पाकिस्तान जाने का भारतीय फैसला कितना कारगर
भारत शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का सदस्य देश है। चूंकि इस संगठन के सदस्यों का विस्तार यूरेशिया के बड़े भूभाग तक है, इसलिए इसकी बैठकों में होने वाली चर्चा नई दिल्ली के लिए काफी अहमियत रखती है। इसी...
भारत शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का सदस्य देश है। चूंकि इस संगठन के सदस्यों का विस्तार यूरेशिया के बड़े भूभाग तक है, इसलिए इसकी बैठकों में होने वाली चर्चा नई दिल्ली के लिए काफी अहमियत रखती है। इसी कारण भारत को इसमें नियमित तौर पर शामिल होना चाहिए। मगर यह तर्क तब बेमानी हो जाता है, जब इसकी बैठक पाकिस्तान में होने वाली हो, जैसा कि अभी 15 और 16 अक्तूबर को इसके शासनाध्यक्षों की बैठक आयोजित है। आखिरकार, अगस्त 2016 में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा दक्षेस के गृह/ आंतरिक मामलों के मंत्रियों की बैठक में भाग लेने के बाद कोई भी वरिष्ठ भारतीय नेता पाकिस्तान नहीं गया है।
बहरहाल, आज विदेश मंत्री एस जयशंकर इस बैठक में शामिल होने इस्लामाबाद रवाना हो रहे हैं। इससे यह कयास भी गति पकड़ने लगा है कि क्या बैठक से इतर कोई द्विपक्षीय बातचीत होगी? अगर ऐसा कुछ होता है, तो अहम सवाल यही है कि क्या इससे आपसी रिश्तों में कोई फर्क पड़ेगा? पाकिस्तान किसी भी द्विपक्षीय बैठक के लिए जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की पुनर्बहाली की मांग पर अड़ा हुआ है और पाकिस्तानी हुकूमत भारत विरोधी बयानबाजी मुसलसल किए जा रही है। प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ का हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिया गया भाषण भी उनकी सदनीयत का संकेत नहीं देता।
दरअसल, इस्लामाबाद आंतरिक मुश्किलों में इस कदर उलझा हुआ है कि उसके लिए विदेश नीति के मोर्चे पर कोई बड़ी पहल करना मुश्किल है। दिवालिया होने के कगार पर खड़ी उसकी अर्थव्यवस्था को अभी मुद्रा कोष से सात अरब डॉलर के बेलआउट पैकेज से कुछ राहत मिली है। फिर, वहां राजनीतिक ध्रुवीकरण अपने चरम पर है। ऐसे में, भारतीय विदेश मंत्री की इस यात्रा से द्विपक्षीय मोर्चे पर सकारात्मक विकास की उम्मीद काफी कम है। हालांकि, यह अच्छा है कि नई दिल्ली ने अपने मंत्री को भेजने का फैसला करके अपने लचीले रुख का संकेत दिया है। इससे पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठानों की सार्वजनिक बयानबाजी के पीछे की मंशा को समझने का मौका मिल सकता है।
खैर, आपसी बातचीत में हमें कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए। पहली, पश्चिमी सीमा पर पसरी अपेक्षाकृत शांति के कारण भारत को संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, क्योंकि पूरी आशंका है कि पाकिस्तान अपने मौजूदा संकट से ज्यों ही उबरेगा, भारत को सीमा पार के दुस्साहसों का सामना करना पड़ सकता है। दूसरी ओर, यह कयास भी अगर साकार हुआ कि पाकिस्तान टूट जाएगा, तो भारतीय सीमा पर उथल-पुथल बढ़ सकती है। इसीलिए, हमारे लिए पाकिस्तान एक ऐसी चुनौती है, जिससे कूटनीति सहित तमाम साधनों से हमें निपटना होगा। दूसरी, पिछले कुछ वर्षों से भारत पाकिस्तान के बजाय चीन को मुख्य खतरा मानने लगा है। ऐसा पश्चिमी सीमा पर शांति के कारण हुआ है। इसकी अनिवार्यता और बढ़ती आंतरिक चुनौतियों के मद्देनजर हालात संभालने की पाकिस्तानी महत्वाकांक्षा की वजह से ही 2021 में नियंत्रण रेखा पर संघर्ष-विराम लागू हुआ था। यह एक संकेत था कि आपसी रिश्तों को पूरी तरह से सामान्य बनाना बेशक मुश्किल हो, पर द्विपक्षीय संबंध अस्थिरता को कम कर सकता है। इसे नजरंदाज नहीं करना चाहिए।
तीसरी, उथल-पुथल के लंबे दौर के बाद जम्मू-कश्मीर के लोगों ने एक बार फिर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अपना भरोसा जताया है। यहां के दल शांति-स्थापना के लिए पाकिस्तान के साथ बातचीत का आह्वान करते रहे हैं। पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर की स्थिति में सांविधानिक बदलाव का विरोध किया है। उसकी विघटनात्मक कार्रवाइयां यहां के हालात पर नकारात्मक असर डाल सकती हैं। ऐसे में, नई दिल्ली के पास अभी दो विकल्प हैैं। पहला, पाकिस्तान पर दबाव बदस्तूर बनाए रखना, मगर इससे पश्चिमी सीमा पर उथल-पुथल बढ़ सकती है। पाकिस्तान आतंकवाद के जरिये जवाबी दबाव बनाने की कोशिश कर सकता है। दूसरा, द्विपक्षीय कूटनीति के जरिये पश्चिमी सीमा पर स्थिरता बढ़ाने के अवसरों के मद्देनजर संतुलित नजरिया बनाए रखना। इस संदर्भ में हमें विदेश मंत्री का हालिया बातों गौर करना चाहिए कि पाकिस्तान के किसी सकारात्मक कदम का भारत स्वागत ही करेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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