Hindi Newsबिज़नेस न्यूज़Gandhi Jayanti Special The indigo farming of Champaran Satyagraha is now brightening the fortunes of farmers

Gandhi Jayanti Special: महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह का नील अब किसानों की चमका रहा किस्मत

Gandhi Jayanti Special: अंग्रेज जिस नील की खेती की आड़ में किसानों का खून चूस रहे थे, वही नील की खेती अब भारत के किसानों को आर्थिक रूप से समृद्ध कर रहा। आज भारत के कई राज्यों में नील की खेती हो रही है

Drigraj Madheshia लाइव हिन्दुस्तान, नई दिल्लीMon, 2 Oct 2023 08:11 AM
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2 October Special: अंग्रेज जिस नील की खेती के लिए किसानों का खून चूस रहे थे, वही नील की खेती अब भारत के किसानों को आर्थिक रूप से मजबूत कर उनकी किस्मत संवार रही है। आज नील की खेती उत्तर प्रदेश,  बिहार, बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड के कई इलाकों में की जा रही है। जहां तक उत्तर प्रदेश की बात है तो लखनऊ में तालकटोरा इंडस्ट्रियल इलाके में स्थित एएमए हर्बल की फैक्ट्री में बाराबंकी में पैदा हुई नील की खपत डेनिम के लिए बायो डाई बनाने में हो जाती है। 

सिंथेटिक इंडिगो की जगह बायो इंडिगो का प्रयोग

यह जानकारी पिछले दिनों ग्रेटर नोएडा में लगे इंटरनेशनल ट्रेड फेयर शो के दौरान एएमए हर्बल नामक एक कंपनी के स्टॉल से मिली। कंपनी के को-फाउंडर व सीईओ, यावर अली शाह कहते हैं, "हमने लागत को कम करने और मुनाफे में सुधार के उद्देश्य से लखनऊ के बाहरी इलाके में नील की खेती शुरू की थी। अब उसके बेहद उत्साहजनक परिणाम सामने आ रहे हैं।

नील की खेती केवल किसानों के लिए ही लाभदायक नहीं बल्कि एक किलोग्राम सिंथेटिक इंडिगो की जगह बायो इंडिगो का प्रयोग किया जाए तो कम खर्च और प्रयास में 10 किलोग्राम तक कार्बन फुटप्रिंट को कम किया जा सकता है। लाइफ साइकल एनालिसिस (एलसीए) रिपोर्ट में भी इस तथ्य की पुष्टि हुई है। नील की खेती ने कपड़ा उद्योग के लिए लगातार प्रदूषण के बढ़ते स्तर की समस्या से निपटने के लिए एक बेहतरीन विकल्प तैयार किया है।" 

एएमए हर्बल के वाइस प्रेसिडेंट, सस्टेनेबल बिजनेस अपॉर्चुनिटीज हम्ज़ा ज़ैदी के मुताबिक, " बाराबंकी और आसपास के इलाके में किसान परंपरागत तरीके से मेंथा की खेती करते आए हैं, जिसकी लागत अधिक पड़ती है, जबकि नील या इंडिगो की खेती से उन्हें पहले से लगभग 30 फीसदी अधिक का लाभ प्राप्त हुआ, जो उनके लिए काफी उत्साहवर्धक रहा। नील की खेती के लिए किसी तरह के रासायनिक खाद या कीटनाशकों का प्रयोग नहीं किया जा रहा है। "

क्या है नील की खेती का इतिहास?

नील की खेती सबसे पहले 1777 में बंगाल में शुरू की गई थी। यूरोप में नील की मांग अधिक होने के कारण अंग्रेजों के लिए यह फायदे का सौदा था। अंग्रेज भारत में नील की खेती मनमाने ढंग से करवा रहे थे। अंग्रेजों के खिलाफ चंपारण सत्याग्रह से नील की खेती करने वाले किसानों को संगठित कर महात्मा गांधी ने आन्दोलन की आधारशीला रखी थी। यहां नील की खेती के लिए सदियों से प्रसिद्ध रहा। किसानों पर तीन कठिया प्रथा लागू कर अंग्रेज जबरन नील की खेती कराते थे। नील की खेती नहीं करने वाले किसानों के जमीन को नीलाम करने के साथ-साथ बेरहमी से पिटाई की सजा भुगतनी पड़ती थी। अंग्रेजों की क्रूरता से परेशान होकर नील के किसानों ने आन्दोलन का मन बनाया और महात्मा गांधी को नेतृत्व करने के निमंत्रण दिया था।

नील किसानों की हालत बदतर होती जा रही थी। अंग्रेज और जमींदार दोनों मिलकर नील की खेती के लिए ही भारतीय किसानों को प्रताड़ित करते थे। किसानों को बाजार के भाव का महज 2 से 3 प्रतिशत तक मिलता था। इसके बाद 1833 में एक अधिनियम ने किसानों की कमर तोड़ दी और उसके बाद ही नील क्रांति का जन्म हुआ। उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए सबसे पहले 1859-60 में बंगाल के किसानों ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई।

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