कोरोना डायरी-12 : डंडे और फोटो का फर्क

4 अप्रैल 2020, शाम  7 बजे  कोरोना का दानवी पंजा अपनी पकड़ हर रोज मजबूत करता जा रहा है। ऐसे मे जरूरी है कि इंसान, इंसान के करीब आए पर ऐसा हो कहां रहा है? कल से आज तक खबरों के महासागर...

Amit Gupta शशि शेखर , नई दिल्लीSat, 4 April 2020 10:31 PM
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कोरोना डायरी-12 : डंडे और फोटो का फर्क

4 अप्रैल 2020, शाम  7 बजे 

कोरोना का दानवी पंजा अपनी पकड़ हर रोज मजबूत करता जा रहा है। ऐसे मे जरूरी है कि इंसान, इंसान के करीब आए पर ऐसा हो कहां रहा है? कल से आज तक खबरों के महासागर में डूबने-उतराने के बाद सिर्फ एक अच्छी खबर मिली, जो सुकून देती है।

स्विट्जरलैंड ने घोषणा की है कि वो इटली के कोरोना पीड़ितों को अपने अस्पतालों में जगह देने पर विचार कर रहा है। यूरोप अपने अंदरूनी विभेदों के बावजूद इस तरह के कुछ साझा तार जोड़कर रखता है। हो सकता है कि कल कुछ और देश इस दिशा में आगे आएं। संकट अगर समूची धरती का है, तो इसके वाशिंदों को एक तो होना पड़ेगा। COVID-19 ने अपने पांव सरहदों को बिना पहचाने पसारे हैं। इससे लड़ाई भी ऐसे ही लड़नी होगी पर यह नामुमकिन है । अमेरिका का उदाहरण लें। अब तक यह महादेश ऐसी आपदाओं के वक्त में एक चतुर महाजन की तरह इमदाद मुहैया करा देता था। मैंने उसके लिए इस विशेषण का इसलिए उपयोग किया, क्योंकि किसी खुर्रांट सूदखोर की भांति अमेरिका ने हमेशा अपनी इमदाद की बड़ी कीमत वसूल की है। इस वक्त ह्यधरती का स्वर्गह्ण खुद नर्क में तब्दील हो गया है। पिछले चौबीस घंटों में वहां एक हजार से अधिक लोग अकाल काल कवलित हो चुके हैं। हर नये पल के साथ वहां के लोग सिहर-सिहर उठते हैं। यदि उनके घर में कोई बीमार है, तो उसका क्या होगा? कहीं परिवार का एक और सदस्य तो उसकी चपेट में नहीं आ जाएगा? क्या पता कब यह वायरस हमें भी चपेट में ले ले?

अमेरिका और यूरोप के बाद शंकाएं, आशंकाएं और अधीरताएं समूची दुनिया में फैलती जा रही हैं। सवाल उठता है कि जब धनी-मानी देश इसके सामने अवश-विवश नजर आ रहे हैं, तो गरीब मुल्कों का क्या होगा? अमेरिका के डॉक्टर और नर्स साधनहीनता की दुहाई दे रहे हैं। हमारे तमाम अस्पताल तो प्राथमिक सुविधाओं तक से लैस नहीं हैं। बातें हम भले ही कितनी बड़ी करते हों, पर सच यह है कि पहाड़ी, समुद्री और रेगिस्तानी इलाकों के बहुत से गांवों में आज भी अगर कोई युवती गर्भवती होती है, तो उसे सलाह दी जाती है कि अपने मायके हो आओ, कहीं प्रसव के दौरान कुछ हो न जाए? आपको यह बताते हुए भी मेरे दिमाग में एक तस्वीर कौंध रही है। लगभग दो-तीन महीने पहले हमने कश्मीर के दुर्गम इलाके की फोटो छापी थी। कई लोग एक जुगाड़ की स्ट्रेचर पर गर्भवती महिला को टांगे ले जा रहे थे। चिकित्सा और स्वास्थ्य के मामले में हम आदिम युग में जी रहे हैं।

पिछले दिनों तमाम राज्यों से ऐसी रिपोर्ट आईं जिनमें बताया गया है कि कोरोना मरीज का इलाज करने वाले चिकित्सा कर्मियों के पास जरूरी ड्रेस ही उपलब्ध नहीं हैं। यह तो दूर-दराज की बात थी, देश की राजधानी दिल्ली के बेहतरीन गंगाराम अस्पताल के दर्जनों चिकित्सा कर्मियों को क्वारंटीन कर दिया गया है। अगर हालात बिगड़े, तो हमारे चिकित्सा कर्मियों के लिए खतरा और बढ़ जाएगा। यह हमारी स्थायी हतभागिता है की  ऐन जंग के समय हमें मालूम पड़ता है कि हमारे जवान सामरिक साज-ओ-सामान से लैस नहीं है। अमेरिका और यूरोप में निजी अस्पताल इस महामारी से लड़ने में अपनी सरकारों की मदद कर रहे हैं। भारत में अभी तक बड़ी अस्पताल शृंखलाएं इस मामले में खुल कर आगे नहीं आई हैं। गिने-चुने निजी अस्पताल हैं, जो इसका इलाज कर रहे हैं। सरकार और निजी स्वास्थ्य सेवाओं के बीच तालमेल अगर नहीं बढ़ा, तो आने वाले दिनों में दिक्कत हो सकती है।

देश को चाहिए कि वह ऐसे मुद्दों पर विचार कर इनका हल जल्दी से खोजे कि आखिर हम कर क्या रहे हैं? इसके उलट  सारी बहस तबलीगी जमात और धार्मिक मुद्दों पर आ टिकी है। यह ठीक है कि जमात के लोगों ने देश में करोना के प्रसार में आपराधिक भूमिका अदा की है पर इसके साथ ही हमें और मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा। अब तक जितने मरीज सामने आए हैं, उनमें एक-तिहाई तो सिर्फ जमात के सदस्य हैं। अगर उनके संपर्क में आने वाले भी इस वायरस की चपेट में आ गए, तो पता नहीं यह आंकड़ा कहां पहुंचेगा? अच्छा होता कि दिल्ली का पुलिस प्रशासन इस जमात को मरकज करने ही नहीं देता या समय रहते इसके सदस्यों को निजामुद्दीन से बाहर निकाल देता।  इस ढिलाई का एक ही प्रायश्चित है कि चिकित्सा सुविधाओं को जल्दी इस लायक बना लिया जाए कि वे संकट की स्थिति में आम आदमी की जीवन रक्षा कर सकें।

एक और चुनौती राज्य तथा केन्द्र सरकारों के  सामने आने वाली है। यदि किसी भी शक्ल में पाबंदियां जारी रहीं तो जरूरी चीजों की किल्लत पैदा हो सकती है। कारखाने बंद हैं, ट्रकों के पहिए थमे हुए हैं, खेतों से मजदूर गायब हैं, सब्जियां-फल सड़ रहे हैं और भारी मात्रा में दूध खेतों में बहाया जा रहा है। यही हाल रहा तो गेहूं की भी दुर्गति होने वाली है। ऐसे में कारगर व्यवस्था बनाना चुनौती का काम है। ऐसा नहीं हैं कि सरकारें सो रही हैं। केन्द्र सरकार ने उस समय में लॉकडाउन कर दिया था, जब अधिकांश देश इसके बारे में सोच ही रहे थे। जिन्होंने देरी की, वे इसका दुष्परिणाम भुगत रहे हैं। जर्मनी ने कोरोना पीड़ितों के मामले में चीन को पीछे छोड़ दिया है। वहां की सरकार अभी तक असमंजस में है और जागरूक नागरिक तक मांग करने लगे हैं कि लॉकडाउन लागू करो। मैं ऐसे मुख्यमंत्रियों को भी जानता हूूं जो दिन और रात एक किये हुए हैं।

हमें भूलना नहीं चाहिए कि आपदा से लड़ने का सबसे बढ़िया तरीका आपसी सहयोग और भरोसा है। हिन्दुस्तानियों को यह कायम रखना होगा पर यह हो कैसे? हम तो गैरजरूरी मुद्दो में सिर खपाए बैठे हैं।इस सारे तमाशे के बीच एक खबर विहार से आई है । बिला वजह डंडा चलाने का आरोप झेलनी वाली पुलिस ने लॉकआउट तोड़ने वालों को माला पहनानी शुरू कर दीं है । आँखों में न सही दिल के किसी अंधेरे कोने में अगर शर्म बची हो तो शायद ऐसे जाग जाए। 

क्रमश:

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