मुस्लिम पति को भी कानूनन तलाक मांगने का पूरा हक
- मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की ग्वालियर खंडपीठ ने एक फैसला सुनाया है, जो भारत में मुस्लिमों में तलाक से जुड़े कानूनों-प्रावधानों पर खास असर डालेगा। फैसला यह है कि एक मुस्लिम पति अगर अपनी शादी खत्म करना चाहता है, तो उसे…
ताहिर महमूद, प्रोफेसर, विधि शास्त्र
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की ग्वालियर खंडपीठ ने एक फैसला सुनाया है, जो भारत में मुस्लिमों में तलाक से जुड़े कानूनों-प्रावधानों पर खास असर डालेगा। फैसला यह है कि एक मुस्लिम पति अगर अपनी शादी खत्म करना चाहता है, तो उसे इसके लिए पारिवारिक अदालत में याचिका दायर करने का हक है। दूसरे शब्दों में, उसे पारंपरिक मुस्लिम रिवाज के मुताबिक, गैर-कानूनी ढंग से तलाक देने की जरूरत नहीं है। इस अदालती फैसले की कारगरता को तीन कानूनों की रोशनी में आंका जाना है - मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम 1939, मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 2019 और परिवार न्यायालय अधिनियम, 1984।
मुस्लिम रिवाज या कानून के मुताबिक देखें, तो शादी की न्याय संगत समाप्ति तलाक (पति द्वारा तलाक), खुला (पत्नी द्वारा तलाक) या मुबारत (आपसी सहमति से तलाक) के रूप में हो सकती है। ध्यान रहे, भारत में मुस्लिम तलाक कानून में अब तक दो बार सुधार किया जा चुका है। मुस्लिम महिलाओं के न्यायिक तलाक के अधिकार को मान्यता देने के लिए मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 बनाया गया था। वैसे, पुरुषों के लिए ऐसा कोई कानून नहीं बनाया गया और उनके लिए किसी न्यायिक दखल के बिना तीन तलाक ही एकमात्र विकल्प बना रहा। चूंकि इस संबंध में मुस्लिम नियमों का समाज में भयंकर दुरुपयोग हो रहा था, इसलिए कुछ विद्वान न्यायाधीशों ने अपने फैसलों में गहरी चिंता जताई थी। इनसे उत्साहित होकर विवाहित लड़कियों के एक समूह ने राहत के लिए शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था। इसके चलते 2017 के शायरा बानो मामले में संविधान पीठ के फैसले ने तलाक-उल-बिदअत की प्रथा को खारिज कर दिया। इस प्रथा या रिवाज के तहत पहले एकतरफा ढंग से तीन तलाक हो जाता था। अदालत की सिफारिश के मुताबिक ही सरकार ने कानून बनाया - मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 और तलाक-उल-बिदअत को अमान्य व अपराध करार दिया।
वर्ष 1984 का पारिवारिक न्यायालय अधिनियम मूलत: पारिवारिक विवादों को सुलझाने के लिए बनाया गया था। यहां सुनवाई के लिए आने वाले मामलों में विवाह की शून्यता, वैवाहिक हक की बहाली, कानूनन अलगाव और शादी का टूटना इत्यादि विषय शामिल हैं।
बताते चलें, ग्वालियर के इस मामले में एक मुस्लिम पति ने अपनी पत्नी पर व्यभिचार का आरोप लगाते हुए पारिवारिक अदालत में तलाक की याचिका दायर की थी। अदालत ने उनके मुकदमे को इस आधार पर खारिज कर दिया कि ऐसा ‘कोई कानून’ नहीं है, जिसके तहत वह उनके मामले पर विचार कर सके और फैसला सुना सके। इस फैसले के खिलाफ उस व्यक्ति ने उच्च न्यायालय की ग्वालियर खंडपीठ में अपील की। अपील को खंडपीठ ने इस टिप्पणी के साथ मंजूर कर लिया कि यद्यपि मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 तलाक के इच्छुक पुरुषों के लिए कोई प्रावधान नहीं करता, फिर भी वे परिवार न्यायालय अधिनियम की धारा 7 के तहत तलाक की कार्यवाही शुरू कर सकते हैं। पीठ ने कहा, यह प्रावधान, ‘जाति और समुदाय के आधार पर भेदभाव नहीं करता’ और अपनी प्रकृति में ‘सर्वव्यापी’ है। यहां तक कि सांविधानिक नैतिकता और इसकी भावना यह कहती है कि किसी भी व्यक्ति को उपचार या समाधान के बिना नहीं रखा जा सकता है।
साथ ही, यह भी कहा गया कि एक मुस्लिम पुरुष को अपनी शिकायतों को जाहिर करने के लिए न्याय या न्यायिक मंच तक पहुंचने के खास अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। ताजा अदालती फैसले के पीछे की चिंता और बुद्धिमत्ता की सराहना होनी चाहिए।
पिछले काफी समय से मैं यह सुझाव देता रहा हूं कि मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 में संशोधन करना चाहिए। ‘मुस्लिम कानून के तहत विवाहित एक महिला’ के साथ ‘मुस्लिम कानून के तहत विवाहित किसी भी व्यक्ति’ लिखा जाना चाहिए। कानून पुरुष और महिला, दोनों पर समान रूप से लागू होने चाहिए। यदि यह संशोधन पहले ही कर लिया जाता, ग्वालियर वाला मामला उच्च न्यायालय तक नहीं पहुंचता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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