Hindi Newsओपिनियन नजरियाHindustan Nazariya column 15 January 2025

काम के घंटे बढ़ाकर फायदा नहीं, नुकसान ज्यादा

  • कंपनियों के सीईओ, चैयरपर्सन और आला अधिकारियों द्वारा यह तय करने का चलन बढ़ चला है कि कर्मचारियों को कितने घंटे काम करना चाहिए। इसकी शुरुआत नारायणमूर्ति के 70 घंटे के कार्य-सप्ताह के सुझाव से हुई...

Hindustan लाइव हिन्दुस्तानTue, 14 Jan 2025 11:11 PM
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काम के घंटे बढ़ाकर फायदा नहीं, नुकसान ज्यादा

गौरव वल्लभ, अर्थशास्त्री एवं भाजपा नेता

कंपनियों के सीईओ, चैयरपर्सन और आला अधिकारियों द्वारा यह तय करने का चलन बढ़ चला है कि कर्मचारियों को कितने घंटे काम करना चाहिए। इसकी शुरुआत नारायणमूर्ति के 70 घंटे के कार्य-सप्ताह के सुझाव से हुई, जो अब एलऐंडटी के चेयरमैन के इस सवाल तक पहुंच गई है कि ‘आप अपनी पत्नी को कितनी देर तक निहार सकते हैं?’ उन्होंने यह भी जोर दिया कि कर्मचारियों को रविवार सहित सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए। हालांकि, इन लोगों के वेतन-भत्ते आदि को लेकर तमाम तरह के तर्क भी दिए जाते हैं, जो रोजाना के 15-20 लाख रुपये तक हो सकता है, पर जिन कर्मचारियों को वे अपनी तरह काम करने को कह रहे हैं, वे आमतौर पर औसतन 2,000 से 2,500 रुपये हर दिन कमाते हैं। वैसे, हमें यहां पर यह भी पता लगाना चाहिए कि लंबी कार्यावधि से उन कंपनियों को कितना लाभ हो रहा है, जिनका ये नेतृत्व कर रहे हैं?

यह सही है कि आज की तेज-रफ्तार दुनिया में कई उद्योगों में लंबे समय तक काम करने का दबाव एक आम अपेक्षा बन गई है, पर लंबे समय तक काम करने से उत्पादकता और रचनात्मकता बढ़ने संबंधी धारणा महज एक भ्रांति है। असलियत में, इससे उत्पादकता व रचनात्मकता, दोनों कमजोर हो सकती हैं और कर्मचारियों की सेहत पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ सकता है। दरअसल, उत्पादकता को अक्सर एक तय समय-सीमा के भीतर किए गए काम की मात्रा के रूप में परिभाषित किया जाता है और इसका काम के घंटों से सीधा आनुपातिक रिश्ता नहीं होता। जबकि, कुछ लोग मानते हैं कि अतिरिक्त घंटे काम करने से अधिक काम होता है। मगर अधिक काम करने से दक्षता पर असर पड़ सकता है, क्योंकि एक बार जब कर्मचारी थकान के एक निश्चित बिंदु पर पहुंच जाता है, तो ध्यान केंद्रित करने व एकाग्रता की उसकी क्षमता कम हो जाती है।

आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के एक शोध से पता चलता है कि दक्षिण कोरिया जैसे लंबे कार्य-घंटे वाले देशों की उत्पादकता अधिक हो, यह जरूरी नहीं हैै। इसके उलट, नीदरलैंड जैसे देशों की, जो काम के घंटों को लेकर कहीं अधिक संतुलित नजरिया रखते हैं, उत्पादकता दर कहीं अधिक है। ऐसा जाहिर तौर पर कर्मचारियों में थकान आने के बाद सर्वोच्च देने की क्षमता में आने वाली कमी के कारण होता है। इतना ही नहीं, लगातार अधिक काम करने से शारीरिक और मानसिक थकावट हो सकती है, जिससे कर्मचारी बीमार हो सकते हैं और उन्हें छुट्टी लेनी पड़ सकती है।

रही बात रचनात्मकता की, तो किसी भी कार्यस्थल का यह सबसे मूल्यवान कौशल है। यह नए विचारों को विकसित करने, दक्षता बढ़ाने और जटिल समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने के लिए आवश्यक है। शोध बताते हैं कि जब कर्मचारी नियमित रूप से काम से ब्रेक लेता है और कामकाज व जीवन में संतुलन बनाता है, तो उसकी रचनात्मकता बढ़ती है। इसके उलट, अधिक देर तक काम करने से मानसिक थकान होती है और उसकी रचनात्मकता कुंद पड़ने लगती है। काम की लंबी कार्यावधि कर्मियों में तनाव, चिंता और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं बढ़ा सकती है, जिससे कंपनी की कमाई पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। ऐसी कंपनियों से प्रतिभाशाली पेशेवर छिटक सकते हैं।

साफ है, कर्मियों में संतुष्टि और कंपनी से उनका जुड़ाव बनाए रखने के लिए निजी समय की उनकी जरूरतों को समझना अहम है। जो कंपनियां अपने कर्मियों के पेशेवर और निजी जीवन को लेकर संतुलित नजरिया रखती हैं, वहां कर्मचारियों की उत्पादकता, रचनात्मकता और स्वास्थ्य, तीनों में निरंतरता बनी रहती है। इसका बड़ा उदाहरण जापान में माइक्रोसॉफ्ट कंपनी है, जिसने अपने कर्मियों के लिए चार दिन के कार्य-सप्ताह का नियम बनाया और गुणवत्ता से किसी तरह से समझौता किए बिना उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की। स्कैंडिनेवियाई देशों में भी कार्य और जीवन के संतुलन पर ध्यान दिया जाता है और वे उत्पादकता व कर्मचारियों की संतुष्टि, दोनों में लगातार शीर्ष स्थानों पर बने हुए हैं। जाहिर है, कर्मचारियों की उत्पादकता, रचनात्मकता और बेहतरी को निखारने के लिए इन वरिष्ठ अधिकारियों को ‘कभी कुछ नहीं करके भी देखना’ होगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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