मूल उसूल केवल कुर्सी
जैसे विमोचन तक हर पुस्तक कालजयी होती है, वैसे ही नतीजे आने तक हर दल अपनी विजय के विचार से फूला नहीं समाता है। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में चुनाव कई चरणों में होता है। इस बीच जीत की संभावना व...
जैसे विमोचन तक हर पुस्तक कालजयी होती है, वैसे ही नतीजे आने तक हर दल अपनी विजय के विचार से फूला नहीं समाता है। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में चुनाव कई चरणों में होता है। इस बीच जीत की संभावना व मंत्रिपद की आशा में कई जनसेवक नए कपड़े तक सिलवा डालते हैं। न जनसेवा अपने पैसों से होती है, न जनसेवक अपने पैसों पर गुजर करता है। दान-चंदे का फंड जनसेवक के लिए ही बना है। नए कपड़ों का बिल कोई न कोई समर्थक सुखद दिनों की आशा में चुकता कर देता है।
तुष्टीकरण और ध्रुवीकरण ऐसे शब्द हैं, जो हर चुनाव में सबसे अधिक प्रयुक्त ही नहीं होते, बल्कि जमीन पर अमल में भी लाए जाते हैं। कोई दल मदरसों को सरकारी ग्रांट की राशि और संख्या, दोनों बढ़ाने का वादा करता है, तो कोई अल्पसंख्यकों को नए रोजगार देने का। जनता भी इन चुनावी हथकंडे की सच्चाई बखूबी जानती-समझती है। सवाल वोट का है। इसके लिए नेता को धार्मिक ध्रुवीकरण तक से परहेज नहीं है। दंगा-फसाद, हिंसा, कानून-व्यवस्था की समस्या होती है, तो हो। उससे क्या? इनकी चिंता शासकीय दल का सिरदर्द है। जैसे दुनिया के हर वित्त मंत्री का काम नागरिकों की गिरहकटी है, वैसे ही देश के हर दल का मूल उसूल केवल सत्ता की कुर्सी है। इसके लिए हर अवांछनीय साधन का उपयोग क्षम्य है। हर दल अपने संकल्प पत्र में फ्री फंडिया इंडिया बनाने पर उतारू है। न जाने क्या-क्या मुफ्त होने वाला है।
भारतीय चुनावों में एक अन्य समानता जाति की भूमिका है। सच्चाई है कि जाति का नेता ही जननेता कहलाता है। उनका सीधा समीकरण जोड़ो-घटाओ का है। सत्ता कब्जानी है, तो अपने से अन्य जातियों को जोड़ो, दूसरे दलों से घटाओ। जोड़-घटाओ का सिद्धांत शुरुआत से चुनाव की परंपरा है। दीगर है कि इसकी सार्वजनिक चर्चा मंडल कमीशन लागू होने के बाद से ही बढ़ी है। एक विचारक का मत है कि आज के पिछड़े, महत्व में कल के ब्राह्मण हैं। कौन कहे, इसमें कितना सच है?
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