Hindi Newsओपिनियन नजरियाhindustan nazariya column 07 oct 2024

कभी पेरिस की तरह गुलजार हुआ करते थे पटना के चौराहे

कुछ महीने पहले, जब देश भर में विश्व संगीत दिवस की धूम मची थी, तब मुझे अनायास पटना के चौक-चौराहों पर होने वाले दशहरा संगीत समारोहों की याद हो आई। दशहरा उत्सव से एक बार फिर हम गुजर रहे हैं। पूजा...

Pankaj Tomar रीना सोपम, पत्रकार व कला लेखिका, Sun, 6 Oct 2024 10:46 PM
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कभी पेरिस की तरह गुलजार हुआ करते थे पटना के चौराहे

कुछ महीने पहले, जब देश भर में विश्व संगीत दिवस की धूम मची थी, तब मुझे अनायास पटना के चौक-चौराहों पर होने वाले दशहरा संगीत समारोहों की याद हो आई। दशहरा उत्सव से एक बार फिर हम गुजर रहे हैं। पूजा पंडाल सप्तमी-अष्ठमी और नवमी के लिए सजने लगे हैं, पर पटना की दुर्गापूजा जिन शास्त्रीय संगीत समारोहों के लिए कभी चर्चित रही, वैसे समारोह नहीं होंगे।
आजादी के समय से ही दशहरा में पटना के चौराहों पर शास्त्रीय संगीत सभाएं होती थीं। ठीक उसी तरह, जैसे आज विश्व संगीत दिवस पर पार्कों व शॉपिंग मॉल के विजिटर्स एरिया में अनेक संस्थाएं आयोजन करती हैं। इन स्थलों पर विश्व संगीत दिवस मनाने का उद्देश्य ही यही है कि संगीत हर सड़क-चौराहे पर हो, ताकि आम आदमी इसके आनंद का अनुभव कर सके। स्थापित और नवोदित कलाकार सीधे आम श्रोताओं के बीच हों। फ्रांस के संस्कृति मंत्री जैक लैंग ने इसकी परिकल्पना की थी। उनका मानना था, अच्छा संगीत सुनने और सुनाने से जो सुंदर भावनाएं उभरती हैं, उनसे मानवीय संवेदनाएं जागती हैं और मानवीय संबंध मजबूत होते हैं। 
मगर जिस सांस्कृतिक परिपाटी की शुरुआत फ्रांस में 21 जून, 1982 को हुई, वह बिहार की राजधानी पटना में आजादी के समय से ही प्रचलित रही। ये संगीत कार्यक्रम अमूमन सप्तमी से दशहरे की रात तक होते और पूरी तरह गैर-सरकारी होते थे। इनमें शहर के आम लोगों से लेकर व्यवसायियों और डॉक्टरों की भागीदारी मुख्य रूप से होती थी। इनमें शामिल होने वाले हिन्दुस्तानी और कर्नाटक संगीत के ‘लीजेंड’ हैं। पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, पंडित विनायकराव परिवर्धन, विदुषी हीराबाई बडोदेकर, सरस्वती राणे, सिद्धेश्वरी देवी, मोघूबाई कुर्डीकर, गंगूबाई हंगल, बेगम अख्तर और पंडित भीमसेन जोशी से लेकर उस्ताद अली अकबर खां, उस्ताद विलायत खां, उस्ताद इमरत हुसैन, उस्ताद अल्ला रक्खा, उस्ताद रईस खां, उस्ताद हलीम जाफर और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, पंडित शिवकुमार शर्मा, विदुषी किशोरी अमोनकर, लालगुडी जयरमण, एन रमणी, टीएन कृष्णन, पालघाट रघु और येल्ला वेंकटेश्वर जैसे दिग्गजों के कला प्रदर्शन से पटना के चौराहे गुलजार हुआ करते। पौ फटने के साथ आसपास की किसी मस्जिद से जब अजान की आवाज आती और मंदिर में गूंज रही घंटियों की आवाजें तैरकर इन पंडालों में पहुंच जातीं और तब तक मंच पर चल रहा होता भटियार, विलासखानी तोड़ी या बसंत मुखारी जैसा सुबह का राग और उनका स्वर-विस्तार।
एक ऐसे ही वाकये की याद आ गई, जब उस्ताद इमरत हुसैन और उस्ताद बिस्मिल्ला खां के सितार-शहनाई की जुगलबंदी का कार्यक्रम हुआ था। नवमी का दिन था। भारतमाता मंडली उन दिनों लंगरटोली चौराहे पर कार्यक्रम आयोजित करती थी। उस रात बनारस घराने के कत्थक कलाकार गोपीकृष्ण जी का नृत्य कार्यक्रम देर तक हुआ था और लगभग पौ फटने के समय उस्ताद इमरत हुसैन और उस्ताद बिस्मिल्ला खां मंच पर आए।  संयोगवश बारिश शुरू हो गई। गनीमत थी, बारिश तेज नहीं थी। वैसे, पंडाल में पानी की बूंदें आ रही थीं, पर एक भी श्रोता नहीं गया। कार्यक्रम चलता रहा और बारिश भी रुक गई थी। सुबह पूरी तरह खुल गई थी और कलाकार अब कार्यक्रम समाप्त करना चाह रहे थे। लयकारी अपने चरम की ओर जाने लगी थी। उनके उतावलेपन की एक और वजह थी। उन दिनों रमजान चल रहा था और अगले ही दिन ईद था। उस्ताद इमरत हुसैन कोलकाता अपने घर लौटना चाह रहे थे और उस्ताद बिस्मिल्ला खां साहब को बनारस वापस जाना था। लेकिन पटना के संगीत प्रेमी, उन्हे मंच से उठने ही नहीं दे रहे थे।
इमरत हुसैन साहब ने झाला समाप्त किया और माइक के पास जाकर बोले, ‘मुझे कोलकाता वापस जाना है। बच्चे मेरा इंतजार कर रहे होंगे ईदी के लिए।’ उनका इतना कहना था कि पंडाल में बैठे सभी लोग एक साथ उठ खड़े हुए। तालियों की गड़गड़ाहट से कलाकारों को मंच से उठने की इजाजत दी और मंच से उतरते ही उन्हें घेर लिया। कोई उनके हाथ छूना चाहता था, तो कोई ऑटोग्राफ लेने की कोशिश में था। शास्त्रीय रागों को सुनने का वह जुनून और कलाकारों व संगीत प्रेमियों के बीच का वह जज्बा अब गुम हो चला है। 
(ये लेखिका के अपने विचार हैं) 

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