयार किया था।

प्रस्तावना में यह माना और घोषित किया गया कि लोगों से ही संविधान की मजबूती है। संप्रभुता के साथ उसको अधिकार भी दिए गए हैं। संप्रभु लोकतात्रिक गणतंत्र यह प्रदर्शित करता है कि लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार में जनता सबसे ताकतवर होगी। प्रस्तावना के हर पहलू पर आचार्य कृपलानी ने कहा था कि जाति व्यवस्था में लोकतंत्र ज्यादा प्रभावी नहीं होगा। ऐसे में हमें जाति और वर्गों से दूर रहना होगा।  

डॉ. भीमराव आंबेडकर का  कहना था कि सामाजिक बराबरी और अवसरों में असमानता समाज में पक्षपात को दर्शाती है। स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का सिद्धांत व्यक्ति की प्रतिष्ठता को सुनिश्चित करेगा। 
 
1976 में आपातकाल के दौरान संविधान में 42वां संशोधन कर प्रस्तावना में जोड़े गए धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्दों से इसके स्वरूप में कोई बदलाव नहीं आया। बल्कि यह महज उन बातों का उल्लेख भर है, जो पहले से प्रस्तावना में थे इस बात के समर्थन में तीन बिंदु दिए जा सकते हैं। 

पहला, नेहरू के उद्देशिका प्रस्ताव का समर्थन करते हुए एक सदस्य ने स्पष्ट किया कि आर्थिक लोकतंत्र की बातें और मौजूदा सामाजिक ढांचे को खारिज करना, न्याय- सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक और अवसरों की समानता से झलकता है और यह प्रस्ताव के समाजवादी पहलू को दर्शाता है। दूसरा, ईश्वर से जुड़े किसी वाक्यांश को प्रस्तावना में शामिल न करके संविधान सभा ने संप्रदायवाद की जगह धर्मनिरपेक्ष दस्तावेज को अपनाया। तीसरा, प्रस्तावना संविधान के दर्शन को मूर्त रूप देती है, जो इसके मूल ढांचे में भी है। 

मूल भावना-
भारत का संविधान लिखित संविधान है। इसकी शुरुआत में एक प्रस्तावना भी लिखी है, जो संविधान की मूल भावना को सामने रखती है। इससे यह तात्पर्य है कि भारतीय संविधान के जो मूल आदर्श हैं, उन्हें प्रस्तावना के माध्यम से संविधान में समाहित किया गया। 

 प्रस्तावना-
हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्रदान करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प हो कर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई० (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छह विक्रमी) को एतद संविधान को अंगीकृत, अधिनियिमत और आत्मार्पित करते हैं।

संविधान के स्रोत-
संविधान के स्रोत 'हम भारत के लोग' यानी भारत की जनता। भारत के लोग ही वो शक्ति हैं जो संविधान को शक्ति प्रदान करती है।

स्वरूप-
प्रस्तावना के प्रारंभिक पांच शब्द हमारे संविधान के स्वरूप को दर्शाते हैं।
-संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न : इसका मतलब है कि भारत अपने आंतरिक और बाहरी निर्णय लेने के लिए स्वंतत्र है।
-समाजवादी : संविधान वास्तव में समाजवादी समानता की बात करता है। भारत ने 'लोकतांत्रिक समाजवाद' को अपनाया है।
-पंथनिरपेक्ष : इसका तात्पर्य है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है। जो भी धर्म होगा वह भारत की जनता का होगा।
-लोकतंत्रात्मक : लोकतंत्रात्मक का अर्थ है ऐसी व्यवस्था जो जनता द्वारा जनता के शासन के लिए जानी जाती है।
-गणराज्य : ऐसी शासन व्यवस्था जिसका जो संवैधानिक/ वास्तविक प्रमुख होता है, वह जनता द्वारा चुना जाता है।

अंतिम शब्द उद्देश्य को दर्शाते हैं-
-न्याय : सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्तर पर देश के संविधान के तहत न्याय दिया जाएगा। लेकिन धार्मिक स्तर पर न्याय नहीं दिया जाएगा।
-स्वतंत्रता : इसका अर्थ है कि भारत के नागरिक को खुद का विकास करने के लिए स्वतंत्रता दी जाए ताकि उनके माध्यम से देश का विकास हो सके।
-समता : इसका मतलब यहां समाज से जुड़ा हुआ है, जिसमें आर्थिक और समाजिक स्तर पर समानता की बात की गई है।
-गरिमा : इसके तहत भारतीय जनता में गरिमा की बात की जाती है, जिसमें जनता को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार है।
-राष्ट्र की एकता-अखंडता : भारत विविधता में एकता वाला देश है, जिसे बनाए रखने के लिए प्रस्तावना में कहा गया है।
-बंधुता : इससे तात्पर्य है सभी भारतीय नागरिकों में आपसी जुड़ाव की भावना पैदा होना। इन सभी बातों को प्रस्तावना के माध्यम से संविधान का उद्देश्य बताया गया है।

1950 से  संविधान में 103 संशोधन-
महत्वपूर्ण संशोधन-
-अनुच्छेद 15 में जोड़ा गया खंड 4 राज्य सरकारों को यह ताकत देता है कि वे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के विकास के लिए विशेष प्रावधान कर सकें।
-संशोधित अनुच्छेद 19(2) अभिव्यक्ति की आजादी पर सीमित प्रतिबंध की अनुमति देता है।
-24वां संशोधन (1971) : संशोधित अनुच्छेद 368 और 13 में यह सुनिश्चित किया गया कि संसद भाग तीन सहित संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित कर सकती है। भाग तीन के तहत सभी मूल अधिकार आते हैं।
-42वां संशोधन (1976) :संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द जोड़े गए।
कानून की संवैधानिक वैधता पर सुप्रीम कोर्ट के विचार करने की शक्ति को खत्म करने के लिए अनुच्छेद 32ए को शामिल किया गया।

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