सबरीमाला के आलोक में अयोध्या
केरल पुलिस के महानिरीक्षक टेलीविजन कैमरों में आंख मिलाते हुए शेखी बघार रहे थे- ‘हमने पर्याप्त पुलिस बल तैनात कर दिया है। हम और हमारे जवान किसी को भी कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं देंगे।...
केरल पुलिस के महानिरीक्षक टेलीविजन कैमरों में आंख मिलाते हुए शेखी बघार रहे थे- ‘हमने पर्याप्त पुलिस बल तैनात कर दिया है। हम और हमारे जवान किसी को भी कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं देंगे। माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पूरा पालन होगा। हम यह सुनिश्चित करेंगे कि किसी भी श्रद्धालु को भगवान अयप्पा के दर्शन से रोका न जाए।’
क्या वह सच बोल रहे थे? गुजरे बुधवार को सबरीमाला के हालात इसकी कहानी बयान कर रहे थे।
उनकी इस गर्वोक्ति के कुछ देर बाद ही आंध्र प्रदेश के गोदावरी जिले से आई दो महिलाओं के साथ जो हुआ, वह अकल्पनीय था। वे महिलाएं किसी तरह पंबा स्थित बेस कैंप पार तो कर गई थीं, पर परंपरावादियों की नजरों से बच न सकीं। प्रदर्शनकारियों ने सुनिश्चित किया कि हताश और अपमानित ये महिलाएं बस में बैठकर अपने घर लौट जाएं। उनके साथ दो सिसकते बच्चे भी थे। भयभीत और नितांत असुरक्षित, पर नारे लगाते ‘श्रद्धालु’ विचलित न हुए। जब यह सब हो रहा था, तब पुलिस कहां थी? टीवी के कैमरे इस घटना को कैद कर सकते थे, पर क्या पुलिस प्रदर्शनकारियों को रोक नहीं सकती थी?
साफ था, विशालकाय पुलिस बल से क्रुद्ध जत्थे बेखौफ थे। वे मंगलवार से महिलाओं पर पाबंदी थोपने को सन्नद्ध थे। पिछली रात टीवी पर देखा, वह दृश्य तो और अधिक सिहरन पैदा करने वाला था। कहीं दूर से एक दर्शनार्थी युगल वहां पहुंचा था, पर ‘बेस कैंप’ से पहले ही उस जोड़े को घेर लिया गया। तथाकथित श्रद्धालुओं ने पति के सामने ही पत्नी की पिटाई कर दी। आत्मरक्षा की आशा में पति के सीने से चिपकी उस बेबस और बिलखती युवती को देखकर तरस आ रहा था। वे अकेले ऐसे मजबूर नहीं थे। महिलाओं की अगुवाई में लोगों के जत्थे बसों और सवारी गाड़ियों की जांच कर रहे थे। 10 से 50 वर्ष के बीच की कोई महिला मंदिर तक न पहुंच सके, इसका पुख्ता इंतजाम था। उनकी नजर में हर महिला संदिग्ध थी और प्रताड़ना की पात्र भी। तमाम महिला पत्रकार उनके आक्रोश की शिकार हुईं। वे पिट रही थीं और पुलिस मौन थी।
पुलिस भी क्या करती? उसके राजनीतिक आका खुद दुविधा में थे। केरल में देश की अकेली वामपंथी हुकूमत है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला उनकी नीतियों से मेल खाता है, पर ऐसा कई बार लगा कि वे भी धर्म की धधकती ज्वाला में हाथ डालने से कतरा रहे थे। विवाद के ये दिन भारतीय राजनीति के लिहाज से दुर्लभ थे। ऐसा लगता था, जैसे भाजपा और कांग्रेस एक ही मंच पर आ खड़े हुए हैं। उनके लिए सवाल किसी की आस्था या विश्वास का नहीं, बल्कि वोट का है। 2019 के आम चुनाव सिर पर हैं। ऐसे में, बहुसंख्यक संवेदनाओं को छेड़ने का जोखिम भला कौन ले?
यही वजह है कि आला अदालत के आदेश के बावजूद बुधवार को महिलाओं को अयप्पा के दर से खाली निराश लौटना पड़ा। ये पंक्तियां लिखे जाने तक विधि अपनी बनाई व्यवस्था के सामने विवश थी। हो सकता है, जब तक ये पंक्तियां आप तक पहुंचें, कुछ महिलाएं दर्शन कर चुकी हों, पर यह मामला महज दर्शन-पूजन का नहीं है। इससे इस देश की आधी आबादी का दर्द जुड़ा हुआ है। इन दृश्यों ने खुद मेरे दिमाग में बेसुध पड़ी बचपन की कड़वी यादों को जगा दिया।
मेरे पितामह पांच गांवों की अपनी जमींदारी छोड़कर संन्यासी बन गए थे। अति-वृद्धावस्था के कारण पिता आखिरी दिनों में उन्हें आश्रम से घर ले आए थे। उनके साथ ही आश्रम के कड़े नियम-कायदे भी सरकारी अधिकारियों के लिए आवंटित होने वाले आवास पर खुद-ब-खुद लागू हो गए थे। वह दंडी स्वामी थे, इसलिए सिर्फ गंगाजल पीते, उसी से नहाते और घर के सदस्यों को उन्हें ‘स्वामीजी’ कहना होता। वह माया-मोह के बंधनों से दोबारा न जुड़ने के लिए वचनबद्ध थे और अपनी अंतिम सांस तक इसे निभाना चाहते थे। मैं उन दिनों इलाहाबाद के एक नर्सरी स्कूल में पढ़ता था।
उम्र के हिसाब से समझ भी छौनी थी, पर प्रश्नाकुलता परेशान करती थी। अक्सर देखता कि कल तक हंसती-हंसाती मां अचानक खुद को एक कमरे तक सीमित कर लेती थीं। वह रसोई में नहीं घुसतीं और मेरे दादाजी के कामों से खुद को समूचे तौर पर अलग कर लेतीं। पूछने पर बताया जाता कि वह बीमार हैं। मैं उनके पास जाता, माथा या हाथ छूता और कहता कि आपको तो बुखार नहीं है, आप खांस भी नहीं रही हैं, फिर आप कैसी बीमार हैं? वह हंसतीं और कहतीं कि बड़े होने पर सब समझ में आ जाएगा।
उन दिनों आसपास की ‘आंटियों’ का भी यही हाल था। अगर कई परिवार एक साथ मंदिर जाते, तो उनमें से एक या दो महिलाएं बाहर रह जातीं। कारण वही, वे बीमार हैं। बड़ा होने पर इस बीमारी का रहस्य तो समझ में आ गया, पर एक सवाल आज भी परेशान करता है कि महीने के तीस दिनों में पांच दिनों की यह ‘बीमारी’ एक समर्थ इंसान की उत्पादकता का कुल जमा छठा हिस्सा होती है। हर महीने उसकी ऊर्जा और ऊष्मा से समाज को कैसे वंचित रखा जा सकता है? सदियों का यह सिलसिला हमारे हिन्दुस्तानी समाज और सभ्यता की तमाम परेशानियों का कारण रहा है। सबरीमाला का विवाद इसी से बावस्ता है।
अयप्पा मंदिर के बाहर जान देने और लेने पर आमादा लोग यह क्यों भूल गए कि कभी हमारे पूर्वजों ने सती प्रथा, बाल-विवाह और दहेज जैसी कुरीतियों से ऐसे ही लोहा लिया था? समय के अनुरूप जो खुद को प्रोन्नत न कर सके, वह परंपरा चिर-स्थाई नहीं होती। भरोसा न हो, तो अपने देश का इतिहास उठाकर देख लीजिए। सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा। पर करें क्या? शुतुरमुर्गों की तरह आत्मघाती व्यवहार हमारी आदतों में शुमार है।
एक बात और। सबरीमाला के आलोक में अगर हम अयोध्या के मसले को आंकें, तो हर तरफ आशंकाओं के बगूले उठते नजर आएंगे। यह मुद्दा एक खास इलाके से संबंधित है। अयोध्या का विवाद इससे कई गुना बड़ा है। राम मंदिर के मामले में अदालत का फैसला किसी एक पक्ष से जुड़े करोड़ों लोगों को मन मुताबिक नहीं लग सकता है। ऐसे में, वहां क्या होगा?
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