नमक के गरीब कारीगरों की जिंदगी में बढ़ती कड़वाहट
इंसानी जिंदगी में नमक का किरदार बहुत बड़ा है। भोजन में नमक न डला हो, तो बेस्वाद हो जाता है। नमक के सही अनुपात से हमारा शरीर सही काम करता है। हमें हर हाल में नमक चाहिए, पर हम नहीं देखते कि हमारे लिए..
इंसानी जिंदगी में नमक का किरदार बहुत बड़ा है। भोजन में नमक न डला हो, तो बेस्वाद हो जाता है। नमक के सही अनुपात से हमारा शरीर सही काम करता है। हमें हर हाल में नमक चाहिए, पर हम नहीं देखते कि हमारे लिए कौन नमक बनाता है, कौन नमक कौन भेजता है? हमें नमक बनाने वाले कारीगरों के बारे में जरूर सोचना चाहिए।
ध्यान रहे, नमक के कारीगर अपनी जिंदगी खतरे में डालकर हमारे लिए साफ-सुथरा नमक तैयार करते हैं, पर बीते कुछ महीनों से समुद्र के खारे पानी से नमक बनाने वाले कारीगरों के सामने अचानक से परेशानियों का अंबार लग गया है। परेशानी यह है कि उन्हें बेदखली का आदेश दे दिया गया है। वैसे भी भारत में नमक निर्माण कार्य बहुत सीमित है। मात्र गुजरात के खड़गौड़ा, भावनगर, पोरबंदर और कच्छ के रण में ही नमक उत्पादन होता है। देश में सालाना करीब तीन करोड़ टन नमक का उत्पादन होता है। नमक निर्माण में भारत दुनिया में तीसरे स्थान पर आता है। पहले स्थान पर चीन और दूसरे स्थान पर अमेरिका है।
पिछले वर्ष-2023 में भारत ने करीब 33.80 करोड़ डॉलर के नमक का निर्यात किया है। टाटा नमक भारत का सबसे बड़ा पैकेट बंद नमक ब्रांड है, जिसकी बाजार हिस्सेदारी 17 फीसदी है। भारत में नमक उद्योग से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से करीब पांच लाख लोग जुड़े हैं। समुद्र के खारे पानी से नमक बनाने में इस वक्त तकरीबन 8,000 कारीगर सीधे जुड़े हैं, पर अब उनके सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। गुजरात सरकार ने उन्हें काम रोकने और अपना बोरिया-बिस्तर समेटने के लिए कह दिया है।
गौरतलब है, दशकों से गुजरात का कच्छ जिला, जो समुद्री खारे पानी के लिए प्रसिद्ध रहा है, ‘नमक रण’ क्षेत्र कहा जाता रहा है। पुराने जमाने में उसे ‘नोनिक’ भी कहते थे। नोनिक का मतलब होता है ‘नून’, यानी नमक बनाने का स्थान। यह क्षेत्र कभी राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज नहीं हुआ। हालांकि, सरकार के सामने भी ‘नमक श्रमिकों’ को एकाएक बेदखल करने की तमाम कानूनी दिक्कतें हैं। 1942 में अंग्रेजी हुकूमत ने नमक मजदूरों को यह धंधा ‘वन अधिकार कानून’ के तहत आवंटित किया था। सरकार के पास कोई अधिकृत कागजी दस्तावेज नहीं है, इसलिए अड़चनें सरकार के सामने भी खड़ी हैं। यह मामला निश्चित रूप से अदालत में जाएगा और वहीं से कोई समाधान निकलेगा। अदालत सरकार से पहला सवाल यही करेगी कि किस अधिकार से उन्होंने वहां अभयारण्य बनाने का निर्णय लिया है और बिना वैकल्पिक व्यवस्था के नमक के कारीगरों को कैसे बेदखली का आदेश पारित किया है? नमक के कारीगरों के हितों को देखते हुए अदालत हुकूमत के समक्ष मानवीय पक्ष का भी हवाला जरूर देगी और देना भी चाहिए।
यह भी गौर करने की बात है कि नमक निर्माण का काम साल भर नहीं चलता है। कारीगरों के हिस्से काम के मात्र चार महीने आते हैं, बाकी 8 महीने काम बंद रहता है। समुद्री तूफानों के आने से धंधा पूरी तरह चौपट हो जाता है। एक बड़ी समस्या यह भी है कि नमक कारीगरों के हिस्से मेहनत की पूरी कमाई नहीं आती है। बाजार में नमक 20 रुपये किलो बिकता है, पर उसमें से केवल एक रुपया कारीगरों की जेब में जाता है। बिचौलिए इनकी कमाई खा जाते हैं। इनके हक-हुकूक के लिए बोलने वाला कोई नहीं होता, इसलिए इनका खुलेआम शोषण होता है। श्रमिकों के हालात देखकर कोई भी इनकी परेशानियों का अंदाजा लगा सकता है। असली और नकली नमक की पहचान इन्हीं कारीगरों को होती है। बेकार नमक के सेवन से घेंघा जैसी बीमारियां होती हैं।
नमक के कारीगरों से जुड़ा सबसे दुखद पहलू यह है कि तकरीबन 98 फीसदी कारीगर चर्म रोग के शिकार हो जाते हैं। ज्यादातर कारीगरों की आंखें खराब हो जाती हैं, मोतियाबिंद हो जाता है। कई तरह के हड्डी रोग हो जाते हैं। घुटने जल्दी जवाब दे जाते हैं। उनके पास इलाज के लिए पर्याप्त पैसे नहीं होते हैं। कच्छ में ही करीब 8 हजार नमक कारीगर अब भी गरीबी रेखा के नीचे हैं। 90 प्रतिशत कारीगर भूमिहीन हैं। अब सरकारी सहयोग नहीं मिलने से नमक के कारीगरों का मोहभंग होने लगा है। क्या हमारे स्वाद में इजाफा करने वालों की कड़वी होती जिंदगी को हम किसी तरह से सहारा दे सकते हैं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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