कोरोना डायरी -7 : जो काम का नहीं, वो नाम का भी नहीं
28 मार्च 2020, रात 8 बजे लॉकडाउन आज अपना चौथा दिन तमाम कर रहा है।पुलिस की कड़ी नाकेबंदी के बावजूद दिल्ली की सीमा पर लाखों जलावतन मजदूरों की भीड़ जमा है। वे अपने कुटुंब को...
28 मार्च 2020, रात 8 बजे
लॉकडाउन आज अपना चौथा दिन तमाम कर रहा है।पुलिस की कड़ी नाकेबंदी के बावजूद दिल्ली की सीमा पर लाखों जलावतन मजदूरों की भीड़ जमा है। वे अपने कुटुंब को लेकर जल्द-से-जल्द ‘मुल्क’को लौट जाना चाहते हैं। वे जानते हैं कि कोई वहां उनके लिए पलक-पांवड़े नहीं बिछाये बैठा पर परदेस की मौत से अपनी मिट्टी से अच्छा- बुरा जो मिल जाए , वही सही । जिंदगी की डगमगाती कश्ती पर सवार ये लोग करें भी तो क्या करें? दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, हैदराबाद, बंगलूरू और जयपुर जैसे शहरों ने अपना चरित्र दिखा दिया है।जो काम का नहीं, वो नाम का भी नहीं।
उत्तर प्रदेश की सरकार ने आज एक हजार बसें सड़कों पर उतार दी हैं-उन लोगों को पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार भेजने के लिए। ये काफी हैं या नाकाफी, मालूम नहीं पर जन-ज्वार है, राजपथों पर उमड़ता चला आ रहा है। ग़ुरबत के मारे मानो मुनादी कर रहे हैं कि हमारे एक्सप्रेसवेज़ तब तक किसी काम के नहीं, जब तक आम हिन्दुस्तानी इन पर पैदल घिसटने को मजबूर है। जो पैदल चल पड़े हैं, उन्हें भी इस बात का इल्म नहीं कि वे घर पहुंचेंगे भी या नहीं? पहुंचेंगे भी तो किस हाल में? दो त्रासदियों से आपकी मुलाकात करवाता हूं।
दिल्ली से मुरैना जाने के लिए रणविजय सिंह पैदल ही निकल पड़े थे। कल रात वे अपने जत्थे के साथ आगरा के कैलाश मोड़ पर पहुंचे पहुंचे ही थे कि बेहोश होकर गिर पड़े। जब तक डॉक्टर उन्हें देखते, प्राण-पखेरु उड़ चले थे। पुलिस द्वारा जेबें तलाशी गईं, बैग खंगाला गया तो पता चला कि वे दिल्ली के तुगलकाबाद स्थित खाना-खजाना रेस्टोरेंट में डिलिवरी ब्वाय थे। क्या हुआ था रणविजय को? कौन जाने बस वक्त उनके ऊपर से होकर गुजर चुका था।अब पोस्टमार्टम रिपोर्ट बताएगी कि उनके पेट में दाना था या नहीं? उन्होंने कुछ खाया था या नहीं? खाया था, तो कब खाया था? पर एक अनाम मौत के इस उलझे हुए गणित में किसी को क्या दिलचस्पी! इसी तरह सिद्धार्थनगर से रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली आए विवेक तिवारी कैंसर की तीसरी स्टेज से लड़ रहे थे। वे जानते रहे होंगे कि जिंदगी हर पल साथ छोड़ती जा रही है। आशंकित भी रहे होंगे कि कहीं दिल्ली में ही गुजर गया तो, अबोध बच्चे अंतिम क्रिया भी कर पाएंगे या नहीं? लिहाजा, जीर्ण-शीर्ण मोपेड उठाई, पत्नी के साथ दो बच्चों को बैठाया और गंतव्य की ओर निकल पड़े। सिकंदराराऊ तक ही पहुंचे थे कि तबीयत खराब होने लगी ।देखते-देखते उन्होंने दम तोड़ दिया। बच्चों और बीवी के पास फ़कत चंद आंसुओं के कुछ न था। तमाशबीन-तो-तमाशबीन, वे सिर्फ तमाशा देख सकते हैं। भीड़ थी पर मददगार नहीं। यहां भी ‘हिन्दुस्तान’ आगे आया।
हमारे संवाददाता राजेश महाजन ने प्रशासन के सहयोग से विवेक तिवारी के लिए एंबुलेंस की व्यवस्था कराई ताकि विवेक तिवारी की देह और बीवी बच्चे सुदूर नेपाल की सीमा पर स्थित सिद्धार्थनगर तक पहुंच जाएं। पत्रकारिता के इस लम्बे दौर में दर्द देखा, दंगे देखे, अराजकता देखी और आतंकवाद को भी नजदीक से परखा, पर ऐसी विवशता आज से पहले कभी नहीं देखी।सड़कों पर मरने वाले इन लोगों को भी भारत का संविधान जीने- खाने का हक़ देता है ।वाक़ई ? अरविंद केजरीवाल कह रहे हैं कि दिल्ली मत छोड़िए। हमने चार लाख लोगों के भोजन का इंतजाम किया है। कल इसे बढ़ाकर साढ़े चार लाख कर दिया जाएगा। दिल्ली दिल दिखाएगी और सबका पेट भरेगी। योगी आदित्यनाथ सबको गंतव्य तक पहुंचाने की व्यवस्था कर रहे हैं। उनकी हुकूमत भी लोगों तक भोजन पहुंचाने का प्रबंध कर रही है। उधर नीतीश कुमार कह रहे हैं कि जो लोग जहां हैं, वे वहीं रुक जाएं। वहां की सरकारें उनके रहने-खाने का इंतजाम करें। यह लॉकडाउन का उल्लंघन होगा। पता नहीं कौन सही है, कौन गलत?दिल्ली खाना खिला रही है, फिर भी भूख के मारे दिल्ली से जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश वाहन मुहैया करवा रहा है, फिर भी लोग सड़कों पर अटके पड़े हैं। बिहार और झारखंड की सांस फूल रही है कि जो लोग लौटेंगे वे अपने साथ न जाने कैसी बला लाएंगे? इन राज्यों में ही बूता होता तो भला वहां से हर रोज पलायन क्यो होते? ऐसे में पता नहीं कितने लोग रास्ते में दम तोड़ेंगे, पता नहीं कितने विवेकों की खाक वहां पहुंचेगी ,जहां का खमीर था?
वहां पहुंचकर भी जिएँगे तो कैसे जिएंगे? साफ़ है हड़बड़ी में किया गया लाकडाउन इन ग़रीबों पर भारी पड़ गया है । ऐसा हमेशा होता आया है । न होता तो हाशिए पर पड़े इन लोगों की मौत हरबार हादसा नहीं कहलाती । आज उत्तर प्रदेश के एक अवकाश प्राप्त मुख्य सचिव का फोन आया। वे कह रहे थे कि सरकारों ने सही तरीके से काम नहीं किया। कायदे से गांवों के स्कूलों में ऐसे लोगों को ठहरा देना चाहिए था। इनके परिजन इन्हें खाना दे जाते, जो ठीक हैं, वे गेहूं की फसल भी काट देते। नौकरशाहों की बात निराली है। वे जब पद पर होते हैं, तो उनका रवैया कुछ और होता है। सेवा निवृत्त होने के बाद उनके पास हर समस्या का चालू समाधान होता है। ऐसा ज्ञान बाँटते वक़्त वे भूल जाते हैं कि नौकरशाही रिले रेस की तरह चलती है , जहां चेहरे बदल जाते हैं पर बैटन वही रहता है । इस महामारी ने सिर्फ इंसानों को नहीं, जानवरों को भी हलकान कर दिया है। एक एडवाइजरी जारी की गई है कि यदि आप अपने आसपास किसी कुत्ते को देखें, तो उसे खाने को कुछ अवश्य दे दें। भूखे कुत्ते आदम खोर बन जाते हैं और जानवर मरखने।
सावधान! कोरोना आप पर तरह-तरह से हमला कर रहा है।
क्रमश:
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