Bihar Board 10th Result 2020 : कम नम्बर जीवन का अंत नहीं, इन बातों का ध्यान रखकर हताश होने की बजाय तलाशें नए अवसर
बिहार बोर्ड 10वीं परीक्षा के रिजल्ट का छात्र और अभिभावक बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, रिजल्ट डिक्लेयर होने के साथ यह लम्बा इंतजार भी आखिरकार खत्म हो गया, लेकिन बिहार बोर्ड 10वीं के नतीजे सभी के लिए एक...
बिहार बोर्ड 10वीं परीक्षा के रिजल्ट का छात्र और अभिभावक बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, रिजल्ट डिक्लेयर होने के साथ यह लम्बा इंतजार भी आखिरकार खत्म हो गया, लेकिन बिहार बोर्ड 10वीं के नतीजे सभी के लिए एक जैसे नहीं है। कोई टॉपर बना है, तो कोई उम्मीद से ज्यादा नम्बर पाकर खुशी से झूम रहा है। इन मिले-जुले नतीजों के बीच कुछ स्टूडेंट्स ऐसे भी हैं, जो अंक पाने की इस दौड़ में पीछे रह गए हैं या उन्हें उम्मीद से कम मार्क्स हासिल हुए हैं। ऐसी परिस्थिति को देखते हुए जरुरत है इन स्टूडेंट्स को की मनोस्थिति समझते हुए इन्हें निराशा से बाहर निकालने की, जिससे कि ये बच्चे 10वीं में मिले अंकों को ही पूरा जीवन न मान लें। ऐसे में न सिर्फ स्टूडेंट्स को हिम्मत से काम लेने की जरुरत है बल्कि उनके माता-पिता की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञ की राय आपकी काफी मदद कर सकती है। ऐसी स्थिति से कैसे निपटना चाहिए, इससे जुड़े सवालों के जवाब दिए मशहूर काउंसलर एंड रिहैबिलिटेशन साइकोलॉजिस्ट डॉ प्रतिभा सिंह ने-
कम नम्बर आने पर आमतौर पर बच्चों की क्या मनोदशा होती है? और इससे निपटने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए?
आमतौर पर कम नम्बर आने पर ज्यादातर बच्चे हताश-निराश हो जाते हैं। साथ ही वे आत्मविश्वास तक खो बैठते हैं। रिजल्ट के बारे में सोच-सोचकर वे काफी दिनों तक परेशान रहने के साथ दूसरे बच्चों से खुद को अलग कर लेते हैं। कई बार वे अकेलेपन का शिकार होकर किसी से बात भी नहीं करते। ऐसे में शुरुआत में ही उनके लक्षणों को गंभीरता से लेना चाहिए। हम सभी जानते हैं कि 10वीं क्लास के बच्चे सोचने-समझने की काफी क्षमता रखते हैं, ऐसे में इस स्थिति से जूझ रहे बच्चों को पहले खुद को तैयार करने की जरुरत है। उन्हें अपने मन की भावनाओं को अपने परिवारजनों और दोस्तों से बांटना चाहिए। उन्हें खुद में यह सोच विकसित करनी चाहिए कि आगे और भी अवसर हैं। 10वीं के परिणाम खुद को साबित करने का आखिरी मौका नहीं है। वहीं, नकारात्मक विचारों से बचने के लिए बच्चों को अपनी हॉबी की ओर मुड़ना चाहिए। इससे वे ओवर थीकिंग से बचकर सृजनात्मकता की ओर मुड़ सकते हैं।
कई बार ऐसा सुनने-देखने को मिलता है कि कम नंबर आने पर कई बार बच्चों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति आ जाती है? ऐसे में उनके लिए क्या सुझाव है?
बच्चे खुद को नुकसान पहुंचाने के विषय में तब सोचते हैं, जब उन्हें लगता है कि वे खुद को साबित नहीं कर पाए और अपने माता-पिता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाए हैं। इस स्थिति में वे खुद को महत्वहीन समझने लगते हैं। ऐसे में परिवार की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है और उन्हें अपने बच्चों को समझाना चाहिए कि कम नम्बर आना उनके महत्व को कम नहीं करता और न ही यह उनके स्वंय का आंकलन है। वे केवल एग्जाम में असफल या कम नम्बर लाए हैं। आगे और भी अवसर हैं, वे खुद को आगे की कक्षाओं में साबित कर सकते हैं।
भविष्य के लिए खुद को मोटिवेट कैसे करें?
भविष्य नई चुनौतियों के साथ नए अवसरों का मंच है। जिसकी तैयारी के लिए वे छोटे-छोटे लक्ष्य बना सकते हैं। इन लक्ष्यों का समय समय पर आंकलन भी करते रहना चाहिए कि इनमें से कितने लक्ष्यों को वे पूरा कर पाए हैं। ये छोटे लक्ष्य उन्हें जीवन के बड़े-बड़े फैसले और कॅरियर के चुनाव में मदद करेंगे। इसके अलावा उन्हें उन लोगों के बारे मे पढ़ना चाहिए, जो कॅरियर की शुरुआत में असफल हुए थे लेकिन उन्होंने फिर से खड़े होकर दुनिया के सामने मिसाल पेश की।
फेल या कम नम्बर लाने वाले बच्चों के माता-पिता की क्या जिम्मेदारी होनी चाहिए? उन्हें किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
कम नम्बर या फेल होने पर माता-पिता को डांटने, कोसने या तुलन करने की आदत से बचना चाहिए। उन्हें बच्चों को प्रोत्साहित करते हुए बताना चाहिए कि वे आगे भी बेहतर कर सकते हैं। साथ ही उन्हें बच्चों की परेशानी जाननी चाहिए, जिससे कि उनके कम नम्बर आए हैं। बच्चों के साथ भावात्मक तौर पर जुड़े रहने के साथ उनके साथ हल्की-फुल्की बातचीत करनी चाहिए, जिससे कि निराशा उन पर हावी न हो और वे निराश न हो।
आमतौर पर बच्चों को कम नम्बर आने पर दुनिया का सामना करने से डर लगता है? ऐसे में उन्हें क्या करना चाहिए?
कम नम्बर आना किसी भी प्रकार से बच्चों की स्वयं की पहचान (self identity) से जुड़ा मामला नहीं होता। कम या ज्यादा नम्बर लाना उनकी जिंदगी का एक पड़ाव है, जो उनकी अकेडमिक परफॉर्मेस को ही दर्शाते हैं। इसे पूरी तरह काबिलियत से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। उन्हें खुद को समझाना होगा कि उनकी आत्मा से बड़ा कोई नहीं है। किसी के अच्छे या बुरा कहने से उनके अंकों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उन्हें आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़कर लोगों का सामना करना चाहिए। उन्हें भविष्य के लिए रणनीति बनानी चाहिए जिससे कि उनका व्यक्तित्व और उनका प्रदर्शन दोनों निखरकर सामने आ सके।
माता-पिता और बच्चों को 'चार लोग क्या कहेंगे' सिंड्रोम से निपटने के लिए क्या सोच विकसित करनी चाहिए?
माता-पिता और बच्चों को यह समझना चाहिए कि हर इंसान अलग होता है इसलिए दो लोगों की तुलना करने पर उनमें कभी भी समानता नहीं मिलेगी। ऐसा करके वे सिर्फ किसी एक का महत्व कम कर लेते हैं। साथ ही माता-पिता कभी भी बच्चे के प्रदर्शन या तरक्की को अपने दिखावे का जरिया न बनाएं। यदि परिवार के लोगों में आपसी समय और सामंजस्य है तो दूसरी की बातों का असर नहीं पड़ता है।
आप चुनौतियों से निपटने वाले बच्चों को क्या मंत्र देना चाहेंगी?
हर नई सुबह के साथ हमें कुछ बेहतर करने का मौका मिलता है। हमें उस मौके का पूरा लाभ उठाने की कोशिश करनी चाहिए। मन के किसी कोने में निराश को हटाकर यह बात हमेशा के लिए बैठा लीजिए कि ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’
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