देश की स्वतंत्रता, समाजवाद और जयप्रकाश नारायण
लोकनायक जयप्रकाश नारायण 21 अप्रैल, 1946 को जेल से छूटकर पटना आए, तब उनका ऐतिहासिक अभिनंदन हुआ था। बिहार के अंतरिम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह सभा की अध्यक्षता कर रहे थे और राष्ट्रकवि रामधारी...
लोकनायक जयप्रकाश नारायण 21 अप्रैल, 1946 को जेल से छूटकर पटना आए, तब उनका ऐतिहासिक अभिनंदन हुआ था। बिहार के अंतरिम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह सभा की अध्यक्षता कर रहे थे और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा लिखित गीत लोगों की तालियां बटोर रहा था- है जयप्रकाश वह जो कि पंगु का, चरण, मूक की भाषा है/ है जयप्रकाश वह टिकी हुई, जिस पर स्वदेश की आशा है/ हां, जयप्रकाश है नाम समय की करवट का, अंगड़ाई का/ भूचाल, बवंडर के ख्वाबों से, भरी हुई तरुणाई का...।
तब युवा समाजवादी लोकनायक 44 वर्ष के थे और उनका संबोधन सत्ता के लिए अधीर कांग्रेस के नेताओं के लिए सलाह और चेतावनी भरा था। तब ब्रिटेन से एक टीम भारतीय नेताओं से वार्ता हेतु दिल्ली आ चुकी थी। यह वह दौर था, जब गांधी कांग्रेस की कमान और भारत के भविष्य की बागडोर नेहरू व पटेल के हाथों में सौंप रहे थे। तब लोकनायक और उनकी मित्र-मंडली संविधान सभा में जाने के विरुद्ध थी। वजह यह थी कि एक तो वह चुनी हुई सभा नहीं थी और फिर इसमें ब्रिटिश सम्राट के नाम पर शपथ लेने का प्रावधान था। लोकनायक का मत था कि इस समय देश के सामने यह प्रश्न नहीं है कि तथाकथित संविधान सभा में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा सुझाए गए प्रस्ताव मान्य हों, बल्कि यह अधिक महत्वपूर्ण है कि भारत छोड़ो आंदोलन के तहत जिस नई युवा शक्ति का उदय हुआ है, उसका ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध कैसे क्रांतिकारी उपयोग हो। वह गांधी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को निरंतर दोहराते हुए कांग्रेस के वर्ग चरित्र और यथास्थितिवादी नेतृत्व से खफा थे। इसके पीछे तरुण समाजवादियों की टोली थी, जिसे सीएसपी (कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी) के नाम से जाना जाता है। जेपी आजाद भारत में किसानों, मजदूरों की व्यापक साझेदारी पूंजीवादी एवं सामंतवादी तत्वों पर नियंत्रण के प्रबल समर्थक थे।
प्रारंभिक दिनों में पंडित नेहरू इन विचारों और ऐसे संगठन के गठन के प्रबल समर्थक थे। इसका स्पष्ट उल्लेख मीनू मसानी को 1933 में लिखे पत्र में मिलता है, ‘मैं कांग्रेस के अंदर समाजवादी ग्रुप के निर्माण का प्रबल समर्थक हूं। आपको याद होगा कि इधर मेरी जनसभाओं में दिए गए भाषणों में सामाजिक-आर्थिक सवालों का जिक्र निरंतर हो रहा है। समूचे विश्व में लोग नए सामाजिक-आर्थिक नियोजन पर सोचने को मजबूर हो रहे हैं। भारत भी इन प्रश्नों को छोड़कर सिर्फ राजनीति के सहारे आगे नहीं बढ़ सकता। लिहाजा अब समय आ गया है, जब इस वैज्ञानिक विचारधारा को संगठन के रूप में गठित करने का प्रयास तेज हो।’
कम उम्र में ही जय प्रकाश नारायण समाजवादी विचारों से प्रभावित हो गए थे। साल 1934 में पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में एक बैठक आयोजित हुई थी। हजारों प्रतिनिधियों ने उसमें भाग लिया था। कार्यक्रम व संगठन का स्वरूप तय करने के लिए बनी कमेटी के अध्यक्ष आचार्य नरेंद्र देव बनाए गए और जेपी को सचिव पद की जिम्मेदारी सौंपी गई। तब उनकी उम्र मात्र 32 वर्ष थी। वह समाजवादी चिंतक के रूप में पहचान बना चुके थे। समाजवादी संगठन उनके द्वारा लिखित पुस्तक समाजवाद क्यों के वितरण में लगे थे।
सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी भूमिका ने उन्हें गांधी, नेहरू और पटेल के बाद सबसे बड़े विचारक व नेता के रूप में स्थापित कर दिया था। मजदूर आंदोलन को समर्थन देने कारण उन्हें गिरफ्तार कर एक वर्ष की जेल की सजा दी गई थी, जिस पर गांधीजी ने कहा था, ‘जेपी कोई साधारण कार्यकर्ता नहीं हैं। वह बेहतरीन योद्धा हैं।’ पंडित नेहरू ने जेपी की गिरफ्तारी को सरकार की कायरता करार देते हुए उनकी रिहाई की मांग की थी।
इतिहास गवाह है, गांधीजी की स्वीकृति के बाद भी जेपी बंटवारे के पक्ष में नहीं थे। धीरे-धीरे पंडित नेहरू से भी मतभेद सामने आने लगे। फिर भी जेपी का प्रभाव ऐसा था कि पंडित नेहरू ने जेपी को भावपूर्ण पत्र लिखा था कि ‘ऐसे हालात में चुनौतियों का मिलकर मुकाबला आप लोगों के बगैर मुमकिन नहीं होगा,’ पर सच यही है कि कांग्रेस के भीतर के दक्षिणपंथियों ने जेपी के प्रभाव को पार्टी में बढ़ने न दिया।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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