Hindi Newsओपिनियन नजरियाHindustan Times Health Editor Sanchita Sharma article in hindustan on 01 november

नौनिहालों के लिए खतरनाक है धुंध की यह चादर

शनिवार को द गार्जियन  को दिए एक इंटरव्यू में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के डायरेक्टर जनरल डॉक्टर टेड्रोस अधनोम गेब्रेयेसस ने कहा कि वायु प्रदूषण ‘नया तंबाकू’ है, जो हर साल 70...

संचिता शर्मा, हेल्थ एडीटर, हिन्दुस्तान टाइम्स Thu, 1 Nov 2018 12:45 AM
share Share

शनिवार को द गार्जियन  को दिए एक इंटरव्यू में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के डायरेक्टर जनरल डॉक्टर टेड्रोस अधनोम गेब्रेयेसस ने कहा कि वायु प्रदूषण ‘नया तंबाकू’ है, जो हर साल 70 लाख लोगों की जान लेता है और अरबों को बीमार करता है। अनुमान है कि दुनिया की 91 फीसदी आबादी विषैली वायु में सांस ले रही है। घर से बाहर की खराब आबोहवा 42 लाख लोगों और घर के अंदर घरेलू ईंधन 38 लाख इंसानों की जान ले रहे हैं। जाहिर है, पर्यावरण से जुड़ी दुनिया की यह सबसे बड़ी स्वास्थ्य चुनौती है। 

स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2018 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में वायु प्रदूषण की वजह से 11 लाख लोग दम तोड़ते हैं। अस्थमा के अलावा वायु प्रदूषण की वजह से मस्तिष्क आघात, क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव प्ल्मोनरी डिजीज, हृदय रोग, फेफड़ों का संक्रमण और श्वांस नली और फेफडे़ के कैंसर आदि हो सकते हैं। जहां तक बच्चों का सवाल है, उनके लिए तो मुश्किलें गर्भ से ही शुरू हो जाती हैं, जो जन्म लेने के तुरंत बाद और बचपन के शुरुआती वर्षों तक जारी रहती हैं। यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सोमवार को जारी अपनी नई रिपोर्ट में ‘वायु प्रदूषण और बच्चों की सेहत’ का खास तौर पर जिक्र किया।

फिलहाल दीपावली से ऐन पहले उत्तर भारत में वायु की गुणवत्ता तेजी से गिर रही है। पिछले साल दीपावली में दिल्ली में पीएम 2.5 (महीन कण, जो श्वसन और फेफड़ों की बीमारी के कारण बनते हैं) का स्तर राष्ट्रीय मानक से 16 गुना और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षित सीमा से  40 गुना अधिक था। अगर गर्भावस्था के दौरान मां प्रदूषित हवा की जद में हो, तो उसके गर्भ पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है। बच्चे का समय पूर्व जन्म होना, नवजात का वजन कम होना, सिर की गोलाई का असामान्य होना जैसी कई समस्याएं हो सकती हैं। रही बात नौनिहालों की, तो विकसित होने के क्रम में उनका फेफड़ा कहीं ज्यादा संवेदनशील होता है, क्योंकि वे तेजी से सांस लेते हैं और उनकी सक्रियता का स्तर भी काफी ज्यादा होता है। इतना ही नहीं, उनका ज्यादा वक्त घर से बाहर बीतता है और उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली भी पूरी तरह विकसित नहीं होती है। प्रदूषण के संपर्क में आने वाले बच्चों में फेफड़े की काम करने की क्षमता तो कमजोर होती ही है, उनके संक्रमित होने का खतरा भी बढ़ जाता है। अस्थमा और सिस्टिक फाइब्रोसिस जैसी गंभीर बीमारियों के बढ़ने का खतरा भी रहता है।

स्मॉग यानी विषाक्त धुंध दरअसल तब बनता है, जब वायुमंडलीय धूल, कार्बन कण, घातक गैसें और सूर्य की रोशनी में ओजोन रासायनिक प्रतिक्रिया करते हैं। इसका भी सबसे ज्यादा असर बच्चों पर पड़ता है और उन्हें पूरी मात्रा में विटामिन-डी नहीं मिल पाती, जिससे उनकी हड्डियां कमजोर पड़ने लगती हैं। इतना ही नहीं, प्रदूषण की वजह से बच्चों की याददाश्त और आईक्यू भी कम हो जाती है, क्योंकि शुरुआती 1,000 दिन नवजातों के लिए विषाक्त रसायनों के लिहाज से काफी संवेदनशील होते हैं। यही वह वक्त होता है, जब मस्तिष्क का अधिकांश हिस्सा विकसित होता है। यूनिसेफ की 2017 में आई रिपोर्ट तो यह भी बताती है कि प्रदूषण बच्चों में मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक समस्याएं भी पैदा करता है। तीन साल की उम्र तक उनका विकास धीमा होता है और पांच वर्ष की उम्र आते-आते आईक्यू में चार अंकों की गिरावट आ जाती है।

अध्ययन बताते हैं कि प्रदूषण और दूषित हवा की जद में आने से यदि बचा जाए, तो कुछ मुश्किलों से हम निजात पा सकते हैं। 1990 में जर्मनी के एकीकरण के बाद पूर्वी जर्मनी में जब सल्फर डाई-ऑक्साइड को कम करने में सफलता मिली, तब फेफड़ों की कार्य-क्षमता तो सुधरी ही, बच्चों में ब्रोंकाइटिस, साइनोसाइटिस और लगातार जुकाम जैसी सांस से जुड़ी बीमारियों में भी कमी आई। कई अमेरिकी अध्ययन बताते हैं कि बेहतर गुणवत्ता वाली आबोहवा में जाते ही बच्चों के फेफड़ों की कार्य करने की ताकत बढ़ गई और अस्थमा, निमोनिया, ब्रोंकाइटिस या श्वसन संक्रमण से होने वाली अन्य बीमारियों के कारण अस्पतालों में बच्चों के भर्ती होने में खासी कमी आई।

लेटेस्ट   Hindi News ,    बॉलीवुड न्यूज,   बिजनेस न्यूज,   टेक ,   ऑटो,   करियर , और   राशिफल, पढ़ने के लिए Live Hindustan App डाउनलोड करें।

अगला लेखऐप पर पढ़ें