जो तुमको हो नापसंद वही बात कहेंगे
कुछ लोगों की पसंद का रास्ता उनकी नापसंदगी से होकर गुजरता है। अपनी पसंद को लेकर भले उन्हें कितना ही संशय हो, लेकिन नापसंदगी पर सौ टका यकीन होता है। ‘भोजन में कौन सी दाल-सब्जी लेंगे’ पूछे...
कुछ लोगों की पसंद का रास्ता उनकी नापसंदगी से होकर गुजरता है। अपनी पसंद को लेकर भले उन्हें कितना ही संशय हो, लेकिन नापसंदगी पर सौ टका यकीन होता है। ‘भोजन में कौन सी दाल-सब्जी लेंगे’ पूछे जाने पर, उनकी ओर से ‘दाल-मखनी और आलू-गोभी छोड़कर कुछ भी चलेगा’ टाइप कोई भी जवाब आ सकता है। इसी तरह, ‘देश का नेता कैसा हो?’ ‘फलाने-फलाने को छोड़कर कोई भी हो!’
पसंद के बजाय नापसंदगी को सिर-माथे लगाने वाले लोगों को जो तुमको हो पसंद, वही बात कहेंगे कहना, खुद के लिए मुसीबत बुलाने जैसा है। वैसे, कुछ घाघ किस्म के ऐसे लोग भी मिल जाएंगे, जिनकी शुरुआत सामने वाले को जो तुमको हो पसंद, वही बात कहेंगे से होती है, लेकिन काम निकल जाने पर वे मैं चाहे ये करूं, मैं चाहे वो करूं, मेरी मर्जी वाला गीत गाने लगते हैं।
राजनीति के मैदान में ऐसे खिलाड़ियों की कोई कमी नहीं, जिनकी अपनी पार्टी की सरकार बने या न बने, उनकी दिली ख्वाहिश यही रहती है कि फलां पार्टी की सरकार तो किसी सूरत नहीं बननी चाहिए। निर्दलीय उम्मीदवारों का बस चले, तो वे शब्दकोश रूपी सदन से ‘स्पष्ट बहुमत’ जैसे शब्द को ही निष्कासित करा दें।
इस फानी दुनिया में, जहां परिवर्तन के सिवा कुछ भी स्थायी नहीं, पसंद-नापसंद भी बदलती ही रहती है। ऐसे में, कमल हाथी की सूंड सहलाने लगे, हाथी कमल की खुशबू से मदमस्त होने लगे, कवि-कम-राजनेता का अपने पसंदीदा मेटाफर झाड़ू पर से विश्वास उठने लगे, और हाथ साइकिल थामने को बेताब हो उठे, तो भला आश्चर्य कैसा!
बहरहाल, ईवीएम पर नमूदार प्रत्याशियों की लंबी फेहरिस्त के बावजूद कहीं-कहीं वोटर की मौजूदा जहनी कैफियत बेखुद देहलवी के इस शेर जैसी है- मुझको न दिल पसंद न वो बेवफा पसंद, दोनों हैं खुदगरज मुझे दोनों हैं नापसंद।
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