भ्रष्टाचार में सामाजिक समरसता
भारत की प्रजातांत्रिक सरकारों में कुछ शब्द बेहद लोकप्रिय हैं, जैसे सुशासन, जनता की सरकार, जनता के द्वारा, भ्रष्टाचार उन्मूलन, सामाजिक समरसता आदि। ये शब्द आकर्षक हैं और आम आदमी को लुभाते हैं। अक्सर...
भारत की प्रजातांत्रिक सरकारों में कुछ शब्द बेहद लोकप्रिय हैं, जैसे सुशासन, जनता की सरकार, जनता के द्वारा, भ्रष्टाचार उन्मूलन, सामाजिक समरसता आदि। ये शब्द आकर्षक हैं और आम आदमी को लुभाते हैं। अक्सर इनका प्रयोग करने वाला हर दल ऐसे नेक इरादे शायद ही कभी रखता हो। एक बार सत्ता पाए। क्या-क्या नहीं किया था इसके लिए? कभी नकदी, कभी दारू, कभी साड़ियां बांटीं। एक गरीब देश का चुनाव कितना महंगा होता है, इस सच को भोगा। स्वभावानुसार, झूठे वादे किए, आश्वासन दिए। पिछली बार सत्ता में रहने पर जो धन कमाया, उसे लुटाया, तब जाकर यह अपेक्षित अवसर आया। यह सोचना भी गुनाह है कि वह चुनावी खर्चे की क्षतिपूर्ति न करके सियासी आत्महत्या कर लेगा, खुद को भविष्य में चुनावी संघर्ष के अयोग्य बना लेगा।
वह जानता है कि कार्य कुशलता सुशासन का अनिवार्य अंग है। हर स्तर पर निजी प्रोत्साहन इसके लिए आवश्यक है। वेतन तो दफ्तर आने-जाने, वहां बैठकर मक्खी मारने के लिए है। काम-काज कैसे हो? हर दफ्तर में श्रेणीबद्ध नियत प्रेरणा राशि की सूची है। उसके अनुपालन से हर कागज में पंख लगते हैं। वह उड़कर अपने लक्ष्य तक पहुंचता है, अन्यथा सरकारीकर्मी की मेज के पिंजड़े में कैद रहता है। दफ्तर हो या सचिवालय, इसी निजी प्रेरणा के नकदी सूत्र से वह उपयोगकर्ताओं के द्वार तक जाने में सक्षम है।
कुछ सिरफिरे सुशासन के इस मूल स्रोत को भ्रष्टाचार जैसे अपशब्द से कलंकित करते हैं। जड़ कागज को डैने प्रदान करने वाली प्रतिभा के साथ ऐसा अन्याय? यदि कोई चंद सिक्कों की प्रेरणा से देश को सुशासन दे रहा है, तो क्या उसकी आलोचना नाइंसाफी नहीं है? यूं शब्दकोश में इस अन्यायपूर्ण स्थिति को रेखांकित करने के लिए और भी शब्द हैं, पर फिलहाल इतना ही काफी है। न्याय की अंधी देवी के प्रति निष्ठा और आस्था का इससे बेहतर प्रमाण मुमकिन है क्या?
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