मिटते लाल गलियारे में घिरते और घुटने टेकते नक्सली
- छत्तीसगढ़ के बीजापुर में रविवार को सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में 31 नक्सली मार गिराए गए। छत्तीसगढ़ वह राज्य है, जहां पहले माओवाद का नामोनिशान नहीं था। नक्सली मूलत: पश्चिम बंगाल, अविभाजित बिहार और आंध्र प्रदेश में पीपुल्स वार ग्रुप के नाम से अपना संगठन…
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दिलीप त्रिवेदी, पूर्व डीजी, सीआरपीएफ
छत्तीसगढ़ के बीजापुर में रविवार को सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में 31 नक्सली मार गिराए गए। छत्तीसगढ़ वह राज्य है, जहां पहले माओवाद का नामोनिशान नहीं था। नक्सली मूलत: पश्चिम बंगाल, अविभाजित बिहार और आंध्र प्रदेश में पीपुल्स वार ग्रुप के नाम से अपना संगठन चलाते थे। जब इन राज्यों में उन पर दबाव बना, तो वे भागकर मध्य भारत आ गए। चूंकि यहां के जंगल काफी घने हैं, इसलिए यह जगह उन्हें मुफीद लगी। पहले उन्होंने स्थानीय आदिवासियों का भरोसा जीता, फिर बिहार और मध्य प्रदेश के बंटवारे के बाद झारखंड व छत्तीसगढ़ में अपना आधार फैलाया। चूंकि बंटवारे की प्रक्रिया में छोटे राज्यों के खाते में कम संसाधन आते हैं, इसलिए शुरुआत में छत्तीसगढ़ की स्थिति ऐसी थी कि बस्तर में एक सब-इंस्पेक्टर, एक हेड कांस्टेबल व छह सिपाही के भरोसे अधिकतर थाने चला करते थे। माओवादियों ने इनको निशाना बनाना शुरू किया, जिसके कारण दंडकारण्य में उनका खासा प्रभाव दिखने लगा।
जम्मू-कश्मीर या पंजाब के अलगाववादियों के उलट इन्हें बाहर से हथियार नहीं मिलते, इसलिए ये अपने दुश्मनों से हथियार लूटते हैं। जेलों व थानों पर हमले इसीलिए किए जाते रहे। जमींदारों से हथियार लूटे गए। चूंकि इन इलाकों में खनन का कार्य भी होता है, जिसमें विस्फोटक की जरूरत पड़ती है, अत: नक्सली खननकर्मियों को डरा-धमकाकर हासिल किए गए विस्फोटकों से आईईडी बनाने लगे। जब इनका प्रभाव काफी बढ़ने लगा, तो करीब दो दशक पहले केंद्र सरकार ने विशेष प्रयास करना शुरू किया। स्थानीय पुलिस को मजबूत बनाने की कोशिशें तेज हुईं। केंद्रीय सुरक्षा बल भी नियुक्त किए जाने लगे। 2013-14 में जब मैं सीआरपीएफ में डीजी था, तब छत्तीसगढ़ की स्थिति बहुत दयनीय थी। मगर अगले आठ-दस वर्षों में स्पेशल कमांडो तैयार किए गए, सीआरपीएफ ने कोबरा बटालियन गठित की और बुनियादी ढांचे को मजबूत किया गया।
इन तमाम रणनीतियों का ही नतीजा है कि अब हम नक्सलियों को घुटने पर लाने लगे हैं। बेशक, कभी नक्सली कहा करते थे कि पशुपति से तिरुपति तक लाल गलियारा बनेगा, लेकिन आज हालत यह है कि नेपाल और आंध्र प्रदेश में तो यह खत्म हो चुका है। छत्तीसगढ़ में इसका कुछ असर बचा है और विशेषकर दक्षिण बिहार, ओडिशा व झारखंड के कुछ थानों में इनकी सक्रियता देखी जा रही है। हालांकि, बीते 20-25 वर्षों में हमारे सुरक्षा बलों ने खूब मेहनत की है और हम यह उम्मीद बांधने लगे हैैं कि दो साल के भीतर नक्सलियों का अंत हो जाएगा। हां, कभी-कभी ‘कंगारू कोर्ट’ जैसी घटनाएं सामने आ सकती हैं।
नक्सलियों से निपटने के लिए वक्त-वक्त पर हमने विशेष रणनीति बनाई है। मुझे याद है, वर्ष 2008 में बतौर गृह मंत्री पी चिदंबरम ने छत्तीसगढ़ में एक बैठक की थी, जिसमें मैं उत्तर प्रदेश पुलिस की तरफ से शामिल हुआ था। उसमें यह बात उठी थी कि संवेदनशील थानों के पास गाड़ियां नहीं हैं और सुरक्षा बल जिन बड़ी गाड़ियों का इस्तेमाल करते हैं, उनको आईईडी ब्लास्ट में नक्सली उड़ा देते हैं। तब तय हुआ था, मोटरसाइकिल से पेट्रोलिंग की जाएगी। वर्ष 2014 में राजनाथ सिंह जब गृह मंत्री की हैसियत से झारखंड गए थे और मौसम खराब था, तब वह खुद मोटरसाइकिल चलाते हुए नक्सली इलाकों में गए थे, जो उन दिनों अखबारों की सुर्खियां बनी थीं। कहने का अर्थ है कि समय के साथ हमने खुद को मजबूत बनाया है, जिसके कारण यह स्थिति बनी हैै। अब जरूरत यह है कि जो थोड़ी-बहुत सहायता नक्सलियों को मिलती है, उनको भी बंद किया जाए। सड़क व पुल जैसे बुनियादी ढांचे पर अधिकाधिक काम तो हो ही, ताकि सुरक्षा बल सघन इलाकों में आसानी से पहुंच सकें। साथ ही, नक्सलियों तक पहुंचने वाली विस्फोटकों की खेप रोकी जाए। इसके लिए खनन-कार्य में इस्तेमाल होने वाली विस्फोटक के बैग और ट्रकों पर आरएफआईडी टैग लगाने का एक सुझाव है, ताकि यह पता चल सके कि किस-किस खनन-स्थल से माओवादी विस्फोटक लेते हैं। चूंकि नक्सली अब हथियारों को नहीं लूट पा रहे, ऐसे में यदि विस्फोटकों तक उनकी पहुंच रुक जाए, तो वे खुद काफी हद तक निष्क्रिय हो जाएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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